तीन महत्वपूर्ण मोर्चे, जिन पर हमें कार्य करना है।

July 1984

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राम रावण युद्ध प्रायः दो महीने चला था। इसके बाद उन रीछ वानरों का क्या हुआ, जो दल-बल समेत ऋष्यमूक क्षेत्र में समेट बटोर कर लाये गये थे। नल-नील ने एक पुल बनाने के बाद पेन्शन ले ली थी क्या? भरत लक्ष्मण चंवर ही ढुलाते रहते थे क्या? नहीं। वे सब सृजनात्मक कार्यों में व्यस्त हुए थे और सतयुग की वापसी की योजनाबद्ध सरंजाम जुटाते रहे थे। कृष्ण कालीन गोप गोवर्धन उठाने के उपरान्त छुट्टी पर नहीं चले गये थे। महाभारत भी प्रायः दो महीने में ही समाप्त हो गया था। उसके बाद उन सब लोगों ने क्या किया? इसका उत्तर भी यही है कि परीक्षित के तत्वावधान में सुव्यवस्थाओं की स्थापना के विशालकाय प्रयत्न हुए थे। यही रीछ-वानर करते रहे थे।

बुद्ध की परिव्राजक दीक्षा और संघारामों के निर्माण का जो वर्णन मिलता है, वह सब मिलाकर बीस-तीस वर्षों का है। इसके उपरांत वह लाखों की बौद्ध मण्डली विसर्जित तो नहीं हो गई थी। जेल से छूटने के उपरान्त भी सत्याग्रही सर्वोदय आदि के रचनात्मक कामों में लगे रहे हैं। इतिहासकारों की कुछ शैली ही ऐसी है कि विवाह की धूमधाम अगवानी भर का उल्लेख करते हैं। उसके उपरांत दोनों परिवारों में क्या हलचल रही, इसका वर्णन करने में उन्हें रुचि नहीं होती। इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि आरम्भिक मारधाड़ प्रधान घटनाक्रम ही सब कुछ होता है। महत्वपूर्ण तो वह रहता है। जो सृजन की दृष्टि से किया जाता और लम्बे समय तक चलता है।

बीज एक दिन में बो दिया जाता है। मुहूर्त उसी का निकालते हैं पर फसल आने तक जो लम्बी व्यवस्था बनानी पड़ती है, उसकी चर्चा तो लोग भूल ही जाते हैं। पर इससे क्या? वर्णन उल्लेख वाले अपनी बात आप जानें, तथ्य तो जहाँ के तहाँ रहेंगे। आपरेशन एक मिनट का होता है पर मरहम पट्टी तो घाव भरने के लिए महीनों करनी पड़ती है।

बात सूक्ष्मीकरण के संदर्भ में चल रही थी। उसका एक पक्ष ही हमारे जिम्मे है। गाड़ी जहाँ दल-दल में फँस गई है उसे निकाल देने ओर सड़क पर खड़ी कर देने जितनी ही क्षमता और अवधि अपने पास है। पर यह नहीं समझना चाहिए कि इसके बाद कुछ करने को शेष ही नहीं रहेगा। जो करना होगा, वह इतना ही बड़ा होगा जो पन्द्रह मिनट के आपरेशन के उपरान्त रोग को अच्छा करने के लिए महीनों करना पड़ता है। बहुमुखी सृजन उससे कठिन है जितना कि इस बिगाड़ को उत्पन्न करने में करना पड़ा है। लोगों ने व्यक्ति को भटकाने और समाज को गिराने वाले अनेकानेक खर्चीले और श्रमसाध्य प्रयत्न किये हैं और मुद्दतों में दुर्व्यसन पनपाने लोगों के स्वभाव के अंग बनाये हैं। अब उन्हें छुड़ाना ही नहीं उनके स्थान पर नई व्यवस्था बनानी और नई सभ्यता खड़ी भी करनी जो है?

