Quotation

January 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन साधना में यों सभ्यता और संस्कृति दोनों का ही समावेश रहता है। पर उसमें संस्कृति को उद्गम और सभ्यता को प्रवाह कहा गया है। संस्कृति विचारणा, मान्यता, आस्था, निष्ठा में उत्कृष्टता के समावेश को कहते हैं। इसी पृष्ठभूमि की प्रेरणा से गतिविधियों का निर्धारण सम्भव होता है। शालीनता की पक्षधर जीवनचर्या को सभ्यता कहते हैं। सभ्य बन सकना उसी के लिए सम्भव है जो सुसंस्कृत हो। संस्कृति मनःसंस्थान में उगाई और बढ़ाई जाती है। सभ्यता अपनाने के लिए शरीर को सधाया जाता है। जंगली जानवरों को सरकस में कलाकारिता दिखाने के लिए जिस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है उसी प्रकार साधनात्मक अनुशासन में जकड़कर अनपढ़ मनुष्य को सुगढ़, सुसंस्कृत बनाया जाता है। इसी प्रयास को सभ्यता संवर्धन कहते हैं।

संक्षेप में श्रद्धा आत्मिक, प्रज्ञा बौद्धिक और निष्ठा शारीरिक उत्कृष्टता का नाम है। श्रद्धा को ब्रह्म−चेतना, प्रज्ञा को संस्कृति और निष्ठा को सभ्यता के नाम से जानी जाने वाली त्रिविधि आदर्शवादिताओं का समन्वय ही मानवी गरिमा है। उन विभूतियों की मात्रा किनके पास कितनी है उसी आधार पर उन्हें अवतार, देवदूत, ऋषि, सिद्ध पुरुष, महामानव आदि नामों से पुकारते हैं। इन दैवी सम्पदाओं का जो जितना धनी है उसी आधार पर उसमें आत्मशक्ति की प्रखरता पाई जाती है और तद्नुरूप ही वह युग सृजन जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं गौरव गरिमा भरे काम कर सकने में समर्थ होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118