मानवी चुम्बकत्व− अणिमा का उद्गम स्रोत

January 1982

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मनुष्य क्या है? इसका सही उत्तर दिया जा सकना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि वह एक समूची विचित्रता है। उसे भानुमती का पिटारा कह सकते हैं। जितने दृष्टिकोणों से देखा जाय उन सभी के अनुसार वह पूर्ण प्रतीत होता है। रासायनिक संरचना, ज्ञान तन्तुओं का जाल−जंजाल अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ, मनःसंस्थान, भाव समुच्चय, आदि को प्रधानता देने से भी बात बन जाती है और उसके अंतर्गत जुड़ी हुई विशेषताओं को गौण या सहायक सिद्ध किया जा सकता है।

मनुष्य अविनाशी आत्मा भी है और चलता−फिरता मरणशील पेड़ पादप भी। वह किसी का शत्रु, किसी का मित्र, किसी का ग्राहक, किसी का स्वामी, किसी का दास हो सकता है। विभिन्न सम्बन्धी–नातेदार उसे अपनी−अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न रिश्तों में बाँधते हैं। किन्हीं के दृष्टिकोण में वह विद्वान, पहलवान, कलाकार हो सकता है और कोई उसके दोष−दुर्गुणों को देखते हुए आलसी, व्यसनी आँशिक रूप से ही सही हैं–समग्र रूप से नहीं। जिसने जैसा सोचा या देखा है, वह उसे उसी रूप में प्रतीत होगा। कोई भी एक व्यक्ति किसी दूसरे को समग्र रूप से जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि हर किसी की दृष्टि एक ढाँचे में ढली और एक सीमा में ही पर्यवेक्षण कर सकने में समर्थ हो सकती है।

मनुष्य क्या है? इसका उत्तर देना ही हो तो प्रश्नकर्ता से उलटकर पूछना चाहिए, मनुष्य क्या नहीं है? अर्थात् बीज रूप में उसमें वे सभी तथ्य, पदार्थ, वैभव, पराक्रम विद्यमान हैं जो इस संसार के जड़ पदार्थों तथा चेतन प्राणियों में कहीं भी देखे पाये जा सकते हैं।

एक पर्यवेक्षण के अनुसार मनुष्य एक चलता−फिरता चुम्बक है। उसकी कायसंरचना को एक अच्छा−खासा बिजली घर कह सकते हैं जिससे उसकी अपनी मशीन चलती और जिन्दगी की गुजर–बसर होती है। इसके अतिरिक्त वह दूसरों को प्रकाशित करने से लेकर भले−बुरे अनुदान दे सकने में भी भली प्रकार सफल होता रहता है। चुम्बक होने के नाते वह जहाँ प्रभावित करता है वहाँ स्वयं भी अन्यान्यों से आकर्षित किया, और दबाया घसीटा जाता रहता है।

मनुष्य चुम्बक का स्रोत ढूंढ़ने वालों ने अभी इतना ही जाना है कि वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से यह अनुदान उसी प्रकार प्राप्त करता है जैसे कि धरती सूर्य से। इस ऊर्जा की मात्रा में न्यूनाधिकता होने तथा सदुपयोग−दुरुपयोग करने से मनुष्य आयेदिन लाभ−हानि उठाता रहता है। अच्छा हो इस सम्बन्ध में अधिक जाना जाय और सफलतापूर्वक हानि से बचने तथा लाभ उठाने में तत्पर रहा जाय।

मनुष्य का मैग्नेट घटता−बढ़ता रहता है। किसी के चेहरे पर निराशा छायी रहती है, कोई खुशहाली से भय दिखाई पड़ता है। किसी की आँखों में विशेष आकर्षण मालूम होता है और किसी की आँखों में दीनता−हीनता की झलक दृष्टिगोचर होती है। किसी व्यक्ति के पास बैठने– संपर्क बढ़ाने की अनायास ही इच्छा होती है और किसी से दूर रहने, बात न करने तक का जी होता है। यह मानवी चुम्बकत्व की अधिकता एवं अल्पता के कारण ही होता है। जब शारीरिक चुम्बकत्व का ह्रास होने लगता है तो शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, निस्तेज, शिथिल-सा दिखाई पड़ने लगता है और इसके आधिक्य से आकर्षक, मोहक एवं सुन्दर लगने लगता है।

