गायत्री नगर की सर्वतोमुखी शिक्षा प्रणाली

July 1984

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लोग बढ़-चढ़कर अपना नाम चाहते हैं, पर उनका कुछ मूल्य भी चुकाना पड़ेगा, क्या यह वे सर्वथा भूल जाते हैं? समय के बदले स्वास्थ्य, श्रम के बदले धन, सौहार्द के बिना मैत्री की कीमत चुकाये बिना काम नहीं चलता। इतना भर समझ लेने पर भटकना छोड़कर सही मार्ग पर चलने का निश्चय किया जा सकता है और बिना कठिनाई के अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। हर पिता चाहता है कि उसकी संतान उसकी अपेक्षा सुयोग्य और सुसम्पन्न बने। इतने पर भी वह भूल जाता है कि इसके लिए क्या करना चाहिए। अधिक पैसा खर्च करने से अधिक लाभ उठाये जा सकते हैं, यह बात आंशिक रूप में ही सच है।

लव-कुश का पालन बाल्मीकि के यहां, चक्रवर्ती भरत का कण्व ऋषि के आश्रम में, कृष्ण का प्रशिक्षण संदीपन ऋषि के आश्रम में तथा राम-लक्ष्मण का बला-अतिबला का शिक्षण ऋषिवर विश्वामित्र के पास हुआ था। गुरुकुलों की प्राचीन पद्धति यही थी जिसमें लौह-खण्ड को स्वर्ण बनाने का अवसर मिलता था। ऐसा ही यह गुरुकुल गायत्री नगर को बनाने का अपना मन था पर समय बड़ी जल्दी समापन की ओर आ गया। इसी कारण यह कार्य अपने अनुचर-अनुयायियों के हाथों छोड़ना पड़ रहा है। भले ही अगले 16 वर्षों तक अध्यापन मार्गदर्शन प्रत्यक्ष स्तर का हमारा योगदान न रहे।

आगन्तुकों के लिए आह्वान इन पंक्तियों में भेजा जा रहा है। पिछले पृष्ठों पर लिखी संबंधित शर्तें जिन्हें अनुकूल लगती हों उन्हें छोटे-मोटे व्यवधानों से मुक्त हो, व्यवस्था को जिस-तिस प्रकार समेट कर आने की तैयारी करना चाहिए। आज लोग जिस प्रकार समस्याओं का हल चाहते हैं वह बड़ा बेढव होता है। ‘‘नौ मन तेल जुटने पर राधा का नाच ठनने की प्रतीक्षा’’ कहावत रचने वाले के जमाने में भी हंसी का विषय रही और आगे भी वह उपहासास्पद मानी जाती रहेगी। परिस्थितियां हमारी इच्छानुकूल बनती चली जायं, यह आशा नहीं करनी चाहिए। जैसा भी अवसर सामने है उसी को तोड़-मरोड़कर व्यवस्था बना लेनी चाहिए। ऐसा सोचने वाले कुछ ऐसा मार्ग ढूंढ़ सकते हैं कि एक वर्ष पर्यटन भ्रमण में न सही सेवा-साधना हेतु पांच वर्ष के लिए संलग्न हो सकें। नये युग के अनुरूप नये शिक्षण का, नये निर्माण का एवं अपने तथा दूसरों के जीवन क्रम को ढालने वाले देखने में छोटे किन्तु परिणाम में महान कार्य संपन्न कर सकें ऐसी जीवन-पद्धति के विकास हेतु खपने वाले लोक-सेवी कहीं होंगे तो अवश्य मिलेंगे।

अपना भविष्य जिन्हें किसी भी प्रकार मालदार बनने का- आंखों में छाया रहता है ताकि बच्चे रिश्वत की कमाई खाकर अमीर-धनवान बनें, उन बड़े आदमियों के बड़प्पन के लिए हमें कुछ नहीं, बस एक ही बात कहनी है कि आने वाले समय की लहर ऐसी परिस्थितियों को जीवित नहीं रहने देगी। लोगों को पैसे की दृष्टि से अमीर बनाने वाले सभी साधन देखते-देखते चले जायेंगे। जाते समय लानत और सिर पर थोप जायेंगे। अच्छा हो, बच्चों के वास्तविक शुभ-चिंतक उनके भविष्य एवं निर्वाह के लिए कोई व्यावहारिक योजना बना लें, जिसके आधार पर स्वयं को यशस्वी एवं बच्चों को सम्मानास्पद बनने का अवसर मिले।

कहना न होगा कि इस संबंध में एकमात्र प्रणाली गुरुकुल की ही हो सकती है। जिनमें ज्ञान, व्यवहार और उपार्जन तीनों ही संतुलित ढंग से पढ़ाये जाते थे। ऋषियों के युग में गुरु पिता का और गुरु-माता जन्मदात्री का भी उत्तरदायित्व संभालती थी। इसलिए सारे गुरुकुल सफलतापूर्वक चलते थे। अब चाहे गुरुकुल हों चाहें स्कूल मास्टर लोग पैंतालीस मिनट का लेक्चर झाड़कर चल देते हैं। माँ-बाप को बच्चों को मार्गदर्शन देने का समय है नहीं। ऐसे में शिक्षा का स्तर ऊँचा उठे तो कैसे?

