प्रस्तुत विषमताओं के निवारण हेतु राष्ट्र व्यापी यज्ञायोजन

July 1984

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इन दिनों गायत्री के दृष्टा विश्वामित्र अपनी भूमिका महाप्रज्ञा के रूप में सम्पन्न कर रहे हैं। प्रज्ञा अभियान उसी का रूप है। महा संकट की घड़ियों में वह प्रयोग प्रादुर्भूत होता रहा है। युग सन्धि के इस संकट काल में महाविनाश के लक्षण सामने हैं। भविष्य वक्ताओं से लेकर विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों तक एक ही बात कह रहे हैं कि यह महाविनाश का समय है। युग परिवर्तन की इस विषम विभीषिका में जो कुछ प्रस्तुत है उसमें से बहुत कुछ बदल जायेगा। जो प्रस्तुत है यह अशुभ है। मनुष्य की दुर्गति ने हर क्षेत्र में दुर्गति उपस्थिति की है। बदलाव होगा तो परिस्थिति के साथ-साथ मनःस्थिति भी बदलेगी। गलाई और ढलाई का युग्म दोनों ही प्रयोगों में भयंकर होता है। इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है।

प्रज्ञा युग के अवतरण में महाप्रज्ञा की अपनी विलक्षण भूमिका चरितार्थ हो रही है। प्रज्ञा अभियान यही है। जागृत आत्माऐं मिलजुल कर इस महा अवतरण में अपनी भूमिका संवहन कर रही हैं। यह संसार भर में अपने-अपने ढंग से हो रहा है। उन सब का वर्णन तो इन पंक्तियों में सम्भव नहीं, पर उन कुछेक घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जिनमें भारत क्षेत्र से प्रज्ञा तन्त्र की छत्र छाया में विनाश के कितने ही अवसर टल गये।

कुछ ही समय की बात है पाकिस्तान के अंग बंगला देश में प्रायः एक करोड़ शरणार्थी बंगला देश में भारत आ घुसे थे। लौटाने का अनुरोध करने पर लड़ाई की धमकियाँ ही नहीं दी गई वरन् हिमायती अमेरिका के अणुआयुधों से लदे जलयान भारत की सीमा पर आ धमके। सभी आतंकित थे। उन दिनों गायत्री परिवार ने एक सामूहिक महापुरश्चरण किया था। उसके सदस्यों में हर दिन चौबीस लाख प्रतिदिन का साधना क्रम चलाया था। परिणाम आश्चर्यजनक हुआ। मँडराते बादल टल गए। उतना ही नहीं बंगला देश स्वतन्त्र हुआ और शरणार्थियों की समस्या हल हुई। भारत विपत्ति में फँसने के स्थान पर श्रेयाधिकारी बना।

उस घटना को पाठक भूले नहीं हैं। जब भटका हुआ महाभयंकर उपग्रह स्काईलैव भारत के इर्द-गिर्द गिरने वाला था। भय और आतंक सर्वत्र छाया हुआ था। अमेरिकी सरकार ने आश्वासन तक दिया था कि जो क्षति होगी उसकी पूर्ति हम करेंगे।

उस अवसर पर इसी संकट के निराकरण के लिए गायत्री परिवार के सदस्यों ने सामूहिक गायत्री पुरश्चरण किया। विपत्ति टल गई। उपग्रह आस्ट्रेलिया के समीप समुद्र में एक सुनसान क्षेत्र में गिरा। किसी की राई भर हानि न हुई।

आपत्तिकाल घोषणा के समय भी आतंक का वातावरण बना था। उस समय भी ऐसा ही सामूहिक पुरश्चरण किया गया और अचम्भा तब हुआ जब वे दिन जल्दी ही समाप्त हो गये।

