VigyapanSuchana

January 1982

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“सामान्यता लोक व्यवहार में काम आने वाली क्षमताओं का ही स्वरूप एवं महत्व समझा जाता है। मनुष्य इतना ही नहीं है। उसकी अपनी निजी दुनिया–निजी सम्पदा–निजी गरिमा भी है। ‘व्यक्तित्व’ इसी को कहते हैं। वह लोक व्यवहार में काम न आने पर भी इतना वजन दार हो सकता है कि अपनी प्राण ऊर्जा भर के वातावरण का परिशोधन और अनेकों को अनुदान दे सकने में समर्थ हो सके। ऋषि कल्प आत्माएँ इसी स्तर की होती हैं। उनकी यह वरिष्ठता किसी के द्वारा उपहार में मिली हुई नहीं वरन् स्व उपार्जित ही होती हैं। इस उपार्जन का एक ही आधार है–आत्म परिष्कार। आत्म परिष्कार का तात्पर्य कुसंस्कारों का निराकरण, प्रसुप्त महानता का जागरण एवं अभ्युत्थान ही समझा जाना चाहिए। इस प्रक्रिया का एक समग्र शास्त्र है–अध्यात्म विज्ञान उसी को कहते हैं।”


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