हमारी दो प्रकार की कार्य पद्धति है। एक को ढाल, दूसरी को तलवार करना चाहिए। एक से बचाव करना है और दूसरों को खदेड़ना है। इन दिनों खदेड़ने वाला काम प्रत्यक्षतः बड़ा दीखता है क्योंकि उसने जीवन मरण जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है। विनाश अपनी चरम सीमा पर है। उसे अभी और कुछ समय खेल खेलने दिया जाय तो फिर लाखों वर्षों की संचित सभ्यता और प्रकृति का कहीं अता-पता भी न चलेगा। धरातल की दुर्गति श्मशान जैसी होगी और यहाँ कंकाल बिखरे तथा भूत नाचते दृष्टिगोचर होंगे। इस विनाश विभीषिका के उत्पादन केंद्रों पर समय रहते गोलाबारी करनी है ताकि महाप्रलय का अवसर प्राप्त करने से पूर्व ही वे अपने हाथ पैर तुड़ा बैठें और वह न कर सके जो करने की डींग हाँकते और आतंक मचाते हैं। यह एक काम हुआ। यह हमारे अपने जिम्मे है। सूक्ष्मीकरण के उपरान्त हमें विश्वास है कि दधीचि वाला इन्द्रवज्र बन सकेगा जो वृत्तासुर का अहम् चूर्ण कर सके। हमें विश्वास है कि जिस शान्ति और प्रगति की प्यास से धरातल जल रहा है उसे शीतलता प्रदान करने योग्य गंगावतरण हो सकेगा। इसमें किसी भगीरथ का तप काम आ सकेगा।

दूसरा पक्ष नर्सरी उगाने जैसा है। अगले दिनों इसी धरती को स्वर्गोपम बनाना है मानवी गरिमा की टूटी हुई कड़ियों को फिर से जोड़ना है। जो गंवा चुके उसे फिर से प्राप्त करना है। इसलिए अपनी इसी भूमि पर नन्दन वन कल्पवृक्ष उद्यान उगाने की आवश्यकता पड़ेगी। इसकी तैयारी भी साथ-साथ चालू रहनी चाहिए। गोला बारूद की फैक्टरी भी पूरी तत्परता से आवश्यक सामान उत्पादन करने में निरत रहे। किन्तु दूसरी ओर विशालकाय कृषि फार्म में ऐसी नर्सरी भी बोई उगाई जाती रहे, ताकि समय पर खोया हुआ ऊँट, घड़े में न ढूंढ़ना पड़े।

परशुराम परम्परा में ऐसा ही हुआ था। उनने एक बार आततायियों के सिर काटकर समस्त धरती को दुश्चिन्तकों से मुक्ति दिलाई थी। ब्रेन वाशिंग का विचार क्रान्ति का उद्देश्य पूरा किया था। इसके तुरन्त बाद उन्होंने फरसा गंगा सागर के समुद्र में फेंक दिया और नये सिरे से नया अस्त्र- नया फावड़ा उठाया। इस आधार पर वे फलदार उद्यान बोते लगाते चले गये और जो स्तब्धता आई थी उसे नव सृजन के नये उल्लास से भर दिया। उन्होंने सभी दिशाएँ हरियाली से भर दी। उनका दुहरा- परस्पर विरोधी अभियान देखकर लोग आश्चर्यचकित रह गये। युद्ध में शौर्य, पराक्रम और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। पर सृजन में तो इससे हजारों गुनी सूझ-बूझ तत्परता ओर साधन सामग्री चाहिए। इसलिए नाम भले ही सेनापतियों का मोटी पंक्तियों में छपता रहा हो, पर वस्तुतः श्रेयाधिकारी वे इंजीनियर ही बनते हैं जिनने निर्माण की विशालकाय योजनाएँ बनाई और प्राण-पण से संलग्न होकर पूरी कर दिखाईं।

अस्पताल में भी मेज पर छुरी कैंची भी सजाई जाती है पर ठीक उसकी बगल में टाँके लगाने की सुई, मरहम, गाज रुई आदि भी तैयार रखी जाती हैं। अन्यथा केवल फाड़-चीर न केवल अधूरी रहेगी वरन् बिना क्षति पूर्ति के नये किस्म के संकट भी उत्पन्न करेगी।

हमें दोनों ही प्रबंध करने पड़ रहे हैं। देवशक्तियों के साथ सम्बन्ध साध कर वह सरंजाम जुटाना पड़ रहा है जिससे कि आतंक की छाती पर ऐसा घूंसा जमाया जा सके कि उसे पीछे ही हटते बनें। इसके लिए हमसे बड़ों की- समर्थों की सहायता अपेक्षित हो रही है सो वह जुटाई जा रही है। जुट रही है और विश्वास है कि जितनी कम है, वह पूरी होकर रहेगी। अगले दिनों महाविनाश की घोषणा हर क्षेत्र से हो रही है। परिस्थितियों को देखने वाले एक ही बात कहते हैं कि महाविनाश अब आया- तब आया।

