अरब लोगों का एक काफिला (kahani)

July 1984

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एक बार अरब लोगों का एक काफिला रेगिस्तान से होकर गुजर रहा था। दिन में आग बरसती तो वे सुस्ताते और रात को थोड़ी ठण्डक होने पर चल पड़ते।

एक रात वे देवताओं के इलाके से होकर गुजर रहे थे। सुनसान अंधेरी रात में देवताओं की गरजन भरी आवाज सुनाई पड़ी। वे डरे तो बहुत पर देवताओं की बात सुनने और दिये हुए आदेशों को पालने में ही खैर मानने लगे।

पहली आवाज आई- ‘रुको’। वे सब रुक गये। दूसरी आवाज थी- ‘झुको’। वे झुक गये। तीसरा आदेश मिला- जमीन पर बिखरे कंकड़ बीनो और थैले भरकर चल पड़ो। उनने वैसा ही किया। अन्तिम निर्देश था- सवेरा होने तक कहीं ठहरना मत। बस जब सूरज निकलेगा तो तुम सुखी भी बहुत होगे पर दुःख भी कम न होगा।

आरम्भ में राहगीर डर के मारे काँप रहे थे। देवताओं के आदेश मानने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। किसी प्रकार रात पूरी की।

सवेरा होते देखा उनकी जेबों में कीमती हीरे मोती भरे थे। सो वे सचमुच बहुत सुखी हुए। पर जब यह ख्याल आया कि वस्तुस्थिति का उस समय पता क्यों न लगा- इस बात पर दुःख भी कम नहीं हुआ। उस क्षेत्र में हीरे की खदान थी, यह पता चलता तो ऊँटों का असबाब उड़ेलकर वे हीरों से बोरे भर सकते थे।

जिन्दगी का कारवाँ देवताओं के इलाके से गुजरता है पर हम स्तब्ध, भयभीत कुछ सुखी और बहुत दुःखी होकर मंजिल पार करते हैं।


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