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आर्य सभ्यता उस समय अपने विकास के चरम शिखर पर थी। भारत में कई आर्य प्रान्त थे। सब स्वाधीन, स्वतंत्र, सर्वप्रभुत्व - सम्पन्न और स्वशासित। इन्हीं आर्य प्रान्तों के वन बीहड़ों में रहती थी अनार्य जातियाँ। आर्य जनता के सुखी, सुविधा सम्पन्न और समृद्ध जीवनयापन से ईर्ष्यालु होकर अनार्य जातियों ने एक वाहिनी तैयार कर ली और लोगों को परेशान करने लगे।
उनके उत्पात बढ़ने लगे और इधर आर्य-प्रान्तों की सेनायें नर्वस हो उठीं। अनार्य जातियाँ जब दूसरे राज्यों में भाग जातीं तो वे हाथ मलकर देखते रह जाते और उन दस्युओं का उत्पीड़न चक्र वहाँ चलने लगता। वे भी इसी तरह परेशान हो जाते। आखिर सब हार, थककर पहुँचे ऋषि शौनक के आश्रम में। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ईशान आदि प्रान्तों के नरेशों ने ऋषिवर के चरणों में प्रणाम किया और अपनी समस्या सामने रखी तथा विजय का आशीर्वाद माँगा तो शौनक ने कहा - ‘आर्यजन, विजय आशीर्वादों से नहीं शक्ति और सामर्थ्य से मिलती है। तुम शक्तिवान बनो और बल प्राप्त करो।’
‘शक्ति तो हमारे पास कम नहीं। हम दस्युओं से निर्बल नहीं हैं, फिर भी हमें पराजय क्यों भोगनी पड़ती है?’ पूर्व देश के नरेश के ने कहा।
‘शायद तुम्हारा संकेत बाहुबल की ओर है परन्तु वही पर्याप्त नहीं हैं। इससे भी बड़ी और एक शक्ति है।’
‘तो पूज्यपाद उस बल से भी अधिक शक्ति हमारी सैनिक क्षमता में हैं। हमारे पास सैनिकों की कमी नहीं। ‘पहश्चम प्रान्त के राजा का कहना था।
‘सैन्य शक्ति भी अपर्याप्त है उस शक्ति के अभाव में।’
‘शस्त्रों से ही सेना की सामर्थ्य बढ़ती है। उससे भी हम प्रचुर संपन्न हैं।’ दक्षिण नरेश बोले।
‘शस्त्र बल से भी महान शक्ति है एक और जो मेरा आशय हैं’- ऋषि शौनक ने कहा।
संभवतया आपका आशय धन, बल से है ईशान अधिपति ने कहा-’नहीं आर्य शरीर, सेना, शस्त्र और ‘धनबल’ से भी अधिक समर्थ एक और शक्ति है’ उपस्थित नरेशों की मुख मुद्रा पर तैरती आतुरता को पढ़ते हुए ऋषि ने कहा-’एकता का बल।संघशक्ति की सामर्थ्य।’
‘यह बल किस प्रकार अर्जित किया जाय’ - आर्य नरेशों ने जिज्ञासा वश पूछा तो ऋषि बोले-’इस अर्जन का पहला सूत्र है- “सगच्छध्वम”- एक साथ मिलकर चलो। तुम लोग अलग-अलग दस्युओं के आक्रमण का सामना करते हो इसी से वे लोग तुम पर भारी पड़ते हैं। दूसरा सूत्र हैं- “संवदध्वम” एक स्वर मत व्यक्त करना उनके हौसले को बढ़ाना हैं इसलिए मिलकर एक निश्चय करो- “संवो मनासि जानताम”- एक निर्णय लो और एक जुट होकर लड़ो तो विजय तुम्हारे हाथ है यही तीसरा और अन्तिम सूत्र हैं।
ऋषि की प्रसाद वाणी से अपनी त्रुटियों का बोध प्राप्त कर समस्त नरेश वहाँ से चले और उन्होंने एकमत होकर योजना बनायी, उस पर अपनी सहमति व्यक्त की, स्वीकृति दी और समर भूमि में डट गये। जब संगठित होकर आगे आये और समस्त दस्युओं, अनार्यों को उनसे लोहा लेना पड़ा तो आत्म-समर्पण करते ही बना।
मनसा, वाचा ओर कर्मणा, एकता- मिलकर सोचने, एक स्वर में बोलने और एक साथ चलने की त्रिविध योजना-संघ साधना ही महान लक्ष्यों को प्राप्त करने का अभियान, अनुष्ठान है, जिसे कोई भी सम्पन्न कर विजेता बन सकता है, जब भी कभी राष्ट्र या संस्कृति पर कोई संकट आया है, संघ शक्ति ने उससे मोर्चा लिया व उसे निरस्त किया है। आने वाले समय में भी यही शक्ति मानवता को विभीषिका से उबारेगी।