इन दिनों हमने अनेकानेक ऐसी गुत्थियाँ गुंथ ली हैं, जिनका इतिहास में कोई प्रमाण, उदाहरण नहीं मिलता। लगभग सभी मौलिक हैं। भले ही उनका आधारभूत कारण एक हो। उनके समाधान के लिए मौलिक सूझ-बूझ और मौलिक साहस की आवश्यकता पड़ेगी। पुरातन उदाहरण और समाधान इस संदर्भ में अधिक काम न आ सकेंगे।
प्रस्तुत गुत्थियों में से एक-एक करके इस क्रम से विचार करें कि कौन अधिक भयावह है और किसकी प्रतिक्रिया अधिक विनाशकारी हो सकती है। इस क्रम में सम्भावित तृतीय विश्वयुद्ध की समस्या सबसे बड़ी है। पिछले दो युद्धों में अपने-अपने ढंग के विशेष आयुधों का विकास हुआ था। इस बार अणु शक्ति सबसे आगे है। अणु बमों, उद्जन बमों की चर्चा अत्यधिक होती है। यों उन्हीं के समानान्तर रासायनिक बम भी कम घातक नहीं हैं और इतनी अधिक संख्या में बन चुके हैं, कि इनके प्रसार होने की सम्भावना निरन्तर सामने रहती है। उनकी घातकता के सम्बन्ध में कहा जाता है, कि एक बम से ही न्यूयार्क, मास्को, इंग्लैंड, पेरिस आदि में से किसी का भी कुछ ही सेकेंडों में सफाया हो सकता है। यदि वे लगातार एक मिनट चलते रहें, तो फिर संसार का एक भी महत्वपूर्ण नगर जीवित न बचेगा। इसके अतिरिक्त उनके कारण जो विषाक्तता फैलेगी, उसके कारण छोटे देहातों तक भी जीवन सुरक्षित न रहेगा। हवा, पानी और खाद्य में इतना विष घुल जायेगा कि उसका आश्रय लेने वाले किसी की भी खैर न रहेगी। यदि यह बम कुछ और अधिक मात्रा में चलते रहे, तो पृथ्वी खण्ड-विखण्ड होकर उस चूरे के रूप में अन्तरिक्ष में उड़ने लगेगी, जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच में अभी भी कोई कचरा चक्कर काटता रहता है।
पिछले युद्धों में आमने-सामने लड़ने वालों की ही शामत आती थी, छावनियों और राहगीरों पर ही बम बरसते थे, अधिकाँश युद्धरत ही मरते थे। अब की बार वह सीमा बन्धन भी समाप्त हुआ। परमाणु बमों, रासायनिक बमों की लपेट में ऐसे वनवासी आ सकते हैं, जिन्हें युद्ध से कुछ भी लेना-देना नहीं। विषाक्त हवा, और विकिरण की चपेट से कोई भी, कहीं भी रहने वाला सुरक्षित नहीं। ऐसी दशा में समस्त संसार को युद्ध भूमि में खड़ा हुआ माना जा सकता है। इसमें लड़ने वाले, न लड़ने वाले, बाल-वृद्ध, मोर्चे से सैकड़ों मील दूर रहने वालों में से भी किसी की खैर नहीं।
इस प्रकार इन पंक्तियों के पाठकों में से भी प्रत्येक के लिए उतना ही बड़ा संकट विद्यमान है, जितना कि अणु बम बनाने या चलाने वालों के लिए। इसकी चपेट में पृथ्वी के मानवेत्तर प्राणी भी आते हैं और वृक्ष-वनस्पतियों का, जलाशयों का जीवन समाप्त हो जाने की भी पूरी-पूरी आशंका है। इतने बड़े पैमाने पर कोई बचाव का प्रबन्ध भी सम्भव नहीं। ढाल छोटी-सी होती है और वह शत्रु के प्रहार से मात्र सीने और सिर का कुछ भाग बचा सकती है। शेष अंग शत्रु की पकड़ से नहीं बचते। इस प्रकार अणु बमों की मार से खाई-खन्दकों में बचाव छतरियों में कुछ सौ या हजार को बचा भी लिया जाय, तो भी उससे क्या बनेगा। निकलने के बाद भी उन्हें इसी विषाक्त संसार में साँस लेनी पड़ेगी। इतने भर से उनका भी सफाया हो जायेगा।
