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January 1982

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इन दिनों लौकिक प्रचलन और तथाकथित अध्यात्म के आडम्बर दोनों ही दो और से–अन्तःकरण की उत्कृष्टता को गिराने वाले आक्रमण करते हैं। लौकिक प्रचलनों में स्वार्थपरता की निष्ठुरता और अपहरण की निर्दयता की चातुर्य माना गया है और इसी को अपना कर लोग अपना उल्टा सीधा करने में निरत हैं। पीछे कितना ही पश्चात्ताप करना पड़े और दण्ड भुगतना पड़े पर आक्रमण के पहले दौर में नफा मिलने की बात तो किसी रूप में बन ही जाती है।

यह आक्रमण का एक पथ हुआ। दूसरा वह है जिसमें देवता को प्रसन्न करने ओर मन्त्र−तन्त्र के सहारे ऋद्धि−सिद्धियाँ प्राप्त करने के स्वप्न संजोये जाते हैं और आत्म निर्माण की बात को एक प्रकार से पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाता है। पूजा उपचार की फल श्रुतियों से पाप दण्ड से निवृत्ति और बिना तप त्याग के ऐसे ही स्वर्ग मुक्ति झटक लेने के जो सब्ज बाग दिखाये गये हैं उससे नीतिमत्ता का पक्ष बेतरह कमजोर हुआ है। जब नदी सरोवरों के स्नान भर से पाप दण्डों से बचाव हो सकता है तो फिर कोई भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट कर्त्तृत्व के द्वारा मिलने वाले लाभों के क्यों छोड़े?

जब आत्मिकी के प्रतिपादित सत्परिणाम मात्र सस्ती टंट−घंटों से ही उपलब्ध हो सकते हैं तो फिर कोई आत्म−सुधार और आत्म−निर्माण की कष्ट साध्य प्रक्रिया से होकर क्यों गुजरें?


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