आत्मसत्ता में निहित विभूतियों का रहस्योद्घाटन

July 1984

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अध्यात्म शास्त्र के प्रवक्ता समय-समय पर यही उद्बोधन देते रहे हैं- अपने को जानो, उसे पहचानो, ऊँचा उठाओ- ‘‘आत्मानं सिद्धि”, “आत्मावारे ज्ञातव्य”। इन संकेतों से तात्पर्य यही है कि मनुष्य को अपने काय-कलेवर के उस अविज्ञात पक्ष की बहुत ही कम जानकारी जिसके माध्यम से वह आत्मिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकता था। जब भी यह बोध होता है उसे सूक्ष्म की परतों का पता चलता है वह जीवनमुक्त स्थिति को प्राप्त हो जाता है। सिद्धार्थ का उदाहरण सामने है जो मनन साधना द्वारा बोध होते ही बुद्ध बन गए। लेकिन समझ में यह नहीं आता कि अपने बारे में ऐसा क्या है, जो मनुष्य नहीं जानता पूछने पर तुरन्त नाम, गोत्र, वंश व्यक्ति बता देता है। काया अलग है, व उसका प्राण आत्मा अलग, जो उसकी नियामक सत्ता है, यह भी अधिसंख्य व्यक्ति जानते हैं। इस प्रसंग का ऊहापोह करने के लिए लोग जाने कितने शास्त्र पढ़ते, पुराण-कथाओं का श्रवण करते देखे जाते हैं, लेकिन इससे क्या आत्मबोध हो पाता है?

वस्तुतः मनुष्य जन्म से ही अज्ञानी पैदा होता है। क्रमिक प्रगति के माध्यम से वह उतना ही सीख पाता है, जितना कि जिन्दगी की गाड़ी चलाने, परिवार का पेट भरने एवं समाज संपर्क में काम आता है। इस व्यावहारिक ज्ञान को वातावरण से अर्जित हुआ समझा जा सकता है, सुसंस्कारों, पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप कुछ व्यक्ति मात्र इतने तक ही सीमित नहीं रहते, इससे ऊँचा उठते व चेतना के क्षेत्र में ऊहापोह करते देखे जाते हैं। उपयुक्त मार्गदर्शन मिलने पर वे आत्म वैभव की सम्पदा सम्बन्धी अपने अज्ञान के अन्धकार को दूर कर ज्ञान की शलाका से नयी ज्योति जलाते हैं। ऐसे ही व्यक्ति नर-पशु की योनि से निकलकर, भव-बन्धनों से छूटकर ब्राह्मीचेतना के आनन्द का रसास्वादन करते हैं। जीवनमुक्त इन्हीं को कहा जाता है।

अपने आप के बारे में न जान सकने की यह विडम्बना बहुसंख्य व्यक्तियों के साथ घटती देखी जा सकती है। प्रत्यक्ष को ही सब कुछ मान बैठने वाले ये जड़मति जीव अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं होते। चार अंधों की वह कथा प्रख्यात है- जिसमें अपने दायरे की जानकारी को ही सब कुछ मानकर हरेक ने हाथी को अपने-अपने चिन्तन के अनुरूप वैसा ही मानो था। हर मनुष्य के अन्दर फेफड़ों का विस्तृत क्षेत्र होता है। गहरी साँस ले सकने के अभाव में वे उसके थोड़े से ही अंश से गुजारा कर तो लेते हैं लेकिन उथली साँस के परिणाम स्वरूप क्षय रोग, दमा आदि के शिकार भी होते देखे जाते हैं। मस्तिष्क की अपरिमित सामर्थ्य सम्पदा का मात्र तेरह प्रतिशत ही सामान्य से कुछ अधिक असामान्य स्तर वाले व्यक्ति सदुपयोग कर पाते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि शेष का अस्तित्व नहीं।