आज का यह संकट सबसे बड़ा है। भले ही वह प्रत्यक्ष आँखों के सामने खड़ा न दीखता हो और तत्काल अपनी भयंकरता के प्रमाण प्रस्तुत न करता हो, तो भी यह निश्चित है, कि किसी का भी जीवन या भविष्य सुरक्षित नहीं। कोई एक अधपगला स्टोर कीपर इस बारूद के भण्डार में एक तीली फेंक कर- बटन दबाकर वह दृश्य उपस्थित कर सकता है, जिसकी चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है। एक ओर आक्रमण हो और दूसरा चुप बैठा रहे, यह भी नहीं हो सकता। प्रश्न हलके-भारी आक्रमण का नहीं, उसका थोड़ा-सा प्रयोग भी सर्वनाश कर सकता है। उससे न शत्रु पक्ष के लोग बचने वाले हैं और न मित्र पक्ष के। पिछले युद्धों में यह कठिनाई नहीं थी। उसमें प्रति पक्षियों को मारने का ही ताना-बाना बुना जाता था, पर इसमें तो वैसा भेद भी नहीं हो सकता। वायु किसी क्षेत्र में सीमित नहीं रहती। विकिरण फैलने पर उसकी परिणति समस्त क्षेत्र को सहनी पड़ती है भले ही उसमें मित्र-समुदाय ही क्यों न रहता हो। समस्त विश्व के प्रत्येक घटक को अपनी विभीषिका-परिधि में लपेटे हुए इस अणु युद्ध सम्भावना को आज की महती समस्या माना जा सकता है एवं सर्व प्रमुख महत्व की भी।
कुछ दिन पूर्व तक यह जखीरे रूस, अमेरिका के पास ही थे, पर अब वे फ्राँस, ब्रिटेन, चीन, आदि के पास भी हैं। इसलिए कौन, कब, क्या कर बैठे- इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। इस विस्तार से गुत्थी उलझी ही है।
समाधान सोचने से पूर्व इस संकट के उत्पन्न होने और बढ़ने के कारणों पर तनिक विचार कर लें, तो ठीक होगा। हिटलर हारा तो उसकी पोटली में से अणु बम का नुस्खा निकल आया। अमेरिका ने उसे विकसित किया और जापान के विरुद्ध उसका छोटा उपयोग भी कर लिया। जापान इस बड़े आघात के लिए तैयार न था, उसने आत्म-समर्पण कर दिया। बात यहीं से आरम्भ होती है। हर वरिष्ठ राष्ट्र के मुँह में पानी भर आया, कि वह भी अपने प्रतिपक्षियों के विरुद्ध यही चाल चल सकता है और उसे देखते-देखते नीचे दबा सकता है। जो कर सकते थे, उनने यह होड़ आरम्भ कर दी और रूस एवं अमेरिका इस निर्माण में औरों से आगे निकल गये। अब प्रमुख प्रतिद्वन्द्विता इन्हीं दो के बीच चल रही है। इन्हीं के दो खेमे अब बन गए हैं।
असमंजस इस बात का है, कि न आगे बढ़ते बन पड़ रहा है, न पीछे हटते। आगे बढ़ते चलने में अनेक समस्याएं सामने हैं। जितने बन चुके, वे प्रतिपक्षी को ही नहीं समस्त संसार को धूलि में मिला देने के लिए पर्याप्त हैं। फिर और अधिक बनाकर उनका क्या किया जाय? इतने पर भी यह प्रश्न सामने है, कि इस कार्य में जितने कारखाने, जितने वैज्ञानिक लगे हुए हैं, उनका क्या हो? फिर शत्रु ने कोई और भी बड़ा आयुध निकाल लिया, तो पिछड़ जाने का जोखिम कौन मोल ले?
