योगाभ्यास−एकत्व अद्वैत का

January 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने का तात्पर्य है−क्षुद्रता को महानता के साथ, कामना को भावना के साथ, स्वार्थ को परमार्थ के साथ बाँध देना−बदल देना और तद्नुसार बना देना। समर्पण इसी उच्चस्तरीय भूमिका का नाम है। दिलय−विसर्जन, समन्वय समापन शरणागति उसी के दूसरे पर्याय हैं। इस आरम्भ की पूर्णाहुति जीव और ब्रह्म के साथ पूर्ण एकता स्थापित होने से होती है। इसी स्थिति को अद्वैत कहते हैं।

चेतना के विराट् समुद्र में जीव बिन्दु का विसर्जित होना ‘सायुज्य’ है। यही परम पद की प्राप्ति है। व्यष्टि जीव सत्ता का समष्टि ब्राह्मी सत्ता में विसर्जित होना ही प्रभु समर्पित जीवन है। ईंधन आग की, नदी नाले की, दूध जल की, दीप पतंग की उपमा इसी स्थिति के लिए दी जाती हैं। व्यक्ति अपने स्वार्थ की परिधि से निकल जाता हैं−मन−मस्तिष्क में एकमात्र परमार्थ छाया रहता हैं। अहंता शरीर, परिवार तक सीमित न रहकर सोऽहम् शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् , तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि की स्थिति में पहुँच जाती हैं। ‘अपनी सत्ता सब में’ और ‘सब अपने में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु की अनुभूति इसी स्तर पर पहुँचने में होती हैं। योग की सिद्धावस्था यही है, परमपद−जीवन मुक्ति इसी का नाम है। व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ−आकाँक्षाएँ समाप्त हो जाँय, मात्र ईश्वरेच्छा ही रोम−रोम में समायी रहे यही है जीव ब्रह्म की एकता का लक्षण। दोनों के बीच शिकायत, उलाहना की, खींचतान की न कोई गुँजाइश है न कोई वास्तविक कारण। दोनों की एक भावना, एक कामना, एक योजना और एक दिशाधारा हो। यही है योग का परम लक्ष्य।

संक्षेप में चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने का नाम ही योग है। यह आस्थाओं एवं आकाँक्षाओं को परिष्कार है। अपनी भौतिक महत्वाकाँक्षाओं को, लालसा और लिप्साओं को पैरों तले रौंदकर ईश्वरीय संकेतों और उच्चस्तरीय आदर्शों का अनुसरण करने का जो साहस जुटाते हैं, वही योगी है। योगी की मनोभूमि इसी प्रकार की होती है। वह शरीरगत तथा मनोगत वासनाओं,तृष्णाओं की उपेक्षा करता, उन्हें नगण्य, हेय और महानता के मार्ग में बाधक मानता है। तीनों ऐषणाओं से उसे सहज ही विरति हो जाती है। उसे कण−कण में परमेश्वर दिखाई पड़ता है−−लगता है–’विश्व उसकी साकार प्रतिमा है। हर किसी से प्रेम करने को जी करता है। इस प्रेम में ‘दुलार’और ‘सुधार’का सन्तुलित और समुचित समन्वय विवेक के आधार पर किया जाता है। व्यष्टि, समष्टि और प्रकृति के गतिचक्र को समझ लेने के करण उसे किसी प्रिय–अप्रिय स्थिति में असन्तुलन ग्रसित नहीं होना पड़ता हैं। कमल पत्रवत् स्थिति बनी रहती है। खिलाड़ी की तरह रंग−मंच पर अभिनय करने वाले नट की तरह वह अपने कर्त्तव्यों को तो पूरे करता है, पर हानि, लाभ, मान, अपमान का बोझ नहीं ओढ़ता। जब जीवन के रंग−मंच पर खेल ही खेलना है तो हर स्थिति में विनोद की मनःस्थिति क्यों न रखी जाय? योगी इसी तरह सोचने का अभ्यास करता है। ईश्वर के हाथों अपने जीवन की बागडोर सौंपकर वह निश्चिन्त रहता है। अपनी सारी क्षमता, सत्कर्मों, सद्विचारों एवं सद्भावों में नियोजित रखने वाला ही वस्तुतः सच्चा योगी है।

