प्राचीन काल के ब्रह्म परायणों की तीन पहचान थी। (1) उच्चस्तरीय ज्ञान (2) बढ़-चढ़ कर सेवा साधना करना (3) न्यूनतम में निर्वाह। सतयुग में रहने वाले देव मानव की पहचान इन्हीं तीन गुणों से होती थी। आज तो सब कुछ उल्टा हो गया है। तथाकथित सन्त सोने-चाँदी के छत्रों के आच्छादन ओढ़े हाथियों की सवारी पर हीरे-मोतियों के आभूषण पहनकर निकलते हैं। लोग कुछ भी कहें पर निर्धारित मूल्य तो जहाँ के तहाँ रहेंगे। प्राचीन काल में स्पर्धा इस बात की होती थी कि कौन कितना ज्ञानवान बना, कितना सेवा में निरत रहा और कितने कम में अपना निर्वाह चलाया।
गायत्री नगर में 24 अक्षरों के अनुरूप 240 ब्रह्म परिवार बसाने का अपना निश्चय है। भविष्य में इन्हें एक मण्डल सौंपकर मण्डाधीश बना दिया जायेगा। अभी लगभग 120 परिवार अपना बसेरा डाल चुके हैं। इसी वर्ष सूक्ष्मीकरण का संकल्प पूरा करते हुए इस नगर में 120 ब्रह्म परिवार बसाने का निश्चय है। ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी सम्मानास्पद तो रहेंगे पर वैसा कोई प्रतिबन्ध नहीं रखा गया है, क्योंकि जिन्हें आश्रम व्यवस्था चलानी है उन्हें धर्मपत्नी का सहयोग चाहिए। जैसा कि इन पंक्तियों के लेखक को मिला। इसलिए हम सदा विचारशील और आदर्शवादी युग्म बनाने के लिए कहते रहे हैं।
अपनी साधना पूर्णाहुति क्रम पूरी करते हुए हमने इतने झोंपड़े बना लिए हैं जिनमें 240 ब्राह्मण परिवार रह सकें। कुछ कमी पड़ रही है। उसके सम्बन्ध में विश्वास है कि परिजन थोड़ी और उदारता दिखा देंगे तो जो कमी है वह भी इस वर्ष पूरी हो जायेगी। बसने वालों में उन वानप्रस्थों को प्रधानता दी गई है जो बच्चों के उत्तरदायित्व से निवृत्त हो चुके। इतना तो करना ही होगा कि यहाँ आकर नया सन्तानोत्पादन बन्द कर दें। नये बच्चे जनने वाले लोक सेवी संस्था का खर्च बढ़ाते हैं। अपना और पत्नी का शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य गिराते हैं। इसलिए प्रवेश देने के साथ अब ब्रह्मचारी रहने की तो नहीं, पर नये बच्चे उत्पन्न न करने की प्रतिज्ञा तो लेनी ही होगी।
जो यहाँ रहेंगे, उनकी कार्य पद्धति इस प्रकार निर्धारित की गई है - (1) पाँच घण्टे मिशन के लिए सेवा कार्य, (2) तीन घण्टे निज की ज्ञानवृद्धि, अध्ययन अभ्यास। (3) दो घण्टे श्रमदान- आश्रम व्यवस्था का।
इस प्रकार दस घण्टे व्यस्तता के, चौदह घण्टे विश्राम, नित्यकर्म, भजन-पूजन आदि के। चौबीस घण्टे इस प्रकार जो भी व्यस्त रहेगा उन्हें शैतान के चंगुल में फँसने का अवसर ही न मिलेगा। खाली दिमाग- खाली समय शैतान के कबाड़खाने की दुकान है। सभी आश्रम वासी समय के शिकंजे में कसे रहेंगे तो शारीरिक और मानसिक खुराफातें करने का अवसर ही न मिलेगा, संयमी और सुव्यवस्थित, सन्त-सात्विक जीवन व्यतीत होने लगेगा। साधना का आधार तो सुव्यवस्थित दिनचर्या पर निर्भर रहता है।
व्यक्तिगत दान-दक्षिणा माँग कर निर्वाह करना निषेध है। क्योंकि आज की परिस्थितियों में ऐसे दान पर नियन्त्रण या परीक्षण का कोई कारगर प्रतिबन्ध नहीं है। गायत्री नगर में नौकरी तो किसी को नहीं मिलती पर यहाँ इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि औसत भारतवासी की तुलना में कोई भूखा-नंगा न रहे। समुन्नत जीवन जी सकने के लिए आवश्यक वस्तुओं से किसी को भी वंचित न रहना पड़े। इतनी ही हमारी परिधि और इतनी ही ईमानदारी की मर्यादा भी। जो अमीरों की तरह गुलछर्रे उड़ाना चाहते हैं, उन्हें देश की परिस्थितियाँ सम्भवतः दिखाई नहीं देतीं। भले ही उनने वह वैसा कानूनी व्यापार या निर्धारित वेतन के द्वारा ही क्यों न कमाया हो यदि हम भारत माता को माँ कहते हैं और उसके सभी बालक अपने सहोदर हैं तो यह हो ही नहीं सकता कि एक कोदों खाए और दूसरे मलाई उड़ाएं।