चुम्बकत्व घटने में मनुष्य को विस्मृति, भ्रान्ति थकान जैसी अनुभूति होती है, बढ़ने में प्रतिभा, स्मृति, स्फूर्ति जैसी उत्साहवर्धक विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं। बढ़े हुए चुम्बकत्व वाला अपने से हल्के वालों को प्रभावित करने में सफल रहता है। साथ यह ही बात भी है कि उससे बड़े स्तर की प्रतिभा उसे अपनी पकड़ में कस लेगी। इतने पर भी कुछ मनस्वी ऐसे होते हैं जो आत्मवलय पर दृढ़ रहते हैं। आदान−प्रदान तो करते हैं किन्तु आवश्यक रूप से किसी से भी प्रभावित नहीं होते।

इस मानवी चुम्बकत्व के दो प्रवाह हैं–एक ऊर्ध्वगामी–दूसरा अधोगामी। ऊर्ध्वगामी मस्तिष्क में केन्द्रित है। उस मर्मस्थल के प्रभाव से व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभाशाली बनता है। बुद्धि−कौशल, मनोबल के रूप में–शौर्य, साहस, आदर्शवादी उत्कृष्टता के रूप में यही चुम्बकत्व मिश्रित विद्युत ही काम करती है। मनुष्य के चेहरे के इर्द−गिर्द छाये तेजोवलय –ओजस्–आरा को इस ऊर्ध्वगामी विद्युत का ही प्रतीक मानना चाहिये। अधोगामी विद्युत जननेन्द्रियों में केन्द्रित रहती–रति सुख का आनन्द देती और सन्तानोत्पादन की उपलब्धि प्रस्तुत करती है। यौन आकर्षण के पीछे यही चुम्बकीय विद्युत काम करती है।

ऊर्ध्वगामी और अधोगामी चुम्बकीय प्रवाह उत्तरी, दक्षिणी ध्रुव की तरह भिन्न प्रकृति के होते हुए भी परस्पर सम्बद्ध हैं। कामोत्तेजना और काम विकार के शमन की प्रक्रिया को क्रमशः इस अधोगामी–ऊर्ध्वगामी प्रवाह की परिणति ही मान सकते हैं। जहाँ शरीर को कई प्रकार खाद्य पदार्थ एवं पोषण चाहिये वहाँ उसे वातावरण में संव्याप्त चुम्बकीय ऊर्जा की मात्रा भी उसी प्रकार चाहिए जैसे कि साँस के लिए हवा की जरूरत पड़ती है। इसी प्रकार मस्तिष्क को भी अपनी बैटरी चार्ज करने वाला ‘चार्जर’ चाहिए। अन्यथा वह ‘डाउन’ होती चली जाएगी और मनुष्य अपने ओजस् को व्यक्तित्व में झलकते आकर्षण को–अपनी प्रखरता को गँवा बैठेगा।

मानवी सत्ता के ब्राह्मी सत्ता से सम्बन्धों की तुलना गर्भस्थ बालक और माता के सम्बन्ध से ही की जा सकती है। गर्भस्थ बालक की तन्तु नलिका (गर्भरज्जु) के समान ही मानवी चुम्बकत्व विश्वव्यापी समष्टि चेतना और व्यष्टि सत्ता को परस्पर जोड़ने में एक सशक्त गठबन्धन की भूमिका निभाता है। विष्णु की नाभिकमल से ब्रह्मा के सम्बन्ध की पौराणिक कल्पना भी इसी तथ्य का उद्घाटन करती है।

अन्तरिक्ष में संव्याप्त भले बुरे अनुदानों को मनुष्य अपने चुम्बकत्व द्वारा ही स्वीकार−अस्वीकार करता है। इस शक्ति का केन्द्र स्थल उसका मस्तिष्क ही है। इसी कारण जब तक मनुष्य निष्प्राण नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति के जीवित होने की पूरी−पूरी सम्भावना रहती है। शरीर मृत हो जाता है पर चुम्बकत्व रूपी तेजोवलय सूक्ष्म स्थिति में विद्यमान होता है व अपनी उपस्थिति का परिचय विभिन्न रूपों में देता है। फ्रांस के सरकारी रिकार्डों में वर्णन है कि राज्य क्रान्ति में सिर कटे एक व्यक्ति का मुँह और होंठ बहुत देर तक इस प्रकार चलते रहे, मानों वह कुछ कह रहा हो। प्राचीन काल में रणक्षेत्र में कई ऐसे उदाहरण देखने में आते थे जिनमें योद्धा तलवार द्वारा सिर काटने पर भी अपनी तलवार को हवा में चलाते पाये जाते थे। ये उदाहरण मृत्यु के बाद भी तेजोवलय के होने की मान्यता की सत्यापन ही करते हैं।