यहाँ प्रसंग मनुष्य की आत्म विस्मृति सम्बन्धी उस विडम्बना का चल रहा है जिसके चलते वह स्वयं की सूक्ष्म परतों से, उस वैभव साम्राज्य से अनभिज्ञ बना रहता है जो जगाये एवं विकसित किए जाने पर उसे असामान्य बना सकती है। यह इस कारण है कि स्थूल को महत्व देने वाले नजरिये को बदलने का कभी प्रयास ही नहीं किया गया। यही मानकर चला गया कि जो प्रत्यक्ष है, सो सामने है। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसका अस्तित्व ही नहीं है। जब आत्म-चेतना निष्क्रिय पड़ी है।- उच्चस्तरीय सक्रियता में विकसित नहीं हो पा रही, आत्मसत्ता रूपी अन्धेरी कोठरी में विषाक्त तत्व पलते रहेंगे एवं व्यक्तित्व पतन पराभव के गर्त्त में गिरता चला जाएगा।

एनाटामी के छात्रों को शरीर की चीरफाड़ द्वारा अन्दर अवस्थित अंगों की जानकारी भर करायी जाती है। चेतना की एनाटामी भला वे कैसे समझ पाएँ। काया के अन्तराल में विराजी पंचकोशों, षट्चक्रों, उपत्यिकाओं की वैभव सम्पदा को ढूंढ़ पाने के अभाव में वे कैसे मानें कि अमुक स्थान पर अमुक का अस्तित्व है। जहाँ इनकी सीमा मर्यादा है, वहीं फिजियोलॉजी के जानकारी की भी अपनी एक परिधि है। रस स्राव जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, शारीरिक अवयवों का संचालन जिस प्रकार होता रहता है, उसे ही वे समग्र मान बैठते हैं। शरीर में बहती विद्युतधारा, जैव चुम्बकत्व इत्यादि को मापने वाले उपकरण भी एक स्थूल सीमा रेखा तक जानकारी दे पाते हैं। इससे परे उनके यन्त्र भी असफल हैं एवं जानकारी भी अपूर्ण है।

अध्यात्म वेत्ता स्वयं को काया के सीमा बन्धन में बँधा नहीं मानते। वे परोक्ष जगत के अस्तित्व को स्वीकारते हैं एवं व्यष्टि तथा समष्टि में संव्याप्त इस ब्राह्मीचेतना को ‘इकॉलाजी’ के रूप में- परम सत्ता के साम्राज्य के रूप में पहचानते हैं। वे आत्म सत्ता रूपी प्रयोगशाला में योग साधनाओं ध्यान धारणा आदि के माध्यम से खोजबीन कर अन्तः की परतों तथा प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल के मध्य आदान-प्रदान का मार्ग खोज निकालते हैं। शास्त्र निष्कर्षों और आप्त वचनों में इसी रहस्य रोमाँच का उद्घाटन किया गया है जो उतना ही सत्य है जितना कि प्रत्यक्ष दृश्यमान हमारा ब्रह्माण्ड व उसका सौर मण्डल।

स्थूल शरीर निर्वाह प्रयोजन में लगने के कारण जल्दी थकता है लेकिन सूक्ष्म शरीर भार रहित है। वह प्रकाश की गति से भी तीव्र वेग से क्वाण्य-तरंगों के समुच्चय सूक्ष्म जगत में परिभ्रमण करता रह सकता है एवं अनेकों ऐसे प्रयोजन सिद्ध करता है जो प्रत्यक्ष रूप में स्थूल शरीर से सम्भव नहीं हो पाते। यही कारण है कि सभी आयामों की परिधि से परे विभिन्न लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करती सूक्ष्म शरीरधारी जीवात्माएं ऐसे कई प्रयोजन पूरी करती दिखाई देती हैं जिनका कारण ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता। बहुधा उसे संयोग अथवा देवी घटनाक्रम मानकर आत्म-सन्तोष कर लिया जाता है। आत्म सत्ता के सूक्ष्मीकरण की यह विधि स्वयं में अद्भुत है एवं ऋषि, देव मानव, महामानव स्तर के प्रज्ञावानों द्वारा कई बार जीवित रहते हुए भी ऐसे असम्भव पुरुषार्थ करते देखा जाता है। जीवनमुक्त स्थिति में सशरीर इस धरित्री पर रहने वाले इस महापुरुषों की कोई आयु मर्यादा नहीं होती, तथापि अपवाद रूप में कुछ देवपुरुष देह त्यागकर भी सूक्ष्म रूप में वही कार्य करते रहते हैं। जो मानवता के कल्याण हेतु वे जीवित स्थिति में करते थे।