इतने पर भी हम अकेले का यह कथन अन्य सभी के प्रतिकूल है कि यह दुनिया न केवल जियेगी वरन् और भी अच्छी बनेगी। जिन्हें रुचि हो वे इस भविष्य वाणी को नोट कर लें। युद्ध जहां-तहां- क्षेत्रीय स्तर के ही होते रहेंगे। कोई ऐसी विपत्ति खड़ी न होगी जिससे समूचे संसार भर के मनुष्य समुदाय का भविष्य ही संकट में घिर जाय।

इसके अतिरिक्त दूसरा पक्ष है- सृजन का। उसके लिए ट्यूब वैल खोदना, जनरेटर बिठाना- नर्सरी उगाना है। बीज गोदाम जमा करना है। ट्रैक्टर खरीदने हैं और वह सरंजाम जुटाने हैं जो लहलहाती फसल उगाने में आवश्यक होते हैं। यह साधन क्या हो सकते हैं? कहाँ हो सकते हैं? इसका उत्तर एक ही है कि अन्त तक की हमारी संचित सम्पदा इस प्रयोजन की पूर्ति में अच्छी-खासी सहायता देगी। संचित सम्पदा से तात्पर्य है- संजोया हुआ गायत्री परिवार। इसमें से अधिकाँश छोटे, हलके दीखते हैं। उनकी योग्यता एवं समर्थता हलकी लगती है, तो भी यह विश्वास किया जाना चाहिए कि यह कलियाँ अगले ही दिनों खिलकर फूल बनेंगी। यह अंकुर हरे-भरे पौधे बनकर समूचे कृषि क्षेत्र को लह-लहायेंगे। यह अभी के छोटे बछड़े कल परसों हर चलायेंगे और रथ खींच दिखायेंगे। बच्चे सभी के अनगढ़ होते हैं। उन्हें शऊर कहाँ होता है। फिर भी वे देखने में कितने सुन्दर लगते हैं। उनकी अनगढ़ हरकतें भी सुहाती हैं। उनके अधरों पर भविष्य चमकता है। ऐसा ही कुछ प्रज्ञा परिवार के सम्बन्ध में कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। उसमें हनुमान, अंगद निश्चय ही उंगलियों पर गिनने जितने हैं, पर कुरेदकर देखा जाय तो जटायु और केवट-शबरी और गिलहरी भी भक्ति भावना में यह समूचा समुदाय भरा पड़ा है। छोटे होने पर भी वे कहते हैं कि हमसे आशा रखी जा सकती है।

हमारा ध्यान इन दिनों तीन ओर है। एक अपनी ओर जिसे इन्हीं दिनों अधिक दबोचा और अधिक ऊंचे स्तर का सूक्ष्मीकरण किया जाना है। इसके लिए जो कठिन प्रयास करने हैं, उनमें उत्तीर्ण होना है, अन्यथा चूकी गोली निशाना न बेध सकेगी और व्यर्थ ही उपहास होगा।

दूसरा ध्यान विश्व समस्याओं को समझना- विश्व को मूर्धन्य दिव्य सत्ताओं का सहकार एकत्रित करना और उन केन्द्रों पर गोलाबारी करना है जहाँ महाप्रलय के सरंजाम जमा हो रहे हैं। यह समूची प्रक्रिया सूक्ष्म जगत की है। हम अपना ध्वज लेकर कहीं तोप बन्दूक चलाने नहीं जा रहे हैं।

तीसरा प्रयास है उन प्रज्ञा परिजनों के प्रति जो प्राणवान हैं। उन्हें अपने हट जाने के कारण निराश न होने देना- बिखर जाने की स्थिति न आने देना और नर्सरी की पौधों को अपने क्रम से इतना बढ़ने देना कि उन्हें समय आने पर आरोपित किया जा सके और अभीष्ट उद्यान का सुरम्य दृश्य बिना समय गँवाये देखा जा सके।