बन्द करने पर दूसरा पक्ष जारी रखे रहा, तो अन्य प्रकार का ऐसा आयुध ढूंढ़ निकाला जा सकता है, जिसमें अब तक का निर्माण छोटा साबित हो। ऐसी दशा में प्रतिद्वन्द्वियों का आतंक और पिछड़ जाने का भय दोनों ही ऐसे हैं, जो हाथ रोकने की सलाह नहीं देते।
जारी रखने में यह प्रश्न है, कि जो अब तक बन चुका उसका क्या होगा? इस कार्य पर जो असाधारण लागत लग रही है, वह कब तक लगती रहेगी। फिर प्रयोग में दस-पाँच आयुध ही आने के उपरान्त जो बचेंगे, उन्हें रखा कहाँ जायेगा? वे विकिरण फैलाते हैं और अन्त में कहीं न कहीं समापन के लिए जगह माँगते हैं। इन भट्ठियों में से निकली हुई राख कितनी भयानक होती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। निर्माण जारी रखने पर न केवल विनिर्मित निर्माण का वरन् राख का भी सवाल है, जो उससे भी अधिक पेचीदा है।
इन कारणों को देखते हुए लाभ इसमें है, कि जापान जैसा प्रयोग कोई एक किसी दूसरे के विरुद्ध करले और तत्काल लाभ उठा ले। पर ऐसा कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव नहीं रहा। जापान के पास बदला लेने के साधन नहीं थे, पर आज तो कोई भी बदला ले सकता है। चीन, ईरान और इजराइल जैसे वैज्ञानिक प्रगति में पिछड़े समझे जाने वाले देश भी बदला लेने की स्थिति में हैं। फिर कोई किसी की सहायता पर भी तो आ सकता है। यही है वह असमंजस जिसके कारण प्रहार करने की हिम्मत भी नहीं पड़ती और पीछे हटने को जोखिम भी उठाये नहीं उठती। इस निर्माण कार्य में जो कारखाने और वैज्ञानिक विपुल पूँजी अपने पेट में समाये बैठे हैं, उस सबका क्या हो? आक्रमण से पूर्व अब बचाव का प्रश्न और भी अहम् है। अपनी ओर से हाथ खींचे तो सामने वाला भी वैसा ही करेगा। इसका कोई भरोसा नहीं। जारी रखा जाय तो कैसे, कब तक? अभी कितनी और पूँजी इस गोरखधन्धे में लगानी पड़ेगी? वह आयेगी कहाँ से?
आत्म रक्षा को महत्व देने वाली समर-नीति समझौतों की चर्चा की इजाजत नहीं देती। पुरानी बात अलग थी, जब आन-बान-शान ही सब कुछ थी। अब मूँछें मरोड़ने और तत्काल उन्हें नीची कर लेने में किसी को संकोच नहीं लगता। ऐसी दशा में पहल होना भी कठिन है और हाथ रुकना उससे भी कठिन। क्रम यही चलता रहा, तो इस जखीरे का, उस कचरे-कूड़े का, उसमें लगे साधनों का क्या होगा? यह प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर सरल नहीं हैं। जापान का उदाहरण देखकर जो कल्पनाएं की गई थीं, वे हजारों मील दूर रह गईं।