यह चर्चा हमारे सूक्ष्मीकरण के संदर्भ में प्रासंगिक होने के नाते की जा रही है। प्रत्यक्ष रूप में- इस स्थूल काया से जो कार्य हमसे हो सका, उसका मूल्याँकन अभी तो नहीं बाद में हो सकेगा। लेकिन सूक्ष्मीकृत रूप में क्या कुछ होने जा रहा हैं, क्या किया जाना है, इसकी चर्चा हमने प्रारम्भिक पृष्ठों पर की है। यह एक अकाट्य तथ्य है कि आत्मिकी के माध्यम से ही वे सारे प्रयोजन पूरे हो सकेंगे जिनका आज की युग सन्धि की विषम बेला में आस्था संकट के निरस्त्रीकरण हेतु आवश्यकता है। हमने अपने चौबीस वर्ष की उच्चस्तरीय गायत्री साधना एवं दैनन्दिन उपासना- आराधना के क्रम से जो प्रत्यक्ष भूमिका बनायी है, उसके कई अध्याय पूरे हो चुके। अब उपसंहार भर शेष है। यही सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा जो वर्तमान को आमूल-चूक बदल डालेगा। आत्मसत्ता के सूक्ष्मीकृत रूप में प्रकटीकरण की क्या चमत्कारी परिणतियां हो सकती हैं इसे अगले दिनों स्पष्टतः देखा जा सकेगा।

प्रश्न उठ सकता है कि प्रत्यक्ष स्थिति में ही इतने असम्भव कार्यों को जब किया जा सका तो परोक्ष भूमिका में उतरने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी। इसका एक ही उत्तर है कि समस्याओं की विषमता और विराट् रूप को देखते हुए उसे दैवी चेतना, सूक्ष्म शरीर में विद्यमान अनेकों देवात्माओं के माध्यम से सम्पन्न कराना चाहती है। जैसी व्यवस्था स्थूल रूप में समाज तन्त्र की है वैसी ही कुछ परोक्ष जगत की भी है जहाँ सतत् अदृश्य सहायक पितरगण सूक्ष्म रूपधारी आत्माएँ दिक्-काल के परे परिभ्रमण करती रहती हैं वे अपने क्रिया-कलापों से समष्टि जगत को प्रभावित करती हैं, भले ही दृश्य रूप में उन्हें न देखा जा सके। सूक्ष्मीकरण साधना के उपरान्त साधक उसी श्रेणी में आ जुड़ता है और पृथ्वी पर शरीर रूप में रहते हुए भी उनमें प्रत्यक्ष सम्बन्ध बनाये रखता है।

जीवित रहते हुए भी तन्त्र शास्त्र के वेत्ता अपनी ही एक अदृश्य अनुकृति गढ़ डालते हैं एवं वे उससे उसी प्रकार काम लेते हैं जैसे बच्चों की कहानियों में अलादीन के चिराग से जिन्न पैदा होकर अजूबे कर दिखाता है। सुकरात का डेमन भी सम्भवतः ऐसा ही रहा होगा। सूक्ष्म शरीर की जागृति वस्तुतः प्रत्यक्ष व परोक्ष जगत के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया सम्पन्न कर दिखाती है एवं आत्मसत्ता के उन रहस्यों पर से पर्दा हटाती है जिनकी जानकारी मनुष्य को नहीं है।

सूक्ष्म शरीर के जागरण हेतु साधक को योगाभ्यास में कई प्रकार की ध्यान धारणाओं का समावेश करना होता है। षट्चक्र, पंचकोश, तीन ग्रन्थियों, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना रूपी नाड़ियाँ किस स्तर की हैं। व इस सारे अविज्ञात वैभव के जागृत होने पर साधक किस प्रकार अगणित विभूतियों का स्वामी बन जाता है, इसे विस्तार से कुण्डलिनी महाशक्ति एवं उसकी संसिद्धि विषय के अंतर्गत विस्तार से हम समझाते रहे हैं। अतीन्द्रिय सामर्थ्य जिनका आज सारे विश्व में खूब प्रचार किया जा रहा है, उस जागृति की प्रक्रिया की एक छोटी सी झाँकी भर है। इससे इतर, उच्चस्तरीय भी कई ऐसी श्रेणियाँ हैं जिनमें सिद्धियों की नहीं आत्मिक विभूतियों की प्रधानता होती है। मनश्चेतना का सुनियोजन कर ऐसे सिद्ध साधक कितने ही ऐसे कार्य कर डालते हैं जो प्रत्यक्ष रूप में शरीर द्वारा सम्भव नहीं जान पड़ते। यह सारी चमत्कृतियाँ सूक्ष्मीकरण- जन्य है।