पेट और प्रजनन के सीमित प्रयोजन जीवन रूपी अमूल्य सम्पदा को खपा देने वाले नर कीटकों से सर्वथा भिन्न मनोभूमि वाले चरित्रवान, सन्मार्ग पर चलने का साहस रखने वाले, लोक−मंगल के लिए आत्म समर्पण करने वाले तत्वदर्शी, युगांतरकारी समर्थ व्यक्ति महामानव देवदूत, सिद्ध पुरुष, ऋषि, योगी, तपस्वी पतन−प्रवाह की ओर बहने वाली भीड़ से अलग ही दीख जाते हैं। धारा के चीरकर उल्टी दिशा में चल पड़ने का साहस आत्मबल का चमत्कार है। जन−मानस के परिष्कार और युग प्रवाह को पलट देने का कार्य उच्चकोटि की ऋद्धि−सिद्धि जैसा ही है। योगी इन विभूतियों से विराट् चेतना से संपर्क बना लेने के बाद सुसम्पन्न बन जाते हैं।

योग के तीन पक्ष हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग भक्तियोग की तीन धाराएँ इस हिमालय से निकलती हैं। कर्मयोग का अर्थ है–लोक मंगल के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में पुरुषार्थ को नियोजित किए रहना। कर्मयोगी को यही करना होता है। क्रियाएँ निष्काम और ईश्वरीय अनुशासन एवं संकेतों के अनुरूप होती हैं तो वह कर्मयोग बन जाता है। जिसमें कर्मयोगी सक्रिय और तत्पर तो रहता है, पर होता है–सब कुछ ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए ही। वैचारिक क्षेत्र में चिन्तन एवं रुझान जब विराट् चेतना से जुड़ जाता है तो वह ज्ञानयोग हो जाता है। ज्ञानयोग अर्थात् परिष्कृत चिन्तन। दृष्टिकोण परिमार्जित होकर उदात्त बन जाय। उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धान्तों को उसमें समावेश हो। व्यक्तिवादी निकृष्टता से विरति एवं अरुचि हो जाय। भक्ति योग का अर्थ है अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाएँ। परमात्मा से–विश्वात्मा से जुड़ जाना−एकाकार हो जाना। भक्तियोग के अनुयायी को यही करना होता है। इन विविध योगों में भाव परक आधार समर्पण के द्वारा ही बनता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सभी योगों की सफलता समर्पण योग के आधार पर ही बनती है। गीता में भगवान इसी तथ्य को विस्तारपूर्वक समझाते हुए अर्जुन से कहते हैं−”हे अर्जुन, अपने मन, बुद्धि और समस्त चेष्टाओं को समर्पित कर दे। इतने भर से तेरा विराट् चेतन शक्ति से है जो विश्व ब्रह्मांड में समायी हुई है।