कोई किसी का राज हड़पना चाहता हो, सो बात भी नहीं है। कभी प्रजातंत्र और साम्यवाद का नशा जोरों पर था। अपने मत का संसार बना लेने की झक कभी थी और इसलिए जिहाद बोल देने का भी जोश था। वह अब ठण्डा पड़ गया। अब प्रजातन्त्र, राजतंत्र, साम्यवाद की मिली-जुली खिचड़ी पक रही है और सभी के मस्तिष्क राष्ट्रवादी संकीर्णता पर आकर अवरुद्ध हो गये हैं। अपने यहाँ कोई किसी सिद्धान्त का पालन करे या दूसरे देशों में उसे चलना ही चाहिए- इसका किसी को आग्रह नहीं। ऐसी दशा में शासन पद्धति अपनी जैसी बनाने के लिए भी कोई बाहरी देशों में जाकर युद्ध जैसी जोखिम उठाने को तैयार नहीं। शीत युद्ध में गुपचुप सहायता इस या उस पक्ष की करता रहे, यह बात दूसरी है। यह समस्त परिस्थितियाँ यह बताती हैं कि न महायुद्ध छेड़ना सरल है, न उससे हाथ खींचना। स्थिति को यथावत बनाये रखना इतना खर्चीला है, कि वह भी लम्बे समय तक इसी प्रकार चलते नहीं रहने दिया जा सकता। आखिर कर देने वाले भी इतना बोझ कब तक वहन करेंगे।
जापान पर हमने के दिनों में सभी को वह प्रक्रिया बहुत लाभदायक लगी थी पर अब वैसी बात नहीं रही। सभी पक्ष पीछे हटना चाहते हैं। जो अपने हाथ हैं, उससे ही बचाये रखने में भलाई देखते हैं। आक्रमण का जोश ठण्डा पड़ता जाता है, पर प्रतिपक्ष के प्रति अविश्वास और भय का भाव इतना अधिक बढ़ा हुआ है, कि कोई निर्णय करते नहीं बन पड़ता। अब वायदों का भी तो कोई मूल्य नहीं रह गया है।
यह स्थिति का विश्लेषण हुआ। समाधान एक ही है कि पैर पीछे हटाना और हाथ समेटना पड़ेगा। इसके लिये भय, आशंका और आतंक इन तीनों का सामना करना पड़ेगा। एक पक्ष को जोखिम उठाना पड़ेगा। दोनों पक्ष सहमत हो जायें तब कहीं राजी-नामा हो, यह कठिन है। फिर वही राजी-नामा चलेगा, इसकी क्या गारण्टी है? यहाँ ऐसा आत्मबल उत्पन्न होने की आवश्यकता है जो यह सोचने पर विवश कर दे कि युद्ध में नष्ट होने की अपेक्षा शान्ति के लिए पहल करने में जो जोखिम है, उसे उठाया जाए। गाँधी जी ने यहाँ कर दिखाया था। अंग्रेजों की शक्ति असीम थी, वे सशस्त्र थे। दमन के द्वारा वे कुछ भी कर सकते थे। पर भयभीत रहकर कुछ न करने की अपेक्षा संकट मोल लेना और आपत्ति को चुनौती देना उन्होंने अंगीकार किया। लड़ाई बराबर की नहीं थी, तो भी वह जीती गयी और यह अनुभव किया गया कि नैतिकता का अपना पक्ष है, उसका अपना बल है। वह जिस पलड़े में भारी पड़े, उसके पराजित होने की आशंका कम ही रहती है। फिर पराजय मिलेगी तो भी युद्ध विनाश की तुलना में तो कम ही रहेगी।
यह समझदारी उत्पन्न करने के लिए हम अपनी सूक्ष्मीकरण द्वारा उपार्जित शक्ति का उपयोग करेंगे। दोनों को पीछे हटने के लिए दबाव डालेंगे और यह विश्वास किसी न किसी प्रकार करा सकेंगे कि आक्रमण की तुलना में पीछे हटने में बुद्धिमता है। इस दबाव से आज का आक्रोश ठण्डा होगा। समझदारी और जिम्मेदारी का नया दौर चलेगा। गरम युद्ध शीतयुद्ध में बदलेंगे और शीतयुद्ध अन्ततः उस स्थिति में जा पहुँचेंगे जिसे लम्बे समय के लिए सदा के लिए युद्ध विराम के रूप में देखा जा सकें।