एक पुरश्चरण इन दिनों चल रहा है। इस वर्ष के आरम्भ में ही हर गायत्री परिजन को एक माला नित्य जप करने के लिए कहा गया था। उसका कारण तो नहीं बताया गया किन्तु इतना अवश्य कहा गया कि यह वर्ष अपने देश की प्रगति में भारी बाधक है और उसे टालने के लिए हमें आध्यात्मिक अस्त्र उठाना चाहिए। परिजनों ने उस बात पर पूरा विश्वास किया और इस नये अनुष्ठान को परिपूर्ण श्रद्धा के साथ आरम्भ कर दिया। इस वर्ष देश पर क्या बीती हम सभी जानते हैं। असम की घटनाओं का सभी को स्मरण है। पंजाब की गत डेढ़ वर्ष से चली आ रही अराजकता को कौन भूल सकता ह। इस संदर्भ में मामला बढ़कर कहाँ से कहाँ तक पहुंचा इसे भुलाना नहीं जा सका है। परिस्थिति यहाँ तक पहुँचेगी इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी।

इस आकस्मिक विप्लव को यदि और कुछ दिन सुलगने दिया गया होता तो स्थिति विस्फोटक होती। घटनाचक्र इस तेजी से घूमा कि किसी सामूहिक प्रयत्न की गुंजाइश नहीं थी। इस अवसर पर एक दैवी चेतना के निर्देश पर एक प्रज्ञानिष्ठ साधक ने एकाकी ऐसा महाव्रत ठाना जिसकी किसी को सम्भावना तक न थी। प्रज्ञा तन्त्र के संचालक ने एकान्तवास, मौन और कठिन व्रत उपवास धारण कर लिया। रात्रि तक किसी सगे स्वजन तक को इस प्रकार क आरंभ की भनक न थी। सभी हैरत में थे कि सूत्र-संचालक कभी कोई आकस्मिक कदम नहीं उठाते। जो करना होता है। उसका कारण और समय बता देते हैं। चौबीस दिन में जल उपवास का कारण और समय उन्होंने सभी अपने विरानों तक को बता दिया था पर इस बात का ऐसा अचम्भा हुआ कि इतना कठोर कदम उठाया। जिनके कानों में भनक पड़ी है उनने जाना है कि पंजाब में भारी अनिष्ट की आशंका थी। उसे ही नहीं, देशव्यापी उत्पात को रोकने के लिए सामूहिक कदम उठाने की सम्भावना थी। उनने अकेले ही पूरी सामर्थ्य झोंक दी और अंगद जैसा पैर गाढ़ा कि रोकना या प्राण देना। इस बार भी वैसा ही चमत्कार सामने आया। प्राण नहीं देने पड़े और संकट एक सीमा तक टल गया। इस प्रयास और कारण की चर्चा अभी तक कही नहीं की गई है। इतने पर भी यह नहीं समझना चाहिए कि इस विपत्ति से राष्ट्र उबर गया। सम्भव है हमारा व्रत एकान्त और तब तक चले जब तक सन्तोष की साँस लेने की स्थिति स्पष्ट न हो जाय।

यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि अब चैन की कुछ सांसें लेने का समय आ गया। ईरान-ईराक, इजराइल लेबनान, चीन वियतनाम, रूस-अफगानिस्तान, संयुक्त राज्य-मध्य अमेरिका आदि की घटनाएं नित्य परिजन अखबारों में पढ़ते हैं कि चारों ओर बारूद के ढेर लगे हैं उनमें कोई भी सिरफिरा माचिस की एक तीली फेंक कर सर्वनाश के दृश्य उपस्थित कर सकता है। इसके अतिरिक्त दैवी प्रकोप की ओर भी कितने ही अविज्ञात घटाटोप सिर पर घहरा रहे हैं, जिनकी परोक्ष के पर्दे पर झाँकी हमें सतत् दिखाई देती है।

