विराट से संबंध सूत्र जोड़ने का प्रयास पुरुषार्थ

July 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आत्मसत्ता जिस प्रकार चेतन शक्ति एवं पदार्थ सम्पदा के समन्वित रूप में बताई जाती रही है, समष्टिगत ब्रह्माण्डव्यापी सत्ता को भी जड़ प्रकृति एवं ब्राह्मी चेतना के समुच्चय के रूप में समझा जा सकता है। यह परोक्ष जगत वस्तुतः उस विराट् पुरुष की ही अनुकृति है जिसका दिग्दर्शन कभी राम ने कौशल्या एवं काकभुसुंडि को तथा कृष्ण ने यशोदा एवं अर्जुन को दिव्य चक्षु देते हुए कराया था। इस विशाल महासागर में अपरिमित पदार्थ एवं अनन्त चेतन सम्पदा समाई हुई है। सारा सृष्टि का व्यापार व्यष्टि और समष्टि की मिली भगत से ही चलता है। परमाणु के सूक्ष्मतम कणों एवं तरंग-क्वाण्टा समुच्चय से लेकर ब्रह्माण्ड के अनेकानेक सौर मण्डलों से बने प्रकृति जगत के विशाल कलेवर को सृष्टा का स्थूल शरीर कहा जा सकता है। यह भौतिकी की परिधि में आता है। विधाता का एक सूक्ष्म शरीर भी है जिसमें वे कार्य कारण, क्रिया-प्रतिक्रियाएँ घटते रहते हैं जिन्हें प्रत्यक्ष क्रिया-कलापों के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है। सृष्टि में समय-समय पर घटने वाले घटना प्रवाह, आकस्मिक न समझ में आने वाले परिवर्तन भूतकाल के क्रिया-कृत्य एवं आगत का स्वरूप इस सूक्ष्म शरीर में ही विद्यमान होता है। इसे सूक्ष्मदर्शी दृष्टा ही देख या समझ सकते हैं। प्रकृति का यह चेतन अविज्ञात पक्ष ऐसा है। जिसे मनुष्य अभी अपनी आत्मसत्ता की ही भाँति जान नहीं पाया है।

इस परोक्ष जगत में ही सूक्ष्मीकृत दिव्यात्माएँ प्रेत-पितर विषाणु इत्यादि निवास करते हैं। यह स्वयं में एक अनोखी दुनिया है। काया रूपी चोला त्यागने के बाद नया जन्म प्राप्त होने की स्थिति तक मनुष्य को इसी दुनिया में सूक्ष्म रूप में परिभ्रमण करना पड़ता है। लोक-लोकान्तरों, स्वर्ग-नरक आदि की चर्चा मरणोपराँत अनुभूतियाँ व पुनर्जन्म की घटनाएँ जो सुनने में आती हैं, वह इसी अदृश्य जगत का लीला सन्दोह है। इसे कौन देख पाता है, इस सम्बन्ध में महाभारत के अश्वमेध पर्व में एक उल्लेख आता है।

यथान्धकारे खद्योतं लीयमानं इतस्ततः। चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञान चक्षुषः॥

पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषाः। च्यवन्ते जायमानं च योनि चानु प्रवेशितम्।

अर्थात् “जिस प्रकार आँख वाले व्यक्ति अन्धेरी रात में जुगनू को यत्रतत्र उड़ते-फिरते देखते हैं, उसी प्रकार दिव्य दृष्टि सम्पन्न सिद्ध पुरुष अपने दिव्य चक्षुओं द्वारा जीवों का शरीर त्यागना, उनका पुनः शरीर धारण करना तथा दूसरी योनि में प्रवेश करना यह सब भली-भाँति देख व जान सकते हैं।”

आत्मिकी की परिभाषा के अनुसार “दर्शन” शब्द का अर्थ स्थूल आंखों से देखना नहीं प्रत्युत सूक्ष्म नेत्रों से परोक्ष जगत का- घटने वाले, घटने जा रहे एवं भूत-कालीन घटनाक्रमों का अवलोकन अनुशीलन करना है। सम्भवतः यही कारण था कि काया रूपी प्रयोगशाला में अनुसन्धान करने वाले वैदिक ऋषिगण योग साधनाओं तप-तितीक्षा के सहारे परोक्ष जगत की सभी जानकारी रखते थे। अनुमान नहीं, अपितु दिव्य चक्षुओं द्वारा प्रत्यक्ष जानकारी रखते हुए वे बिना सृष्टि व्यवस्था में व्यतिक्रम डाले स्वयं भी उससे लाभान्वित होते थे एवं जन समुदाय को भी उसके चमत्कारी फलितार्थों से अवगत कराते थे। सूक्ष्मीकरण की साधना वस्तुतः इस परोक्ष जगत के दिग्दर्शन, उसमें परिभ्रमण एवं उसके माध्यम से विराट् समुदाय को लाभ पहुँचाने की ही उच्चस्तरीय प्रक्रिया है।

उपनिषद्कार का कथन है-

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये॥

अर्थात् “उस स्वर्णमय मण्डल के पात्र से सत्य का मुख ढका है, हे जगत के पोषक! आप उसे दूर कीजिए जिससे कि सत्य-निष्ठ मैं आपका दर्शन कर सकूँ। क्योंकि -

“योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि”

-जो (विराट्) पुरुष तुम में है, वह मैं हूँ”

वेदान्त की यही मान्यता प्रत्यक्ष एवं परोक्ष के बीच घनिष्ठ एकात्मता स्थापित करती है। ऋषिगण इस तथ्य से अवगत थे कि जो स्थूल है, दृश्यमान है, वही सत्य नहीं है। अतः वे भावना से भर कर बस यही कहते हैं कि “हे विराट् पुरुष! मैं आजीवन वस्तुओं के बाह्य पहलुओं के सौंदर्य को देखता आया हूँ, अब साधना पुरुषार्थ द्वारा वस्तुओं की गहराई में अवस्थित उस चिरस्थायी अक्षर सौंदर्य का दर्शन करना चाहता हूँ जो आप की ही कृति है।” सत्य की खोज, विराट् का अनुसंधान, परोक्ष की शोध एवं अन्ततः उस सूक्ष्म दृष्टि की प्राप्ति उनका सदैव चरम लक्ष्य रहा है।

परोक्ष जगत की सूक्ष्मीकरण के संदर्भ में जब चर्चा चली तो उसकी संरचना के बारे में ऊहापोह भी अपरिहार्य है। इन्द्रियाँ जैसा कि सभी जानते हैं, तन्त्रिका आवेग द्वारा परिचालित है। मानवी नेत्र अति सूक्ष्म तरंगों को देख पाने में कहाँ समर्थ है? मात्र गणितीय आधार पर उनका अनुमान भर लगाया जाता है। भौतिकी में प्रकाश की गति तीव्रतम मानी जाती रही है लेकिन उससे भी तेज गति के कण-प्रतिकणों की परिकल्पना की जाने लगी है। सापेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद भी भौतिकी में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुए हैं। “रिलेटीविटी रिविजिटेड” पुस्तक में विद्वान लेखक ने लिखा है कि मन या विचार की तरंगें इन सबसे तीव्रतर हैं। ये इन्द्रियातीत हैं। अतः इन्हें देखा जाना अथवा उनकी गति की नाप-तौल कर पाना मानवी बुद्धि द्वारा शक्य नहीं। स्नायु विज्ञानी कहते हैं कि स्पर्शेन्द्रियों द्वारा मस्तिष्क को प्रेषित आवेग छुए गए स्थान से दूर अवस्थित मस्तिष्क तक पहुँचने में मात्र 0.01 सेकेंड का समय लेता है। किन्तु यह गति तो एक जेट विमान से भी धीमी है। विचारणा की तरंगों में जो “मोटिव फोर्स” होता है। वह सूक्ष्मतर है, अति बलशाली है। भावना का बल एवं संवेग सबसे तीव्र है। इसे यो समझा जा सकता है कि ज्यों-ज्यों जीवात्मा का सूक्ष्मीकरण होता जाता है- उसकी चाल इन्द्रियों से, प्रकाश से तथा मन से भी तीव्रतर होती चली जाती है। ऐसी शुद्ध चित् रूपी आत्मा के लिये आद्यशंकराचार्य कह गए हैं- ‘‘तस्मिन मनसि ब्रह्मलोकादीन द्रुतं गच्छति सति, प्रथम प्राप्त इव आत्म चैतन्याभासो ग्रह्यते अतो मनसो जवीय इत्याह।”

अर्थात् “मन जब ब्रह्मलोक जैसे दूर अवस्थित लोकों की ओर तेजी से चलता है तो वह शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा को वहाँ पहले से ही उपस्थित पाता है, इसीलिये कहा गया है कि सूक्ष्मीकृत आत्मा मन से भी तीव्रतम है।”

सर जेम्स जीन्स ने इन्हीं आप्त वचनों को इस रूप में कहा है कि “जीवात्मा तरंग समुच्चय से भरे ब्रह्माण्ड समुद्र में निवास करती है और उसी में परमसत्ता का भी अस्तित्व होता है। दोनों के मध्य अति सूक्ष्म रूप में पारस्परिक आदान-प्रदान क्रम चलता रहता है।” वस्तुतः ब्रह्माण्डीय ऊर्जा अथवा ब्राह्मी चेतना जिसमें प्रकृति की सब शक्तियाँ समाहित हैं, आत्मा का ही अपने भीतर एक अति सूक्ष्म विलास मात्र है। इसे अपने ही ऊपर प्रयुक्त कर उसे विराट् बना पाना योगी स्तर के महामानवों के लिये कदापि असम्भव नहीं।

मनस की इस सामर्थ्य के विषय में उपनिषदों के चिन्तन में स्वर मिलाते हुए अनेकों दार्शनिकों-वैज्ञानिकों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं। सर जूलियन हक्सले कहते हैं कि “अपने पास एक मन होने के कारण ही मनुष्य इस जगत के भावी विकास के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है। यह स्थिति अन्यान्य जीवों के साथ नहीं है। समष्टि में समाये इस व्यष्टि मन को सर्वव्यापी बनाकर ही वह अपने दायित्व को सही ढंग से निभा सकता है।”