वैसे ब्रह्माण्ड व्यापी चुम्बकत्व, जिससे मनुष्य का आदान−प्रदान चलता रहता हैं, का उपयोगी प्रवाह की मनुष्य के काम आता है। यदि प्रतिकूल प्रवाह घुस पड़े तो विषैले खाद्य की तरह उससे भी हानि उठानी पड़ेगी। मनुष्य में अपना चुम्बकत्व है तो सही पर उसे न्यूनाधिक करने में मनुष्य के अपने प्रयत्न ही चमत्कार दिखाते हैं। अतीन्द्रिय क्षमता वाली विशेषताएँ मनुष्य के इसी चुम्बकत्व पर निर्भर हैं।

इस क्षमता को वैज्ञानिकों ने ‘मैग्नेटिक सेन्स’ (चुम्बकीय इन्द्रिय)नाम दिया है। ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका के अनुसार मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के जीव−विज्ञान विशेषज्ञों ने एक प्रयोग में वहाँ के कुछ छात्रों की आँखों पर पूरी तरह पट्टी बाँध कर उल्टे−सीधे रास्ते से 52 किलोमीटर दूर ले जाकर एक स्थान पर छोड़ दिया। फिर उनसे आँखों पर पट्टी बाँधे ही उसी रास्ते से वापस चलने की कोशिश करने के लिये कहा गया। 15 प्रतिशत छात्र रास्ते का सही अनुमान लगा सकने में सफल रहे। प्रयोग के दूसरे चरण में हर एक छात्र के सिर पर एक चुम्बकीय छड़ रखकर उसी प्रयोग को दोहराया गया, तो सभी रास्ता भूल गये। चुम्बक की छड़ हटाकर पुनः 8 किलोमीटर की दूरी तक ले जाकर वापस पहुँचने के प्रयोग में पहले की भाँति ही अधिकाँश छात्र सफल रहे।

वैज्ञानिकों ने इस क्षमता को चुम्बकीय इन्द्रिय बताते हुए कहा कि पृथ्वी का चुम्बकत्व मानवी चुम्बकत्व पर प्रभाव डाले, इसमें दूसरे प्रयोग में रखी छड़ ने व्यवधान डाला। मानवी चुम्बकत्व अपनी क्षमता के सहारे अपनी दिशा स्वयं ढूँढ़ने में मनुष्य की सहायता करता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत दिन−प्रतिदिन के जीवन में अपनी इस चुम्बकीय क्षमता का प्रयोग करता हैं। इस प्रकार छठी इन्द्रिय (अर्थात् चुम्बकीय इन्द्रिय) कोरी कल्पना नहीं है।

चुम्बकीय क्षमता अन्य जीवधारियों में भी मिलती है। अनेकों पक्षी हजारों किलोमीटर की पृथ्वी की परिक्रमा प्रतिवर्ष करते हैं। इस ‘माइग्रेशन’ की प्रक्रिया में भी पृथ्वी की चुम्बकीय धाराएँ व जीवधारियों का वैयक्तिक का चुम्बकत्व ही आधार बनता है। वे दिन−रात, बादल छाए मौसम में भी समान रूप से निर्वाध यात्रा करते हैं, पर यदि इनके सिर पर छोटा-सा चुम्बक बाँध दिया जाय तो ये पक्षी अपना रास्ता भूल जाते हैं।

मनुष्य के जीवकोषों के सूत्र विभाजन की आरम्भिक और मध्यावस्था का चुम्बकीय शक्ति रेखाओं के साथ आश्चर्यजनक तालमेल है। कोषों के विभाजन में क्रोमोजोम निरन्तर जीवकोषों के ध्रुवों की ओर ही चलते हैं।

मनुष्य के रक्त में चुम्बकीय क्षमता होने की बात बहुत समय से मानी जाती रही है। इसका प्रधान आधार है–रक्त के लाल कणों में लोहे का प्रचुर मात्रा में होना। यह लोहा शीघ्र ही चुम्बकीय क्षेत्र से प्रभावित हो जाता है। इस कारण चुम्बक द्वारा किसी भी स्थान में रक्त के जमाव−प्रवाह को प्रभावित करके वहाँ विद्यमान किसी भी प्रकार की विकृति का शमन किया जा सकता है। रक्त अभिसरण शरीर में स्वयं अपना चुम्बकत्व भी उत्पन्न करता है। शरीर कार्यिकी की एक प्रामाणिक पुस्तक के लेखक बेस्ट एण्ड टेलर के अनुसार हर लाल कण की सतह पर एक ऋण विद्युत आवेश होता है। इसके कारण ही ये कण परस्पर एक दूसरे को विकर्षित करते है तथा सामान्यतः रक्त नलियों में चिपकते नहीं। इन कणों का रक्त में निरन्तर परिभ्रमण एक विद्युत्प्रवाह का निर्माण करता है।

