समस्त व्याधियों का निराकरण आध्यात्मिक उपचार से

January 1982

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आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों से उपजने वाली अनेकानेक विपत्तियाँ मनुष्य को संत्रस्त करती रहती हैं। इनके नाम−रूप अनेक होते हुए भी उद्गम एक ही होता है–अन्तःकरण पर कषाय−कल्मषों का आवरण आच्छादन। समुद्र एक है, किन्तु उसमें जीव−जन्तु अनेक आकार−प्रकार के उत्पन्न होते रहते हैं। अन्तराल एक है, किन्तु उसमें सत्प्रवृत्तियों–दुष्प्रवृत्तियों की सुखद−दुःखद सम्भावनाएँ चित्र−विचित्र रूप में प्रकट होती रहती है। उसी क्षेत्र का अवाँछनीय उत्पादन मनुष्य को आधि−व्याधियों से भर देता है और प्रगति के मार्ग पर पग−पग पर अवरोध उत्पन्न करता है।

बहुत समय पहले शारीरिक रोगों की बाहरी भूत−पलीतों का आक्रमण माना जाता था। पीछे वात, पित्त, कफ का ऋतु प्रभाव का कारण उन्हें माना गया। उसके बाद रोग के कीटाणुओं की बात समझी गई। रोगों की शोधों में अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती है और उस विष से रोग उत्पन्न होते हैं। यह क्रम अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने का–अधिक बुद्धिमत्ता का–स्थूल से सूक्ष्म में उतरने का है। इस प्रगतिक्रम में उतरते−उतरते इन दिनों आरोग्य शास्त्र के मूर्धन्य क्षेत्र में इस तथ्य को खोज निकाला गया है कि शारीरिक रोगों के संदर्भ में आहार−विहार, विषाणु आदि को तो बहुत ही स्वल्प मात्रा में दोषी ठहराया जा सकता है। रुग्णता का असली कारण व्यक्ति की मनःस्थिति है। मनोविकारों की विषाक्तता यदि मस्तिष्क पर छाई रहे तो उसका अनुपयुक्त प्रभाव नाड़ी संस्थान के माध्यम से समूचे शरीर पर पड़ेगा। फलतः दुर्बलता और रुग्णता का कुचक्र बढ़ते−बढ़ते अकाल मृत्यु तक का संकट खड़ा कर देगा। नये अनुसंधान जीवनी शक्ति का केन्द्र हृदय को नहीं मस्तिष्क को मानते हैं। रक्त की न्यूनाधिकता या विषाक्तता को रुग्णता का उतना बड़ा कारण नहीं माना जाता जितना कि मानसिक अवसाद एवं आवेश को।

इन शोध प्रयासों में नये−नये तथ्य सामने आये हैं। उनसे पता चलता है कि शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन ही काम करता है। अचेतन मन की छत्र−छाया रक्ताभिषरण, आकुंचन−प्रकुँचन, निद्रा−जागृति आदि की अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएँ चलती रहती हैं। चेतन मन के द्वारा बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले क्रिया−कलापों और लोक−व्यवहारों का ताना−बाना बुना जाता है। शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूरी तरह अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनःसंस्थान के नियन्त्रण में रहती है, उसी के आदेशों का पालन करती है। शरीर का पूरा−पूरा आधिपत्य मन−मस्तिष्क के ही हाथों में रहता है। उस क्षेत्र की जैसी भी कुछ स्थिति होती है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यदि मस्तिष्क आवेशग्रस्त होगा तो शरीर के अवयवों में उत्तेजना और बेचैनी छाई रहेगी। इस स्थिति में ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जिनसे शरीर के उत्तेजित होने, गरम होने फटने−फूटने जैसे अनुभव होने लगेंगे। यदि मस्तिष्क उदास−हताश शिथिल हो जायेगा तो उस अवसाद का प्रभाव अंग−अवयवों की दुर्बलता के रूप में देखा जा सकेगा।

यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग अमुक मनोविकार के फलस्वरूप होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाय। इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे−दरवाजे पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। नित नयी दवाएँ बदलनी पड़ती हैं। किन्तु आशा−निराशा के झूले में झूलते हुए समय भर बीतता रहता है। रोग हटने का नाम ही नहीं लेते। तेज औषधियाँ अधिक−से−अधिक इतना कर पाती हैं कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा−बहुत फेर−बदल प्रस्तुत कर दें। जीर्ण रोगियों में से अधिकाँश का इतिहास यही है।

शरीर शास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आरोग्य और रुग्णता की कुँजी मनःक्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असन्तुलन और प्रदूषण का निराकरण किये बिना किसी को भी स्वस्थ शरीर का आनन्द नहीं मिल सकता। जीवनी शक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश−पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे हैं। टॉनिकों, हारमोनों, ग्रन्थि आरोपणों जैसे प्रयोग−परीक्षणों की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर कोटाधीश, शासनाध्यक्ष एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निर्णय निकला है कि जीवनी शक्ति कोई शरीरगत स्वतन्त्र क्षमता नहीं है वरन् जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनीशक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार−चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती−बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुन्दरता और कान्ति तक मानसिक स्थिति पर अवलम्बित है। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकृति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकार जड़ जमा लें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फँस ही गया और उस दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात भी नहीं रह गयी है।

शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए उनकी जानकारी भी सहज ही मिल जाती है और दवादारु से इनका इलाज होने के भी साधन मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों के लिए प्रायः विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के ऐसे लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम−काज चला सकने में असमर्थ हो गये हों, जिनका शरीर−निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और लटपटाने लगा हो जो अपने लिए और साथी−सम्बन्धियों के लिए भार बन गये हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ की संख्या अपने ही देश में छूने लगी है। यह विज्ञात विक्षिप्त हैं। ऐसे लोगों की संख्या का तो कोई ठिकाना नहीं जो रोजी−रोटी तो कमा लेते हैं और खाते−सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिन्तन विचित्र और विलक्षण होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते है और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने आशंकाओं, सन्देहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन आदि तक के सामान्य कार्यो पर अकारण सन्देह बना रहता है। सम्बन्धी और पड़ौसी को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए दीखते हैं। दुर्भाग्य और ग्रह−नक्षत्रों के प्रकोप से कितने ही हर घड़ी काँपते रहते हैं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता हुआ अनुभव करते रहते हैं। शेख चिल्लियों के से मनसूबे बाँधते रहने वाले, सम्भव−असम्भव का विचार किये बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाये बैठे रहते हैं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैं। परिस्थिति का मूल्याँकन कर सकना, दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं होता। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क −वितर्क का आश्रय लिये बिना लगाम के घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैं। जो सोचा जा रहा है उसका आधार क्या है और उस सनक पर चढ़े रहने का अन्तिम परिणाम क्या निकलेगा–इतना समझ पाना उनके क्षत−विक्षत मस्तिष्क के लिए सम्भव ही नहीं होता। अकारण मुँह लटकाये बैठे रहने वाले, जिस−तिस पर दोषारोपण करने वाले बेचारे, दुर्भाग्य की कुरूप तस्वीरें गढ़ने में उन्हें तनिक भी देर नहीं लगती। दुनिया को निस्सार बताने वाले, आत्महत्या की बात सोचते रहने वालों की संख्या अपने ही इर्द−गिर्द ढेरों मिल सकती है। हँसी−खुशी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कहीं−न−कहीं से मुसीबत की कल्पना ढूंढ़ लाते हैं और स्वयं दुःख पाते, साथियों को दुःख देते एवं जिन्दगी की लाश ढोते रहते हैं। यह सनक कभी−कभी आक्रामक जब हो उठती है तो जो भी उनके चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग−पग पर झलकती रहती है। ठगों के आये दिन शिकार होते रहते हैं। आयु बड़ी हो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। किसी महत्वपूर्ण प्रसंग में उनका परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्य−पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे−तैसे समय गुजारते हुए, ज्यों−त्यों करके ही जिन्दगी के दिन पूरे कर लेते हैं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति में भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।