जिनके पास अपनी संचित संपदा है, वे उसे मात्र बेटों के लिए छोड़कर संस्था में गुजारा पाने का प्रयत्न करेंगे तो यह बेईमानी होगी। प्रत्येक आश्रमवासी का काम चलाऊ खर्च चल जाय, इसके लिए अन्यान्य आवश्यक सुविधाएं देकर उनका खर्च कम दिखाने का प्रयत्न किया गया है। जैसे कि निवास की सुविधा, बिजली आदि का प्रबंध, बच्चों की शिक्षा एवं फीस, एक सेट वस्त्र पढ़ने का एक सेट खेलने का सभी आश्रम की ओर से हैं। इसके लिए अतिरिक्त कुछ खर्च आश्रमवासी को नहीं देना पड़ता, घर में शाक वाटिका लगाने की इतनी जगह है कि प्रतिदिन तरकारी न सही- चटनी का आनंद तो हर दिन लिया जा सकता है। रोजमर्रा की बीमारियों के लिए चिकित्सालय सुविधा फ्री है। इन सब खर्चों की लागत जोड़ ली जाय तो अच्छी-खासी रकम बैठती है। फिर एक स्त्री, एक पुरुष, एक बच्चे वाले परिवार को 330 रु. नकद। परिवार बड़ा होने पर अधिक।
पुरुषों के जिम्मे तीन काम सेवा स्वाध्याय संबंधी हैं- (1) प्रेस, टाइप, साहित्य की ढूंढ़-खोज, अन्य भाषाओं को पढ़ना- यह स्वाध्याय वर्ग हुआ। (2) दूसरे- सत्संग वर्ग में सुगम संगीत, शास्त्रीय संगीत, संभाषण, भाषण, कथा-कीर्तन, दृश्य-श्रव्य माध्यमों से प्रचार कार्य, स्लाइड प्रोजेक्टर, वीडियो आदि के माध्यम से युग चेतना का संदेश। (3) तीसरा- आश्रम की स्थानीय व्यवस्था है जिसमें बागवानी, भोजनालय, सफाई, चौकीदारी, रात्रि का पहरा आदि आते हैं। इन कार्यों में से पांच घंटा आश्रम सेवा के निमित्त करना होता है।
दो घंटा स्वयं के पढ़ने के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न कक्षाओं के बालक बालिकाओं, महिलाओं, पुरुषों को भाषा ज्ञान कराना, संगीत तथा निर्धारित उद्योग का शिक्षण भी देना होता है। जिन्हें ऐसा कुछ नहीं आता, उन्हें प्रथम तो पढ़ाया जायेगा, फिर अध्यापकों की सेवा शृंखला में नियुक्त कर दिया जायेगा।
स्त्रियों में से अधिकांश के पास समय खाली रहता इसलिए उन सबको खाली समय में पढ़ाया जायेगा। समानता एवं सादगी की दृष्टि से सभी पीले वस्त्र पहनती हैं। जेवर पहनने की हर किसी को मनाही है। महिलाओं के लिए कुछ ऐसे गृह उद्योग भी रखे गये हैं जिन्हें वे फालतू समय करती हुई कुछ अतिरिक्त पैसा भी कमा सकती हैं।
गायत्री नगर की शिक्षा प्रणाली सरकारी पाठ्यक्रम से भिन्न इस दृष्टि से बनाई गई है कि बच्चों को न नौकरी करनी है, न करानी है। अब भी जो नौकरी के स्वप्न देखते हैं उन्हें पूरा शेखचिल्ली समझना चाहिए। हर साल जो सरकारी नौकरियां खाली होती हैं वे विशेष स्तर वालों की होती हैं। अच्छे नंबर लाने पर भी जो गरम नहीं कर सकते, वे हाथ मलते रह जाते हैं। हम वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन के पक्षपाती हैं। हम चाहते हैं कि मनुष्य के दैनिक जीवन में काम आने वाली समस्याओं के समाधान ही पढ़ाए जायं। साथ ही ऐसे उद्योग-धंधे भी सिखाए जायं जिनकी खपत हर गांव में हो। इस प्रकार नौकरी की मृगतृष्णा से बचा जा सकेगा एवं बर्बाद होने वाला समय तथा धन ऐसे काम में आ सकेगा जो दैनन्दिन जीवन के लिए उपयोगी हो। यहां पहली से लेकर दसवीं तक की शिक्षा पद्धति है। यह सरकारी शिक्षा से एकदम भिन्न है। सोलह अठारह की आयु तक यह पढ़ाई पूरी हो जानी चाहिए। इसके बाद विद्यार्थी आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी हो जाना चाहिए। उन्हें कहीं भी काम खड़ा करने या नौकरी पाने का अवसर मिल जाना चाहिए। इसलिए सबसे पहले गायत्री नगर में अपना औद्योगिक कक्ष बनने जा रहा है जिसमें सर्वप्रथम अपनों को ही जगह दी जा सके। ऐसे उच्चस्तरीय वातावरण में पढ़े हुए लड़की लड़के अपने ही आश्रम में रहें तथा एक-एक प्रज्ञापीठ संभाल ले तो सन् 2000 तक का उत्पादन उसमें पूरी तरह खप सकता है।
गायत्री नगर की इस विद्यालयीन योजना के पीछे ऐसी पीढ़ी उत्पन्न करने का उद्देश्य है जिसमें देवत्व झिलमिलाता दृष्टिगोचर होने लगे। धरती पर स्वर्ग का निर्धारण करने के लिए ऐसी ही शिक्षा पद्धति की आवश्यकता भी है जैसी कि गायत्री नगर के मध्य से सुनियोजित की गई है।