गायत्री गुरुकुल में बच्चे उन्हीं के लिये जायेंगे जिनके अभिभावक भी साथ रहते हों। नवयुग के बालक कैसे बनेंगे, यह प्रशिक्षण बालक, माता-पिता तीनों को एक साथ रहकर लेना होगा। उसी का यहाँ प्रबन्ध भी किया गया है। किसी के अकेले बालक भर्ती न करने का नियम इसलिए है कि जो कार्य तीनों को मिलकर करना है, उसे बालक अकेला हल न कर सकेगा। बच्चों को जितना पढ़ाया जायेगा, उससे अधिक माँ-बाप को पढ़ाना होगा ताकि अपने साथ अधिक समय बिताने वाले बालकों को वे सतत् संस्कार देते रह सकें।

स्मरण रहे, नौकरी का आर्थिक परावलम्बन जीवन के हर क्षेत्र में परावलम्बन की शिक्षा देता है। इससे मौलिक प्रतिभा का विनाश हो जाता है। यह जीवन के साथ विश्वासघात है। मनुष्य श्रमिक तो बने पर नौकर नहीं। श्रमिक एवं नौकर में क्या अन्तर होता है, इसे गायत्री नगर के विद्यालय में कुछ ही दिन रहकर देखा और सीखा जा सकता है।

गाँधीजी ने बुनियादी तालीम पर बहुत जोर दिया था। वे चाहते थे कि बच्चे छोटी आयु से ही उपार्जन की कला सीखें और माँ-बाप पर भार बने बिना अपना शिक्षण और निर्वाह जारी रख सकें। ऐसी पद्धति से ही दारिद्रय और निरक्षरता के चंगुल में फँसे इस देश को पतन-पराभव के दलदल से ऊपर निकाल सकना सम्भव हो सकेगा। इस आदर्श को व्यवहार रूप में परिवर्तित कर सकना, जहाँ तक सम्भव हो सकता था, यहाँ किया गया है।

(1) बच्चे में स्वावलम्बन (2) अभिभावकों का मिनी प्रशिक्षण (3) परिवार का निर्वाह। यह तीनों ही उद्देश्य प्रस्तुत शिक्षा-प्रणाली में पूरे होते हैं और भौतिक जीवन में ही हँसते-हँसते जीने रहने का लाभ मिलता है। इससे भी बड़ा लाभ चेतना-पक्ष की आध्यात्मिक प्रगति से जुड़ा है। (1) गुण-कर्म-स्वभाव का परिष्कार (2) चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश (3) ऐसे वातावरण में रहने का अवसर जिसकी तुलना चन्दन के बगीचे में उगने वाले पौधों से की जा सके।

अब तक शिक्षा के सुधार ओर समर्थन के सम्बन्ध में कितने ही कार्य सोचे और प्रसंग खोजे गये हैं, पर ऐसा एक ही नहीं मिला जिससे अभिभावकों का- परिवार का निर्वाह, विकास भी साथ-साथ चलता रहे और बच्चे स्वावलम्बी शिक्षा प्राप्त कर सकें। परिस्थितियों के अनुरूप मार्ग तो खोज लिया गाय किन्तु लोगों में कमी यही दीख सकती है कि गुरुजी शरीर रूप में अध्यापन कार्य का संरक्षण- मार्गदर्शन नहीं कर रहे। यह सूक्ष्म दृष्टि वालों को तो नहीं लगेगा, किन्तु मोटी नजर रखने वालों को तो यही आभास होगा। शरीर रहित रूप में भी देवशक्तियाँ इस संसार में बड़े-बड़े कार्य कर रही हैं। हम भी गायत्रीनगर की व्यवस्था और शिक्षण-पद्धति को अपने परोक्ष हाथों से चलाते दीख पड़ें तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। स्वावलम्बी शिक्षण-पद्धति की यह एक अच्छी शुरुआत है- एक नमूना है।

सामान्यतः प्रचलित कुरीतियों, दुर्व्यसनों एवं खर्चीले अनुकरण में ही पैसा खर्च होता है। इससे अधिक कमाने वाले भी गरीबों की तरह रहते हैं। जबकि कम उपार्जन करने वाले, सुविकसित जीवन-पद्धति अपनाने वाले उनकी अपेक्षा कही अच्छा जीवन जी लेते हैं। नौकरी पहले तो मिलती ही नहीं। मिलती भी है तो अपेक्षा से निचले स्तर की एवं निरन्तर तब्दीली उसमें होती रहती है। फलतः न ही स्थिर शिक्षा हो पाती है, न किसी के साथ मित्रता सफल हो पाती है। विदेशों की बात अलग है। भारत का अर्थतन्त्र और समाजतन्त्र ऐसा है, जिसमें सामूहिक साहचर्य और प्रसन्नता बनाये रखी जा सकती है।

शिक्षा तन्त्र का यह ढाँचा खड़ा किया गया है। यह एक स्थानीय संस्था में चलने वाला प्रयोग परीक्षण भर नहीं है। वरन् आशा यह की गयी है कि साधनों के अभाव में अभी इसे छोटे रूप में प्रयोगात्मक आधार दिया जाय तो आगे यह निश्चित सफल हो विस्तृत रूप लेगा। इसकी सफलता का अर्थ है- शिक्षा संवर्धन की महती आवश्यकता की पूर्ति।


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