मिलन होने पर अपनी अलग सत्ता नहीं रहती। बूँद जब समुद्र में मिलती है ते अपना स्वरूप स्वभाव सभी खो देती है और समुद्र तरंगों की तरह ही लहराने लगती है। चूँकि समुद्र खारा हैं इसलिए बूँद अपने में भी खारापन भर लेती है। कोई चिन्ह नहीं रहने देती जिससे उसका अस्तित्व अलग से पहचाना जा सके। ईश्वर से मिलने का अर्थ है−अपने आपके गुण, कर्म स्वभाव की दृष्टि से ईश्वर जैसा बना लेना अथवा जो उसे हमसे अभीष्ट है करने लगना। पतिव्रता स्त्री अपने आचरण स्वभाव एवं क्रिया−कलाप को पति की इच्छानुरूप ढाल लेती है। इसके बिना दाम्पत्य−जीवन कैसा? मिलन का आनन्द कहाँ? समर्पण के आधार पर ही है द्वैत को अद्वैत के रूप में इच्छा बनाकर उसके संकेतों एवं निर्देशों को अपनी आकाँक्षा और क्रिया में जोड़ देना इसी का नाम समर्पण है। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के समक्ष गिड़गिड़ाने–नाक रगड़ने का नाम भक्त योग−प्रार्थना नहीं है। भक्तियोगी की एकमात्र पहचान यही है, जिसने अपनी आकाँक्षाओं, वासनाओं की बलि आपको चलने के लिए सहमत कर लिया हो। भक्ति की सच्चे उपासक की यही कसौटी है। वह भगवान को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने के लिए विवश नहीं करता वरन् उसकी इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर अपनी विचार प्रणाली और कार्यपद्धति का पुनर्निर्धारण करता है। तब उसके सामने इस विश्व को अधिक श्रेष्ठ बनाने की−अधिक समुन्नत एवं सुन्दर बनाने की एकमात्र शेष रह जाती है। वह अपने आपको काया की तथा परिवार की संकीर्ण परिधि में आबद्ध नहीं करता वरन् सबमें अपनी आत्मा को समाया देखता और लोक–मंगल के लिए जीता है। वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुरूप अपनेपन की परिधि को अतिव्यापक बना लेता है। तब उसे अपनी काया ईश्वर के देव मन्दिर जैसी दिखती है और अपनी सम्पदा ईश्वर की पवित्र धरोहर जैसी। जिसका उपयोग ईश्वरीय महान प्रयोजनों में किया जाता है। यह दृष्टि ही योग दृष्टि है और सम्बद्ध अनुभूति ईश्वर दर्शन। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट समझना हो तो यों कहना चाहिए कि स्वार्थपरता का परमार्थ में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में निष्कृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन ही समर्पण का वास्तविक उद्देश्य हैं। भक्तियोग में इसी समर्पण शरणागति की प्रधानता है।

मन पर मलीनता के आवरणों के कारण उस महान सत्ता से संपर्क नहीं जुड़ पाता दिव्य आदान−प्रदान का क्रम नहीं चल पाता। चले भी कैसे? आदान−प्रदान के लिए कुछ तो एकरूपता होनी चाहिए। विद्युत का प्रवाह तारों में बहता है−लड़की में नहीं। दैवीय चेतना का प्रवाह पवित्र अन्तःकरण में अवतरित होता है। विराट् से सम्बन्ध जुड़ने एवं अनुदान प्राप्त करने के लिए मन की निर्मलता आवश्यक है अन्यथा दैवी अनुदान अवतरित हों तो भी मलीनता के कषाय−कल्मषों के कारण उससे लाभ उठाना नहीं बन पड़ता। सूर्य का प्रकाश, ताप प्राप्त करने के लिए कम से कम कमरे की खिड़की तो खोलना पड़ता है। कोठरी छोड़कर धूप में बाहर निकलने जितना न्यूनतम पुरुषार्थ तो करना ही होगा। इतना भी न बन पड़ा तो सूर्य की गर्मी प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव होगा? ईश्वर से जुड़कर उसके दिव्य अनुदानों का लाभ उठाना तभी शक्य है जब अन्तःकरण पवित्र और उदात्त हो–मन निर्मल हो। परमेश्वर को निर्मलता, पवित्रता प्रिय है। एकरूपता स्थापित करने के लिए आरम्भिक चरण मनोनिग्रह के लिए उठाना पड़ता है। ध्यान साधना के विविध उपचार इसी प्रयोजन के लिए करने होते हैं ताकि मन की वृत्तियाँ परिमार्जित−परिष्कृत हो जांय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118