चान्द्रायण कल्प की आहार−साधना

January 1982

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परिस्थितियों को बदलने के लिए मनःस्थिति बदलना आवश्यक है। अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं का जितना सम्बन्ध बाहरी व्यक्तियों तथा सुविधाओं पर निर्भर है उससे कहीं अधिक अपने गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर विनिर्मित व्यक्तित्व के ऊपर अवलम्बित रहता है। मनुष्य एक जीता जागता चुम्बक है। वह अपने स्तर के अनुरूप परामर्श, वातावरण, सहयोग, साधन चुपके−चुपके खींचता रहता है। फलतः वैसा ही परिवार जुट जाता है जैसी कि मनःस्थिति होती है। चोरों को गिरहकट मित्र, सहयोगी मिलते हैं। सहयोग सम्मिलन से वैसे ही प्रयास चल पड़ते हैं। फलतः घृणा, तिरस्कार से लेकर पुलिस, जेल तक की परिस्थितियाँ अनायास ही बन जाती हैं। यही बात सन्त सज्जनों के सम्बन्ध में लागू होती है। पराक्रमी पुरुषार्थियों से लेकर आलसी दरिद्रियों तक को अपने−अपने ढंग के सहयोग साधन मिलते चले जाते हैं। अपवाद तो कभी−कभी ही, कहीं−कहीं ही बनते हैं। उत्थान और पतन के लिए तत्वतः मनुष्य स्वयं ही उत्तरदायी होता है। इस कथन में तनिक भी अत्युक्ति नहीं कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। आस्थाओं, आकाँक्षाओं के समन्वय से बना अन्तःकरण ही समूचे मनःसंस्थान को, कायकलेवर को दिशा विशेष में चलाता है। फलस्वरूप वैसी ही परिस्थितियाँ बन जाती हैं। यही हैं सुख−दुख के, उत्थान−पतन के आधारभूत कारण।

मनःसंस्थान को–अन्तःकरण को–पवित्र परिष्कृत कैसे बनाया जाय? इसके दो उपाय हैं। एक चिन्तन के द्वारा अंतःप्रेरणा उभारने और तद्नुरूप जीवन की दिशा−धारा बदलने का भावनात्मक। दूसरा है साधन तपश्चर्या के दबाव देकर संचित कुसंस्कारों को गलाने और उन्हें सुसंस्कारिता के ढाँचे में ढालने का इन दोनों ही उपायों को साथ−साथ लेकर चलना पड़ता है। प्रगति पथ पर इन दो पहियों के सही होने से ही गाड़ी अग्रगमन की दिशा में गतिशील होती है। चिन्तन को परिष्कृत करने की प्रक्रिया योग कहलाती है और चरित्र को निखारने वाले उपक्रम तप कहलाते हैं।

मन शरीर का एक भाग है। उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा जाता है शरीर आहार से बनता है। अस्तु प्रकारान्तर से आहार के स्तर को ही शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन का आधारभूत कारण माना गया है। आत्मिक प्रगति की बात सोचते ही सर्वप्रथम आहार साधना की बात सामने आती है। अभक्ष्य को अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ करने वाला धर्मोपदेशक भले ही बन सके–धर्मात्मा बन सकना असम्भव है। इसलिए पूजा उपचार की ही तरह आहार साधना पर भी ध्यान देना होता है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन एवं धर्मानुष्ठानों की तरह आहार में सात्विकता एवं सदाशयता का समावेश भी आत्मिक प्रगति के अनिवार्य आधारों में सम्मिलित रखा गया है।

चान्द्रायण साधना को आत्मोत्कर्ष के प्रयासों में मूर्धन्य इसीलिए कहा गया है कि उसमें धर्मानुष्ठानों से भी अधिक आहार नियमन पर ध्यान दिया गया है। आहार निग्रह के उपरान्त मनोनिग्रह कठिन नहीं रह जाता। मन को सदाशयता की ओर मोड़ा जा सके तो दृष्टिकोण बदलते ही आत्मिक प्रगति के मार्ग में फिर कोई बड़ी बाधा शेष नहीं रहती।