लाल कणों की कुल सतह का क्षेत्रफल शरीर के क्षेत्रफल 1500 गुना होता है। इस प्रकार यदि त्वचा के क्षेत्रफल को 1॥ वर्ग मीटर मान लिया जाए तो लाल कणों की कुल सतह का क्षेत्रफल किसी भी तरह 2000 वर्ग मीटर से कम नहीं है। सारे शरीर में बिछे रक्त नलिकाओं के जाल में निरन्तर अभिसरण होते रहने से एक स्वल्प किन्तु निश्चित विद्युत्प्रवाह बनता है। इस प्रवाह से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। इस प्रकार शरीर में चुम्बकीय क्षमता का होना पूर्णतः विज्ञान सम्मत है।

मनुष्य की जिस क्षमता को हाल ही में वैज्ञानिकों ने ‘मैग्नेटिक सेन्स’ की संज्ञा दी है, उसके आधार पर प्राचीन काल में लोग हाथ में छड़ लेकर स्थान−स्थान पर घूमते थे और उस छड़ की चेष्टाओं से भूमिगत पदार्थों का पता लगा देते थे। यह विधि ‘डाउजिंग‘ नाम से जानी जाती है एवं पाश्चात्य देशों में कुछ समय पूर्व तक बहुत प्रचलित थी। इस प्रकार उपयुक्त होने वाली छड़ ‘डाउजिंग रॉड’ कहलाती थी और साधनहीन व्यक्ति भी मात्र इसके माध्यम से भूमिगत जल और धातुओं का अप्रत्याशित रूप से सही अनुमान लगा लेते थे।

मनःशास्त्री विक्टर–ई. क्रोमर का कथन है कि मनःशक्ति को घनीभूत कर यदि इस चुम्बकत्व को किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त किया जा सके तो बहिरंग में सम्मोहन प्रक्रिया द्वारा दूसरों को तथा अन्तरंग में स्वयं की सूक्ष्म शक्तियों को प्रभावित करने–जगाने में सफलता मिल सकती है।

मैरीलैण्ड (अमेरिका) के कॉलेज ऑफ फार्मेसी की एक छात्रा ‘लुई हैबर्गर’ की अँगुलियों के अग्रभाग में चुम्बकीय गुण था। आधी इंच मोटी, एक फुट लम्बी लोहे की छड़ वह अँगुलियों के पोरों से छूकर अधर में में उठा लेती थी। धातुओं से विनिर्मित वस्तुएँ उसके हाथ में चिपककर रह जाती थीं। अन्य विद्युत्महिलाओं की तरह किसी मनुष्य को छूने पर बिजली का झटका तो नहीं लगता था, पर एक विचित्र-सा आकर्षक उसके समीप आने पर लोग महसूस करते थे।

इसी मानवी चुम्बकत्व को बायोप्लाज्मा के रूप में ‘कीट−पतंगों’ के आसपास के प्रभामण्डल को चित्राँकित कर डॉ. इन्शुसिन (कजाकिस्तान ) एवं डॉ. किर्लियन द्वारा किया जा चुका है। थियासफीस्ट इसे ‘इथरीक डबल’ कहते हैं जो शरीर के चारों ओर आवरण के समान विद्यमान है।

मैस्मरेज्म के प्रयोगों में प्रयोक्ता द्वारा इसी चुम्बकीय विद्युत के सहारे दूसरों को सम्मोहित करने की प्रक्रिया सम्पादित होती है। इसी माध्यम से एक व्यक्ति का प्राण दूसरे में प्रवाहित होने लगता है तथा शारीरिक रुग्णता एवं मानसिक अक्षमता को दूर करने में सहायक होता है। सत्संग और कुसंग के परिणाम भी व्यक्ति की निजी ऊर्जा के सहारे ही सम्भव होते हैं। मात्र कहने−सुनने भर से कोई किसी के साथ चल पड़ने या बात मानने के लिये विवश नहीं किया जा सकता।

प्राण विद्युत को विकसित एवं परिष्कृत करने के ध्यान−धारणा तथा प्राणायाम के कितने ही प्रयोग अपनी स्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप अपनाये जा सकते हैं। किन्तु उससे भी अधिक आवश्यक यह है कि इन्द्रिय निग्रह मनोनिग्रह की नीति−निष्ठा, जीवनचर्या अपना कर ईश्वर प्रदत्त प्राण चुम्बकत्व की बर्बादी से बचे रहने की सतर्कता बरती जाय।


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