युग संधि की इस प्रभात बेला में महाकाल का गतिचक्र तेजी से गतिशील हो रहा है। उसका प्रयोजन अवाँछनीयता को गलाना और महानता को ढालना है। प्रसव पीड़ा की तरह नवयुग भी कष्टकारक प्रक्रिया के साथ प्रकट हो रहा है। ऐसा विराट परिवर्तन अपने साथ कुछ न कुछ वेदनाएं साथ लाता है। ला भी रहा है। युग सन्धि के शेष दिन एक में से एक अधिक होंगे। भले ही उनका अन्तिम उद्देश्य सतयुग जैसा महान ही क्यों न हो। संतुलन बनाये रहने के लिए आद्य-शक्ति युग-शक्ति को प्रदीप्त करना आवश्यक है। प्रज्ञा अभियान द्वारा यह अपने ढंग से निरन्तर किया भी जाता रहा है।

यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि गायत्री और यज्ञ का अविच्छिन्न युग्म है। दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। गायत्री की आभा और यज्ञ की ऊर्जा एक दूसरे को बल प्रदान करती हैं। पुरश्चरणों की पूर्ति मात्र जप से नहीं होती वरन् उसके साथ यज्ञ भी जुड़ा रहता है। जिनके पास साधन नहीं वे मात्र समिधाओं में ही अग्निहोत्र करले ऐसा शास्त्र विधान है। गायत्री परिवार के साथ जिनका संपर्क रहा है उन्हें विदित है कि गायत्री तपोभूमि में एक बार सौ कुण्डी, एक बार सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ विशाल रूप में हुए हैं। वहाँ की पुरातन एक कुण्डी यज्ञशाला में और शान्ति-कुँज की नौ कुण्डी तथा ब्रह्मवर्चस् की यज्ञशाला में नित्य यज्ञ होते हैं। इन गायत्री तीर्थों में श्रद्धालु साधक इसीलिए पहुँचते हैं कि वहाँ पुरश्चरण के अनुकूल वातावरण है कि विधिवत् गायत्री जप के साथ-साथ यज्ञ की भी व्यवस्था रहती है जो कि हर साधक को अपने संकल्प की पूर्ति हेतु अभीष्ट है।

भावी परिस्थितियों के पूर्वाभास पर दृष्टि डालते हुए यह आवश्यक हो गया है कि पहले की अपेक्षा अब और अधिक सतर्कता बरती जाय और बड़े कदम उठाये जायें। छोटे प्रयासों से काम न चलेगा। जहाँ तक आध्यात्मिक प्रयोजनों का संबंध है वहाँ सब की दृष्टि पूर्व की ओर एवं एकमात्र भारत की ओर हो जाती है। सोचा गया है कि देश के सात लाख गाँवों में से कम से कम एक लाख गाँव ऐसे अवश्य हों जिनमें नियमित गायत्री और यज्ञ का उपक्रम चलता रहे। युग सन्धि काल सोलह वर्ष अब शेष हैं। इनमें बिना व्यतिक्रम हुए गायत्री पुरश्चरण की शृंखला चलती रहे, व्यक्तियों का प्राण तत्व अधिक मात्रा में सम्मिलित रहे भले ही जप की संख्या कम रहे। यज्ञ में श्रद्धा और नियमितता अधिक भरी रहे, भले ही आहुतियाँ की, चरु-शाकल्य की संख्या न्यून मात्रा में रहे।

आगामी गुरु पूर्णिमा ता. 12 जुलाई से विशिष्ट प्रज्ञा पुरश्चरण का सामूहिक आयोजन आरम्भ किया जा रहा है। इसमें वर्तमान गायत्री उपासक नये गायत्री उपासकों को शिक्षित करेंगे। हर एक के लिए यह कर्त्तव्य निर्धारित होगा कि जिन्हें गायत्री मन्त्र नहीं आता है ऐसे 24 व्यक्तियों को गायत्री मंत्र का उच्चारण सिखायें और एक माला नित्य जप करने का संकल्प निबाहने के लिए तत्पर करें। एक माला प्रायः पाँच मिनट में पूरी हो जाती है। इतना समय घड़ी देखकर या अनुमान से भी लगाया जा सकता है। समय सूर्योदय का सबसे उत्तम है। स्नान करके पूजा-अर्चना के विधान अधिक फलदायक होते हैं। पर जिन्हें इसकी विवशता हो- वे बिना स्नान के भी मौन मानसिक जप कर सकते हैं। बिलकुल ही न करने की अपेक्षा समय प्रातःकाल की अपेक्षा कुछ आगे पीछे भी किया जा सकता है। इस प्रकार अपेक्षा अपेक्षा की गई है कि 24 लाख व्यक्तियों द्वारा 24 करोड़ जप नित्य ही प्रज्ञा पुरश्चरण के अंतर्गत होने लगेगा।