चान्द्रायण विशुद्ध तप है। तप में तितिक्षा का समावेश रहता है। गीता के अनुसार “विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः” उपवास करने से विषय−विकारों की निवृत्ति होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनुभवी तत्वदर्शी सदा आहार नियमन का परामर्श देते रहे हैं। चान्द्रायण के साथ प्रायश्चित प्रक्रिया जुड़ी रहने के कारण उसमें अधिक कठोर आहार–अनुशासन अनुबन्ध बरता गया है। किसी समय सर्वसाधारण की मानसिक और शारीरिक स्थिति ऐसी थी जिससे ऐसी तितिक्षाओं का संकल्प बल के सहारे सरलता पूर्वक सम्पन्न किया जा सके। पूर्व निर्धारणों को सैद्धान्तिक मान्यता देते हुए भी समय के अनुरूप थोड़ी सरलता उत्पन्न करना युग धर्म ही माना जायगा।

चान्द्रायण उपवासों की पुरातन प्रक्रिया अतिकठोर है। उसे लगभग एक महीने का अनुष्ठान करना चाहिए। एक समय भोजन के अतिरिक्त किसी समय और कुछ खाने का नियम नहीं है। कुछ चांद्रायणों में पूर्णिमा का पन्द्रह ग्रास खाने और एक−एक ग्रास घटाते चलने का नियम है। फिर एक−एक ग्रास बढ़ाया जाता है। पन्द्रह ग्रास कितने होते है? उनसे चौथाई पेट भी नहीं भरता। फिर उसे भी काम करते चलने पर तो प्रायः बीस दिन ऐसी स्थिति रहती है जिसे न खाने के बराबर ही समझना चाहिए। चतुर्दशी को एक ग्रास। अमावस्या प्रतिपदा को एक ग्रास भी नहीं। दौज को एक ग्रास। इस प्रकार एक−दो ग्रास चौबीस घण्टे में मिलने– वैसी ही कठोरता बहुत दिनों तक बनी रहने की स्थिति ऐसी है, जिसे शारीरिक स्थिति से मजबूत और मानसिक दृष्टि से संकल्पवान व्यक्ति ही सहन कर सकते हैं।

आजकल वैसे व्यक्ति बिरले ही दीखते हैं। एक दो दिन भोजन मिलना तो दूर चाय, बीड़ी जैसी वस्तुएँ न मिलने पर ही पैर काँपने–सिर घूमने और नींद न आने जैसी शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं। शरीर में इतनी चर्बी किसी−किसी के ही होती है जो लम्बे समय तक एक प्रकार से सर्वथा निराहार स्तर का कठोर उपवास कर सकें। साथ ही इतना मानसिक सन्तुलन भी बनाये रह सकें जिसमें कई−कई उपासनाएँ, साधनाएँ भक्ति भावनापूर्वक होती रहें।

मन भूख के कारण बेचैन हो रहा हो तो एकाग्रता, स्थिरता की स्थिति कैसी रहेगी? न रही तो भूखे रहना भले ही निभता रहे वे अध्यात्म उपचार कैसे सधेंगे, जिन्हें अपनाना चान्द्रायण साधना का मूलभूत उद्देश्य है। तपश्चर्या में उपवास भी एक अंग तो है पर उतने भर से ही आत्म परिष्कार का समग्र उद्देश्य कहाँ पूरा होता है।

समय और परिस्थितियों का, देश, काल, पात्र का ध्यान रखते हुए गायत्री तीर्थ में चलने वाले चान्द्रायण साधना सत्रों में ऐसा सन्तुलन बिठाया गया है जिससे इस तपश्चर्या के आधारभूत सिद्धान्त, स्वरूप, उद्देश्य एवं प्रयोग की तो समुचित रक्षा होती रहे, पर उपवास क्रम को अपेक्षाकृत सरल बना दिया जाय। ऐसा शास्त्रीय विधान भी है। लघु चान्द्रायण या शिशु चान्द्रायण के नाम से ऐसे विधान भी हैं जिनके आधार पर शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से दुर्बल स्तर के लोग भी अपना सकें और उस प्रयोग से सर्वथा वंचित न रहकर, जितना बन पड़े उतना करें और जितना सम्भव है उतना लाभ उठायें।