कारण शरीर चेतना का वह सूक्ष्म आयाम है जहाँ देव स्तरीय आत्माएँ कार्यरत देखी जा सकती हैं। सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया की चरम स्थिति में जब मानव की व्यष्टि चेतना एवं समष्टिगत देव चेतना में समन्वय स्थापित होता है तब कारण शरीर का जागृति मानी जाती है। इस श्रेणी तक पहुंचे महापुरुष की अपनी कोई वैयक्तिक इच्छा नहीं रह जाती। अन्तःकरण की सूक्ष्म परतों से बना कारण शरीर आध्यात्मिक फिजियोलॉजी की दृष्टि से धरातल से उठी चेतना की समष्टि चेतना से तादात्म्य स्थापित कर लेने की प्रक्रिया का ही विशिष्ट नामकरण है। इसके जागने से देव शक्तियाँ भीतर से जागती व कार्यरत होती बतायी जाती हैं। जिन पंचदेवों को शरीर में उपस्थिति पाँच देवताओं का प्रतिनिधि बताया जाता है, वे पंचकोशों के रूप में इसी काया में विद्यमान है। वस्तुतः वे मानवी चेतना के पाँच स्तर हैं जिनमें अन्तिम स्थिति के आने तक उसका देवचेतना से मिलन होता बताया गया है। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं आनन्दमय के नाम से संबोधित चेतना के इन पाँच आयामों को अपने नियन्त्रण में कर लेने वाला व्यक्ति देव पुरुषों की श्रेणी में जा बैठता है। पदार्थ विज्ञानी तो तीन आयामों से ही परिचित हैं। आइन्स्टीन ने दिक्-काल के रूप में चेतना के चतुर्थ आयाम की कल्पना की थी जिसमें प्रतिपदार्थ, प्रतिकणों का अस्तित्व माना गया है। इस चौथे आयाम से ऊपर भी कोई पांचवां आयाम है। जिसमें कोई चेतन सत्ता विद्यमान है अथवा भौतिकी की दृष्टि से जिसमें कुछ कणों को पहचाना पकड़ा जा सकता है, इसकी कोई जानकारी वैज्ञानिक जगत को नहीं। अध्यात्म वेत्ता बताते हैं कि यह अन्तिम आयाम ही चेतन सत्ता का अस्तित्व बताने वाला आयाम है, जहाँ सूक्ष्मीकृत व्यष्टि चेतना संव्याप्त देखा जा सकता है।

मानवी काया में परोक्ष जगत का सूक्ष्म ढाँचा विधाता ने बड़ी कुशलतापूर्वक पिरो रखा है। यह स्वतन्त्रता भी दे रखी है कि उस सूक्ष्म शरीर को जागृत जीवन्त बनाकर वह बहुमुखी कार्य भी सम्पन्न कर सके। सिद्ध पुरुष यही करते हैं एवं स्थूल से सूक्ष्म तथा सूक्ष्म से कारण शरीर की जागृति हेतु साधना पुरुषार्थ कर आप्त वचनों की प्रामाणिकता भी सिद्ध करते हैं। जो काम नीरोग, सुघड़, स्फूर्तिवान स्थूल काया कर सकती है, उससे अधिक अनुपात में विचारणा एवं भावना के आयामों द्वारा सूक्ष्म एवं कारण शरीर कर दिखाते हैं।

सूक्ष्मीकरण का साधना वस्तुतः आत्म जागृति की ही योग साधना है। इससे जहाँ व्यक्ति स्वयं में विभूतियों का स्वामी बनता है, वहाँ परोक्ष से आदान-प्रदान का- अन्यान्य व्यक्तियों, वातावरण एवं समस्त समुदाय को लाभान्वित करने का हित साधन भी सम्भव होता है। हमारी साधना उन्हीं उच्चस्तरीय उद्देश्यों के निमित्त चल रही है।


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