विक्षिप्त−अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट सनकी लोगों से प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। मूढ़−मान्यताओं, कुरीतियों−अन्धविश्वासों से जकड़े हुए लोगों में तर्क शक्ति एवं विवेक बुद्धि का अभाव रहता है। उनके लिए अभ्यस्त ढर्रा ही सब कुछ होता है। उस लक्ष्मण−रेखा से बाहर निकलने में उन्हें भय लगता है। स्वतन्त्र चिन्तन का प्रकाश उनकी आँखें चौंधिया देता हैं और औचित्य को समझने, स्वीकार करने जैसा साहस उनके जुटाये जुट ही नहीं पाता। इस वर्ग के लोगों को मानसिक दृष्टि से अविकसित नर−पशुओं की ही श्रेणी में रखा जा सकता है।

शरीर से असमर्थों, दुर्बलों और रुग्णों की ही तरह मानसिक पिछड़ेपन और विकार−ग्रस्तता के दलदल में धँसे हुए लोगों का ही बाहुल्य अपने समाज में दृष्टिगोचर होता है। यह विक्षिप्तता भी एक प्रकार की बीमारी ही है जिसमें प्राणियों को तिरस्कार, असन्तोष, अभाव एवं चित्र−विचित्र प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं।

शारीरिक व्याधियाँ और मानसिक आधियां जिसे घेरे हुए हैं उस विकृत मस्तिष्क और अस्वस्थ शरीर के द्वारा न कुछ उपयुक्त सोचते बन पड़ेगा और न उचित कर सकना सम्भव होगा। अतएव अपनी अटपटी, कानी−कुबड़ी गतिविधियाँ किसी महत्वपूर्ण सफलता तक पहुँचने ही न देंगी। सम्बन्धित व्यक्ति उस बेतुके व्यक्ति से खिंचते−खीजते रहेंगे। फलतः सच्चे सहयोग से भी प्रायः वंचित ही रहना पड़ेगा। मतभेद बढ़ते−बढ़ते शत्रुता और विग्रह तक जा पहुँचते हैं और आक्रमण−प्रत्याक्रमण के कुचक्र में ऐसे व्यक्ति को भारी घाटा उठाना पड़ता है। प्रगति−पथ तो प्रायः अवरुद्ध ही बना रहता है। यह नई विपत्ति शारीरिक और मानसिक रुग्णता की ही देन है। दो रंगों के मिलने से तीसरा एक और नया रंग प्रकट हो जाता है। आधि और व्याधिग्रस्तों को अवरोध और असफलता का तीसरा संकट अतिरिक्त रूप से सहन करना पड़ता है।

इतना सब जान लेने के उपरान्त एक ही निश्चय निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि चेतन की मूल सत्ता अन्तःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली−बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी है। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहीं से विपत्तियों के जाल गिराने वाली दुःखद सम्भावनाएँ विनिर्मित होती हैं। इस मूल केन्द्र का परिशोधन करना ही एक प्रकार से आन्तरिक काया−कल्प जैसा प्रयास है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित प्रारब्धों का निराकरण करने के लिए आन्तरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि विष वृक्ष की जड़ काटने से ही काम चलेगा, पत्तियाँ तोड़ने से नहीं।

अन्तराल के परिशोधन में उथले उपाय कारगर नहीं होते। उसके लिए आध्यात्मिक चिकित्सा ही एकमात्र अवलम्बन है। इसमें न केवल विपन्नताओं के निराकरण की सामर्थ्य है, वरन् प्रसुप्त श्रेष्ठता को उगाने, उठाने, उभारने जैसी विशेषताएँ भी विद्यमान हैं। इतना ही नहीं उस आधार को अपनाने से जीवन के परमलक्ष्य की पूर्णता की उपलब्धि एवं ईश्वर प्राप्ति के महान प्रयोजन को प्राप्त करने का भी पथ−प्रशस्त होता है।

आध्यात्मिक क्षेत्र की चिकित्सा परिचर्या एवं बलिष्ठता अभिवृद्धि की दृष्टि से चान्द्रायण कल्प साधना की असाधारण  उपचार पद्धति सिद्धि हो सकती है।


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