इस प्रसंग में मात्र उपवास में ही सरलता की गई है शेष सभी सिद्धान्तों को यथावत् रखा गया है। यों पन्द्रह ग्रास लेने का विधान है। किन्तु यह मान लिया गया है कि पूर्णिमा को पूर्ण आहार किया जायगा और उसका चौदहवाँ अंश घटाते−घटाते अमावस्या प्रतिपदा को निराहार रहा जायगा। इस समूचे जोड़−तोड़ में औसत हिसाब बिठाने पर गुणनफल यह आता है कि कुल मिलाकर आधे भोजन पर रहना होगा। शान्तिकुँज के चांद्रायणों में यही सिद्धान्त अपनाया गया है कि कुल मिलाकर आधा भोजन किया जाय।

आमतौर से लोग दो समय भोजन करते हैं। इसलिए यह मान लिया गया है कि एक समय भोजन करने से काम चलाया जाना चाहिए। यह आहार उतना ही होना चाहिए जितना कि नित्य प्रति होता है। शाम के बदले का भी दोपहर को खाने की, इसी समय दूना ड्यौढ़ा कर लेने का चतुरता करनी हो तो बात दूसरी है।

ऊँट एक दिन पानी पीकर एक सप्ताह तक रेगिस्तान में चल लेता है। उतना पानी पेट में भर लेता है कि एक सप्ताह तक फिर पीने की आवश्यकता न पड़े। मगर भेड़ के बच्चों को, साँप मेंढक को, व्याघ्र हिरन को इतनी मात्रा में खा लेता है कि फिर कई दिन तक मुख खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती। तीर्थ पुरोहित भी ऐसा ही करते हैं। एक समय में उतना ‘छक’ लेते हैं कि दूसरे समय की तो बात ही क्या–दूसरे दिन भी न मिले तो पेट कुछ माँगेगा नहीं। यही नीति चान्द्रायण कर्त्ताओं को अपनानी हो तो फिर उपवास वैसा ही मखौल बन जायेगा जैसा कि एकादशी करने वाले तथाकथित फलाहारी, माल मलाई इतनी अधिक ठूँस लेते हैं कि पेट को हाहाकार करना पड़े। चान्द्रायण कर्त्ता भी ऐसी ही दिल्लगीबाजी उपवास की करने लगे तो वह तप तपश्चर्या न रहकर आत्म−प्रवंचना ही बन जायगी।

गायत्री तीर्थ की उपवासचर्या को ऐसा सन्तुलित रखा गया है कि उससे न खाली पेट रहने से उत्पन्न होने वाली कठिनाई का सामना पड़े और न पेट को विश्राम मिलने के उद्देश्य में व्यतिरेक उत्पन्न हो। मात्रा घटाना तो हर हालत में आवश्यक ही है। दोपहर को उतना भोजन किया जाय जितना कि आमतौर से किया जाता है। न कम न अधिक। शाम को सर्वथा निराहार रहा जाय।

एक समय के भोजन के अतिरिक्त शान्ति−कुँज व्यवस्था में प्रातःकाल प्रज्ञापेय (जड़ी बूटियों का चाय जैसा क्वाथ) एवं पंचगव्य दिया जाता है। दोपहर को एक दिन दाल−चावल, दूसरे दिन रोटी−शाक का क्रम चलता है। एक समय में दो से अधिक वस्तुएँ न लेना भी उपवास की मर्यादा के अंतर्गत आता है। दोपहर को हविष्यान्न (यज्ञ में काम आने वाले अन्न−तिल, जौ, चावल) की रोटी। साथ में सरस्वती पंचक (ब्राह्मी, शंखपुष्पी, बच, शतावरी, गोरखमुण्डी) की चटनी आँवला, अदरक समेत। यही नित्यक्रम है। मसाले कम ही डाले जाते हैं ताकि स्वाद पर नियन्त्रण रखने की संयम साधना निभ सके और जायके के नाम पर अनावश्यक मात्रा पेट में न ठुँसे।

