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January 1982

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योग में ‘योग’ अभ्यास की प्रमुखता है। मेडीटेशन−एकाग्रता का बहुत माहात्म्य बताया गया है, उसका तात्पर्य यही है कि निकृष्टता के, लोभ−मोह और अहंता के जाल−जंजाल में जकड़े हुए मन को इन विडंबनाओं में भटकते रहने की आदत छोड़ने और निर्धारित लक्ष्य इष्टदेव के साथ तादात्म्य होने का अभ्यास करना।

इसमें मन की बिखराव की बाल बुद्धि छोड़ने और इष्टदेव से लेकर दिनचर्या के प्रत्येक क्रिया−कृत्य में तादात्म्य होने का अभ्यास करना भी है। न तो पूजा उपचार में बिखराव रहे और न दैनिक क्रिया−कृत्यों को बेगार भुगतने की तरह आधे−अधूरे मन से किया जाय।

क्रिया के साथ मनोयोग को घनिष्ठ कर देने की सफलता बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे अपनाने वाले भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में समान रूप से सफल होते है। ध्यान केवल किसी देवता का करते रहने और उसी की छवि में मन रमाये रहना मनोनिग्रह का एक स्वरूप तो है पर उतने भर से ही अभीष्ट सफलता नहीं समझी जानी चाहिए।

ऐसी एकाग्रता तो नट, बाजीगर, मुनीम, कलाकार, वैज्ञानिक भी अपने स्वभाव का अंग बना लेते हैं। मैस्मरेज्म प्रयोगों में तो यह एकाग्रता ही चमत्कार दिखाती है। इतने पर भी वे लोग आत्मिक दृष्टि से किसी भी प्रकार ऊँचे उठे हुए नहीं कहे जा सकते। किसी कल्पना पर ध्यान जमाये रहना, उस प्रयोजन के लिए एक उपचार भर है लक्ष्य यह है कि सर्वतोमुखी उत्कृष्टता के प्रति सघन श्रद्धा उत्पन्न करना, उसके माहात्म्यों का भाव−भरा चिन्तन करना और अपनी समूची चेतना को उसी में सराबोर कर देना।


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