मात्र जप अधूरा माना जाता है। जब यज्ञ समाप्त होता है तभी उसको पुरश्चरण संज्ञा मिलती है। प्रयत्न यह किया जाना है कि जहाँ भी पुरश्चरण की एक माला का जप हो वहाँ वर्ष में इस निमित्त एक बार एक यज्ञ भी अवश्य हो जाया करे।

वहाँ संख्या में बड़े आयोजन समेत अधिक आहुतियों वाला विशालकाय आयोजन होना आवश्यक नहीं। यह छोटे रूप में भी हो सकता है। सोचा गया है कि इस पुरश्चरण योजना के अंतर्गत एक लाख यज्ञ हर वर्ष सम्पन्न हुआ करें। चौबीस करोड़ जाप प्रतिदिन और एक लाख यज्ञ हर वर्ष करने की व्यवस्था बहुत बड़ी है। लगता है यह इन दिनों संव्याप्त अश्रद्धा को देखते हुए किस प्रकार बन पड़ेगा किन्तु जिस महाशक्ति के द्वारा यह प्रेरणा उठी है, उसे देखते हुए यह विश्वास किया जा सकता है। कि वह अधूरा न रहेगा।

इन दिनों पंजीकृत एवं नैष्ठिक गायत्री उपासकों की संख्या प्रायः 24 लाख है। उन सभी से आग्रह किया जा रहा है कि वे नये 24 व्यक्तियों को गायत्री मन्त्र सिखायें और प्रतिदिन पाँच मिनट उपासना उन सब से कराने का संकल्प पूरा करें। लगन और उत्साह जहाँ भी होगा वहाँ इतना बन पड़ना कुछ कठिन नहीं है।

यज्ञ का प्रकरण थोड़ा पेचीदा है। एक लाख छोटे यज्ञ करने से खर्च से लेकर भाग-दौड़ करके व्यवस्था बनाने तक के बहुत झंझट हैं। उन सबका लोगों में उत्साह होना कठिन है। श्रद्धा की कमी रहने पर उतनी जिम्मेदारी कौन उठाता है। इतना होते हुए भी कार्य की महत्ता भी समय की आवश्यकता देखते हुए जो संकल्प किया गया है। उसे निबाहना ही होगा। सर्वविदित है कि प्रज्ञा परिवार का एक भी संकल्प अब तक अधूरा नहीं रहा। जिस प्राण के पीछे महाप्रज्ञा की शक्ति हो, उसके अपूर्ण रहने का कोई कारण नहीं है।

जप कार्य तो हर व्यक्ति स्वयं कर लेता है। गणना उँगलियों पर भी हो सकती है। पर यज्ञ के लिए कितने ही व्यक्तियों की, यज्ञशाला, प्रवचन पंडाल, समिधाशाकल्य प्रवीणता, अनुभव आदि की आवश्यकता चाहिए। इसके लिए लोक उत्साह की कमी को ध्यान में रखते हुए शान्ति-कुँज द्वारा विशाल व्यवस्था की गई है। इस पर दृष्टि रखते हुए सहज गर्णित बुद्धि से भी समझ में आ जाता है कि कार्य उतना कठिन नहीं है जितना कि दिखता है।