शान्तिकुँज के भोजनालय में सामान्य रूप से चलने वाली आहार व्यवस्था यही है। जो आवश्यक समझें शाम को भी प्रज्ञापेय या दूध, छाछ सीमित मात्रा में लेने का निजी प्रबन्ध कर सकते हैं।

फलाहार, अन्नाहार का झंझट इसलिए नहीं रखा गया है कि अब प्राचीन काल की तरह अपने उद्यान में पके हुए फल कहीं मिलते नहीं। कच्चे तोड़ना, बहुत दिन रखे−रखे उनका जराजीर्ण होकर पीले पड़ना, पकना। यही है आज के बाजारू फलों की स्थिति। केले, आम, अँगूर आदि में बाजार में ऐसे ही मिलते हैं जिन्हें देखने में पके किन्तु गुण की दृष्टि से सर्वथा कच्चे ही कहा जा सकता है। फिर वे महंगे इतने है कि मध्यवर्ती व्यक्ति उनका बोझ वहन नहीं कर सकता।

वर्तमान परिस्थितियों में फलाहार की तुलना में शाकाहार कहीं अधिक सस्ता एवं लाभदायक है। अमृताशन भी एक प्रकार का शाकाहार या फलाहार के समतुल्य ही है। जिनका मनोबल हो वे इस एक महीने को शाकाहार या अमृताशन पर निभा सकते हैं। उनके लिए स्वयं पका लेने के सभी साधन शाँति−कुँज में मौजूद हैं। जो खिचड़ी, दाल, चावल, दलिया आदि स्वयं पका सकें उनके लिए वैसी सुविधा भी उपलब्ध करा दी जाती है। शान्ति−कुँज के भोजनालय में सबके लिए एक जैसी व्यवस्था है। सुविधानुसार जो जिस व्यवस्था का लाभ उठाना चाहें वह वैसा प्रबन्ध कर सकते हैं। शाक, कोयला, अंगीठी, बर्तन, दलिया, चावल दाल आदि सभी वस्तुएँ हर किसी के लिए उपलब्ध हैं। जिन्हें जैसी सुविधा हो वे वैसी व्यवस्था कर सकते हैं।

आहार की मात्रा पर इतना ही अंकुश रखा गया है जिससे पेट सर्वथा खाली भी न रहे और उपवास की मर्यादा के अंतर्गत उसे सीमित मात्रा में खाली भी रखा जा सके। अमृताशन उस आहार को कहते हैं जिसे भगौने में पकाया जा सके। चावल, दाल, दलिया, दूध, खिचड़ी, शाकाहार जैसे उबालकर बनाये जाने वाले सभी पदार्थ अमृताशन की मर्यादा में आते हैं। उन्हें उपवास में सम्मिलित किया जाय और फलाहार समतुल्य माना जाया तो हर्ज नहीं।

आहार पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का परिशोधन करने के लिए गौमूत्र की महत्ता शास्त्रकारों ने बताई है। इन दिनों जिस प्रकार खाद्य पदार्थ उत्पन्न किये जाते हैं उससे उनकी सात्विकता चली जाती है और ऐसे तत्व मिल जाते हैं उन्हें तामसिक ही कहा जा सकता है। रासायनिक खादों का, सीवर लाइनों की गन्दगी का उपयोग अधिक उपज लेने की दृष्टि से किया जाता है। कीड़े मारने की दवाएँ फसल पर गोदामों में छिड़की जाती हैं। फिर उनको बोने−उगाने वालों के भी अपने संस्कार होते हैं जो खाद्य पदार्थों में मिले होते हैं। फलतः उन पर अदृश्य कुसंस्कारिता छाई रहती है। अध्यात्मवादी का आहार कुसंस्कारिता से रहित होना चाहिए। “जैसा खाये अन्न

वैसा बने मन” के प्रतिपादन में साधक की साधना का प्रथम सात्विक आहार से आरम्भ होता है। सात्विक का अर्थ सुपाच्य ही नहीं सुसंस्कारी भी है।