उपरोक्त तीनों मोर्चों में से एक भी कम महत्व का नहीं है। इनमें से किसी एक के सहारे अभीष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। साथ ही यह भी निश्चित है कि किसी एक को भी कम महत्व का समझकर छोड़ा नहीं जा सकता। तीनों ही प्रयोजनों के लिए जो बन पड़ रहा है। उसे समग्र तत्परता के साथ सम्पन्न कर रहे हैं। ऐसी दशा में भेंट मिलन का पुराना लोकाचार न निभ पा रहा हो। दर्शन स्पर्श की गतिविधियों को रोक कर एकाकी रहा जा रहा हो तो अप्रिय लगने या अहंकारी स्वार्थी जैसा प्रतीत होने पर भी उसे क्षम्य समझने का अनुरोध करना पड़ रहा है। हमें अपने परिजनों की प्रज्ञा पर पूरा विश्वास है कि वे इस प्रयोजन की उच्चस्तरीय फलश्रुतियों को दृष्टिगत रख हमारी साधना प्रक्रिया में सहभागी ही बनेंगे।

एकाकी तप साधना व लेखनी के योगाभ्यास के इन क्षणों में हमें योगीराज अरविन्द के कुछ कथन सहसा स्मरण हो आते हैं जो उन्होंने परतन्त्र भारत की उन विषम परिस्थितियों में अपने एकान्तवास में व्यक्त किये थे। उन्हें शब्दशः यहाँ उद्धरित कर रहे हैं।

“इतना महान और विराट् भारत जिसे शक्तिशाली होना चाहिए था, युगान्तरकारी भूमिका निभाना चाहिए था, आज दुःखी है। क्या है दुःख इसका? निश्चय ही कोई भारी त्रुटि है। जीवन्त चीज का अभाव है। हमारे पास सब कुछ है, पर हम शक्तिहीन हैं, ऊर्जा रहित हैं। हमने शक्ति की उपासना छोड़ दी, शक्ति ने हमें छोड़ दिया। माँ न अब हमारे दिल में है, मस्तिष्क में है, भुजाओं में है।....... इस विशाल राष्ट्र के पुनर्गठन के कितने प्रयत्न किए गए, जाने कितने आन्दोलन हुए- धर्म, समाज, राजनीति सभी क्षेत्रों में, लेकिन सदैव दुर्भाग्य साथ रहा। हमारी शुरुआतें महान होती हैं। पर न तो उनसे नतीजे निकलते हैं, न कोई तात्कालिक फल ही हाथ लगता है। हमारे अन्दर ज्ञान की कमी नहीं। ज्ञान के उच्चतम व्यक्तित्व हमारे बाच से ही पैदा हुए हैं। लेकिन यह ज्ञान मुरदा है, एक विष है जो हमें धीरे-धीरे मार रहा है। शक्ति के अभाव में, आत्मबल के बिना यह ज्ञान अधूरा है। भक्ति भावना- उत्साह प्रशंसनीय है। लेकिन भक्ति रूपी लपट को भी शक्ति का ईंधन चाहिए। जब स्वरूप स्वभाव ज्ञान से प्रदाप्त, कर्म से अनुशासित और विराट् शक्ति से जुड़ता है तभी वह ईश्वरीय कृपा का अधिकारी बनता है।....... यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो पायेंगे कि हमें सबसे पहले शक्ति चाहिए- वह है आत्मबल, आत्मिकी की सर्वोच्च शक्ति। इसके बिना हम पंगु हैं, भारतवासी पंगु हैं, सारा विश्व पंगु है। भारत को उस शक्ति को पुनः पाना ही होगा, पुनर्जन्म लेना ही होगा क्योंकि सारे विश्व के उज्ज्वल भविष्य के लिये इसकी माँग है। मानवता के समस्त समूहों में यह केवल भारत के लिये निर्दिष्ट है कि वह सर्वोच्च नियति को प्राप्त करे जो सारी मानव जाति के भविष्य के लिये अत्यावश्यक है। उस शक्ति को उपासना के लिए सदैव महामानव अवतरित हुए हैं। उसी कड़ी में यदि मुझे एकाकी पुरुषार्थ हेतु नियोजित होना पड़े तो यह मेरा परम सौभाग्य होगा।”

वस्तुतः योगीराज अरविंद द्वारा सन् 1905 के आस-पास लिखे इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि उनके मन में भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति कितनी उत्कट उमंग थी। उसकी अन्तःप्रेरणा ने, परोक्ष जगत से आए निर्देशों ने उन्हें क्रान्तिकारी का पथ छोड़ तप साधना में निरत हो वातावरण को गरम करने हेतु विवश किया। यदि हमारी प्रस्तुत सूक्ष्मीकरण दिनचर्या को इसी साधना उपक्रम के समकक्ष समझा जाए तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। परिजन इसे उतनी ही गम्भीरता से लेंगे भी।


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