पाँच-पाँच याज्ञिकों की ऐसी टोलियां तैयार की गई हैं जो यज्ञ कृत्य विधिवत् करा सकें। साथ ही संगीत प्रवचन में प्रवीण होने के कारण दो दिन तक गायन-वादन का प्रवचन समारोह भी कर सकें। यह टोलियाँ जीप गाड़ियों में भेजी जायेंगी, ताकि साथ में चलने वाला भारी समान भी ले जा सकें और एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी भी सरलता पूर्वक पूरी कर सकें। यज्ञ से सम्बन्धित अनेकों वस्तुएँ होती हैं। उन सभी को इन जीप गाड़ियों में लाद कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाएगा। अर्थ व्यवस्था का सरल सीधा उपाय यह रखा गया है कि गायत्री उपासक एक आदमी के लायक आहार दे तथा पूर्णाहुति के समय जितना बन पड़े उसे अंशदान रूप में देव-दक्षिणा की तरह प्रदान करे। उसे आगे के कार्यक्रम में खर्च कर दिया जाया करे। कम मिले तो अगले आयोजन में कम खर्च किया जाय, अधिक मिल जाय तो अगले आकार प्रकार का यज्ञ हो जायेगा। अन्यथा छोटे आकार का उसे बनाकर काम चलाया जायेगा।

इस बार इस प्रयोजन के लिए जितनी जीप गाड़ियों की व्यवस्था हो सकी है उन सबमें आवश्यक सामान भी हरिद्वार से लादकर भेजा जा रहा है, ताकि उनका खर्च याजकों पर न पड़े। फोल्डिंग यज्ञशाला, फोल्डिंग स्टेज, हवन सामग्री, लाउडस्पीकर, यज्ञ पात्र जैसी वस्तु साथ रहने से इनके लिए प्रबन्धकों को दौड़-धूप न करनी पड़ेगी। भोजन पकाने-वाला अपना स्वयं सेवक होगा। उपासक लोग जो आटा आदि दे देंगे उसी से पका लिया करेंगे। यज्ञ दोनों दिन होगा। उसकी आरती पूर्णाहुति में जो कुछ चढ़ावा आयेगा उससे जीप तेल ड्राइवर आदि का खर्चा निकल जाया करेगा। इतने पर भी कुछ घाटा पड़ेगा तो उसे किसी प्रकार वहन किया जायेगा। प्रज्ञा पुरश्चरण का आकार विशाल है और उसका प्रतिफल महत्तम। उसे देखते हुए धर्मप्रेमी उसे पूरा करते रहेंगे ऐसी आशा है। पर यदि पूरा न हो सका तो योजना की पूर्ति किसी प्रकार पूरी की ही जाएगी। मिशन ने जब कभी जो कुछ संकल्प दैवी प्रेरणा की छत्रछाया में किये हैं, उसकी पूर्ति कभी अपूर्ण नहीं रही है।

प्रज्ञा परिजनों का आत्म-शक्ति के विकास पर आवश्यकता अनुभव होती हो और उसके आधार पर युग सन्धि की अनेकानेक कठिनाइयों के निराकरण की आशा हो तो मिशन द्वारा संकल्पित प्रज्ञा पुरश्चरण की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न करना ही चाहिए। यह प्रयत्न ऐसे हैं जिन्हें मात्र भाग-दौड़ से भी पूरा किया जा सकता है। इसके लिए कोई धन संग्रह की राशि एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं है। सच्चे मन से किया गया श्रम ही कई बार बड़ी पूँजी लगाने से अधिक कारगर सिद्ध होता है।

युग सन्धि के इस ऐतिहासिक पर्व पर करने के लिए अनेकों काम सामने पड़े हैं। उनका विशेष उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति से खड़े होने वाला जागृत आत्माओं को है। उन्हें अपने को बदलना चाहिए ताकि दूसरे उन्हें देखकर बदलें। उन्हें समय की आवश्यकता देखते हुए लोकहित की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने को खपाना चाहिए ताकि उनके पीछे अन्य अनेकों चलें। अपने स्थान में- अपने तत्वावधान में प्रज्ञा पुरश्चरण को गतिशील बनाने के लिए कुछ न कुछ प्रदान करने का सभी परिजनों से अनुरोध है। वह देखने में किसी को भले ही कठिन लगता हो वस्तुतः वह है अति सरल सामयिक और श्रेयस्कर ही।


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