पकाने,परोसने में भी इस सुसंस्कारिता का समावेश होना चाहिए। वैसी सुविधा न हो तो फिर अपने हाथ पकाना ही उत्तम है। साध स्वपाकी रहे तो दूसरों के द्वारा पकाये आहार की तुलना में इन दिनों इस संदर्भ में अधिक निश्चिन्तता रह सकती है।

चान्द्रायण साधना को सुसंस्कारी “आहार−चिकित्सा” कहा जा सकता है। उसमें न केवल खाद्य पदार्थों के चयन में सुपाच्य सात्विकता का ध्यान रखा जाता है, न केवल मात्रा में आधी कटौती की जाती है वरन् यह भी देखा जाता है कि वह पकाया−परोसा किन हाथों से गया है। इन उद्देश्य की पूर्ति शान्ति−कुँज में ठीक तरह होती है। वन्दनीय माता जी अपने हाथ से साधकों को उपरोक्त आहार देती हैं। प्रज्ञापेय, पंचगव्य, औषधि कल्क, चटनी, हविष्यान्न की रोटी– यह चारों ही चीजें उन्हीं के तत्वावधान में बनती है तथा उन्हीं के संरक्षण में बँटती हैं। इसे प्रकारान्तर से भगवान का प्रसाद या औषधि उपचार की संज्ञा में गिना जा सकता है। जो अपने हाथ पकाते खाते हैं उन्हें भी माताजी के हाथ से प्रज्ञापेय, औषधियों की चटनी एवं हविष्यान्न की एक रोटी मिलती है। इसे आहार नहीं औषधि माना जाता है।

खाद्य पदार्थों को गौमूत्र में परिशोधन की प्रक्रिया, चान्द्रायण की भोजन व्यवस्था का अतिमहत्वपूर्ण अंग है। जौ, तिल, चावल आदि सभी खाद्य पदार्थ गौमूत्र में भिगोकर बोने, उगाने, जमा करने की अवधि में चढ़े हुए कुसंस्कारों से मुक्त किया जाता है।

सफाई करने से लेकर आटा पीसने की, दाल दलिया दलने की आश्रम की अपनी निजी व्यवस्था है। बाजार की तुलना में वह कहीं अधिक महंगी पड़ती है फिर भी प्रबन्ध यही किया जाता है कि भले ही भोजन अन्नाहार को हो पर उस पर सुसंस्कारिता फलाहार से भी कहीं अधिक बढ़ी−चढ़ी हो। चान्द्रायण साधन में गौ सान्निध्य का अत्यधिक माहात्म्य बताया गया है। गौमूत्र सेवन का चर्चा है। इसका प्रतीक रूप में परिपालन किया जाता है। पंचगव्य में गौदुग्ध, गौदधि, गौघृत की प्रमुखता रहती है गौमूत्र की कुछ बूंदें ही सही, पर प्रायश्चित परम्परा के अनुसार समावेश उसका भी आँशिक रूप में रहता है। इसके अतिरिक्त जो भी धान्य साधक इस एक महीने की अवधि में सेवन करते हैं। वह सभी गौमूत्र में भिगोया, भिगोकर गंगाजल से धोया, धोकर सुखाया और सुखाकर आश्रम में ही पीसा गया होता है। बनाने की प्रक्रिया दो ही हैं। या तो माताजी के चौके में बना हो या अपने हाथों पकाया गया हो। बाजारू वस्तुएँ खाने खरीदने पर पूरी रोक है। चटोरेपन से लालायित होकर बाजारू चीजें खरीदना, खाना पुरानी आदत को भले ही रुचिकर लगे पर उससे तपश्चर्या की व्यवस्था बिगड़ती है।