जीवाश्म शास्त्री पियरे टेलहार्द-द-शारडिन कहते हैं कि कभी विज्ञान ने संसार को बहिरंग के अतिरिक्त अन्य किसी दृष्टि से देखने का प्रयास नहीं किया। प्रत्येक पदार्थ के कण-कण में “बाह्य” के साथ-साथ एक अन्तस् भी है। वेदान्त का ब्रह्म इसका समुचित उत्तर देता है। जिसमें प्रत्यक्ष के भीतर परोक्ष को जानने-समझाने का प्रयास किया गया है।”

पदार्थ विज्ञानियों की दृष्टि में परोक्ष की संरचना को समझने के उपरान्त उसके क्रिया कलापों के बारे में भी कुछ जान लेना अभीष्ट होगा। पूर्वार्त्त-दर्शन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में सात लोक हैं। नीचे से ऊपर क्रमानुसार स्थूल- भौतिक जगत, शक्ति प्रधान- काम जगत, मनस् जगत, बुद्धि, निर्वाण, अनुतदक एवं आदि जगत। इनका आप्त वचनों में उल्लेख मिलता है। प्रत्येक के सात उपलोक एवं इन उपलोकों के अपने सात-सात पुनर्विभाजन बताये गए हैं। आदि तथा अनुतदक लोग मात्र अतिमानवी शक्तियों की पहुँच में आते हैं, जबकि अन्य पाँच लोक अन्तरिक्ष का ही एक अंग होने के कारण मानवी पहुँच में है। दृष्ट ऋषियों द्वारा रचित साहित्य के अनुसार प्रत्येक लोक में विशेष प्रकार के प्राणी निवास करते हैं एवं उनकी शारीरिक संरचना अलग-अलग होती है। इन लोकों में दिवंगत आत्माएँ, सूक्ष्म रूप में अपना समय बिताती हैं एवं जहाँ तक सम्भव हो, प्रत्यक्ष जगत के जीवधारियों की सहायता करती एवं वातावरण का परिशोधन करती हैं।

पूर्वार्त्त-दर्शन के अनुसार जीवित या दिवंगत आत्माओं में से किसी को भी यह अनुभव नहीं होता कि पारस्परिक संपर्क कैसे साधा जाय? ऐसे प्रयत्न असफल होने पर कई प्रेतात्मायें सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही अनगढ़ क्रिया-कलापों में सतत् संलग्न रहती हैं। इनसे भयभीत न होकर इनसे संपर्क साधने हेतु तत्परता दिखाना, अधिक श्रेयस्कर है। मरणोत्तर जीवन सम्बन्धी भारतीय धर्म के कर्मकाण्ड इसी उद्देश्य हेतु कराये जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी सर्वथा सत्य है कि अध्यात्म विज्ञान इतना सामर्थ्यशाली है कि आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति दोनों लोकों के बीच सद्भाव एवं सहयोग का द्वार खोल सकते हैं, जीवित रहते हुए भी सूक्ष्म लोक में परिभ्रमण कर सहयोगी श्रेष्ठ आत्माओं से वे कार्य करा सकते हैं जो सर्व हितार्थाय अभीष्ट हैं। गुह्य विद्या के विशारदों का मत है कि हर व्यक्ति इतना सामर्थ्य सम्पन्न है कि वह सूक्ष्म जगत से आदान-प्रदान का क्रम आरम्भ कर सके। उनके अनुसार हर व्यक्ति में पाँच नहीं वरन् सात ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, परंतु दो अतिरिक्त इंद्रियां असामान्य योग पुरुषार्थ द्वारा ही विकसित हो पाती हैं।

विराट् ब्रह्म के साथ संपर्क जुड़ने पर सामान्य स्तर के मनुष्य भी असामान्य स्थिति में पहुँचते पाए जाते हैं। महापुरुषों का व्यावहारिक जीवन पवित्रता, प्रखरता, औदार्य के बल पर असाधारण होता है। लेकिन इनसे ऊँचे स्तर के ऋषि कल्प योगी अपनी अन्तःचेतना को परिष्कृत कर इस स्तर तक पहुँचा देते हैं कि परब्रह्म की शक्ति उनमें अवतरित हो सके एवं उसके प्रतिनिधि के रूप में सूक्ष्मीकृत भूमिका वे निभाते रह सकें। यह मानवी काया में रहते हुए ही सम्भव हो सकता है, शरीर छोड़ना इसके लिए अनिवार्य नहीं। इसी कारण मनस्वी, ब्रह्म तेज सम्मत तपस्वी भूसुर कहलाते हैं। उनकी यह उपलब्धि आत्मिकी के विज्ञान सम्मन विधान के आधार पर ही सम्भव हो पाती है। परोक्ष से संपर्क बिठाकर रहस्य रोमाँच का खेल रचाने वालों की नहीं, अपितु अपनी तप शक्ति से सूक्ष्म एवं सूक्ष्म से विराट् बनने वालों की आज जितनी आवश्यकता है, उतनी पहले कभी नहीं रही। अपनी साधना का प्रयोजन भी यही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118