चान्द्रायण के उपवास पक्ष पर विचार करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पेट को खाली रखना ही मात्र उद्देश्य नहीं है। उसका मूलभूत प्रयोजन सात्विक, सुसंस्कारी, चटोरपन रहित आहार अपनाना भी है। पेट पर वजन कितना लदा, कितना हलकापन रखा गया– इस सम्बन्ध में थोड़ी रियायत व्यक्ति और समय की स्थिति को देखते हुए दी गई है। उसे परिस्थितियों की विवशता, लोगों की स्वल्प तितिक्षा क्षमता को ध्यान में रखते हुए ही यह शिशु या लघु चान्द्रायण का उपक्रम अपनाया गया है। इतने पर भी इस आध्यात्मिक प्रयोजन का निमित्त की गई आहार चिकित्सा में सैद्धान्तिक कड़ाई यथावत् कायम रखी गई है। आहर की सात्विकता, सुसंस्कारिता एवं औषधि स्तर की स्थिति हर हालत में कायम रखी ही जानी चाहिए। चटोरपन की अभ्यस्त आदत तथा पेट को ठूँस−ठूँस कर गधे की तरह लादे रहने की विद्रूपता हो हर हालत में रोकी या छोड़ी ही जानी है। इतनी व्रतशीलता अपना लेने पर चान्द्रायण की उपवास प्रक्रिया अक्षुण्ण रखी जा सकेगी। भले ही आहार की मात्रा के सम्बन्ध में कुछ शिथिलता, सुविधा जुड़ी रहे।

आयुर्वेदीय कल्प चिकित्सा में कई फल, शाकों के कल्प का उल्लेख है। खरबूजा, आम, जामुन, पपीता जैसे सस्ते फलों पर 40 दिन रहकर यह कल्प होते हैं। महंगे फलों में अनार, मौसमी आदि के रसों पर ही रहा जाता है। सेव, चीकू भी ऐसे ही उपयोगी फलों में हैं शाकों में टमाटर, तोरी, लौकी भी उस प्रयोजन के लिए उपयोगी होती हैं। दूध, छाछ के कल्पों का भी विधान है। कल्पकाल में कई औषधियों भी सेवन कराई जाती हैं पर आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए कल्पों में एक महीने की अवधि उपरोक्त फलों, शाकों में से किसी एक का चयन करके उसी पर निर्वाह किया जाय तो इससे शरीर−शोधन एवं मानसिक भावनात्मक परिष्कार का भी अतिरिक्त लाभ मिलता है। दूध,छाछ भी साथ−साथ लेते रहने की छूट मिल सकती है।

तुलसी,शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शतावरी, आँवला निर्गण्डी, गिलोय, अश्वगंधा जैसी जड़ी−बूटियों का भी कल्प किया जाता है। इनका रस,क्वाथ,कल्क या अर्क बनाकर पिलाने की प्रक्रिया है। किस−किस औषधि का कल्प कराया जाय। किस रूप में किस मात्रा में उसे दिया जाय वह निर्धारण व्यक्ति विशेष की स्थिति को समझकर उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही किया जा सकता है। साधारणतया रस रूप में उपरोक्त औषधियों को दिन में सौ ग्राम तक दिया जाता है। अंक पिलाना हो तो उस रूप में एक किलो तक औषधियों का सार तत्व पेट में पहुँचाया जा सकता है। औषधि कल्प में फलाहार या शाकाहार ऐसा चुना जाता है जो उन औषधियों का सजातीय हो। चान्द्रायण साधना में मनोबल सम्पन्न साधकों के लिए उनकी स्थिति के अनुरूप अतिरिक्त कल्पों का भी निर्धारण किया जाता है।

चान्द्रायण की अवधि में साधक नित्य गंगाजी जाया करेंगे और अपने पीने के लिए गंगाजल का पात्र भरकर लाया करेंगे। जब भी पीना हो उसी को पिया करेंगे। इस प्रकार गंगा और गौ का सान्निध्य रहने के अतिरिक्त एक अध्याय गीता का सामूहिक पाठ भी हुआ करेगा। गायत्री के 25,000 के तीन अनुष्ठान तो साथ−साथ हैं ही। इस प्रकार गंगा, गौ, गीता और गायत्री के रूप में प्रख्यात अध्यात्म साधना के चारों चरणों को अपनाते रहकर साध का अपनी पवित्रता, प्रखरता एवं प्रगति का पथ प्रशस्त करते रहेंगे।


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