उत्थान-पतन का आधार आकाँक्षाओं का परिष्कार

January 1982

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मनुष्य के विषय में यदि उसकी आकृति, योग्यता और सम्पदा से आगे बढ़कर देखना, खोजना हो तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि जो जैसा सोचता वह वैसा ही बन जाता है। गीता ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है–”यो यच्छ्रद्धः स एवस” जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही बन जाता है। श्रद्धा अर्थात् आकाँक्षा, और मान्यता का समुच्चय। मस्तिष्क सोचने में स्वतन्त्र नहीं है और न शरीर अपनी मर्जी से कुछ करता है। अन्तराल की उमगे ही उसे इधर से उधर लिये फिरती हैं। उसी प्रेरणा के अनुरूप मस्तिष्क को सोचना और शरीर को करना पड़ता है। अस्तु व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य वस्तुतः उसकी इच्छा आकाँक्षा पर पूरी तरह अवलम्बित समझा जा सकता है।

महत्व साधन सम्पदा का भी है और परिस्थितियाँ भी मनुष्य को प्रभावित करती हैं। इतने पर भी यह मान कर चलना होगा कि उनका महत्व सीमित है। साधनों के सहारे की गई प्रगति उनके हटते ही सदा के लिए समाप्त हो जाती है। परिस्थितियाँ भी बदलती उलटती रहती हैं। आज अनुकूलता कल प्रतिकूलता। यदि उन्हीं पर प्रगति निर्भर हो तो मनुष्य को सर्वथा पराधीन ही मानना होगा।

व्यक्ति की निजी सम्पदा उसके अन्तराल में छिपी रहती है जो आकाँक्षा बन कर उभरती-उछलती है। वही अपने प्रचण्ड चुम्बकत्व से ज्ञान सम्पदा परिस्थितियों की अनुकूलता जैसे अनेक साधन अनायास ही इकट्ठे कर लेता है और मनुष्य वहाँ जा पहुँचता है जहाँ उसकी आरम्भिक क्षमता और परिस्थिति को देखते हुए यह कल्पना भी कर सकना कठिन था कि क्या इतनी दूरी तक बढ़ा और इतनी ऊँचाई तक उठा जा सकता है।

समझा यह जाता है कि आकांक्षाएं अनायास ही उठती हैं, पर वास्तविकता वैसी है नहीं। संचित पशु−प्रवृत्ति के संस्कार मनुष्य पर रहते अवश्य हैं और गुरुत्वाकर्षण की तरह नीचे की दिशा में गिराते भी हैं। इतने पर भी यदि अन्यान्य उपलब्धियों की तरह आकाँक्षा क्षेत्र को परिष्कृत करने का प्रयत्न भावनापूर्वक किया जाय तो दृष्टिकोण एवं रुझान को अधोगामी अभ्यासों से छुड़ाकर उत्कृष्टता के साथ नियोजित कर सकना भी सम्भव हो सकता है। आकाँक्षा ही व्यक्ति को बनाती है। उठाने और गिराने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व उसी पर रहता है।

इच्छाओं को पूर्ण करने एवं अभीष्ट साधन जुटाने में मन की कल्पना और बुद्धि की निर्धारण संयुक्त रूप से महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करती है किन्तु रुझान, चिन्तन एवं प्रयास को दिशा देने में अन्तःकरण ही मार्ग दर्शक होता है। अन्तःकरण को यों कई भागों में बाँटा जाता रहा है, पर उसे संक्षेप में अचेतन की यह परत कह सकते हैं, जिसमें स्वभाव, एवं अभ्यास कहा जा सकता है। यह आदतें इतनी प्रबल होती हैं कि उसके सामने न बुद्धि के निर्णय ठहरते हैं और न परिस्थितियों के दबाव। इसलिए मानवी सत्ता का सबसे प्रबल पक्ष यह अचेतन या अन्तःकरण ही माना जाता रहा है।

मनोविज्ञानी अचेतन की उसी परत का विवेचन विश्लेषण करते रहे हैं, जो बहुसंख्यक पिछड़े वर्ग के साथ जुड़ी होती है। मूल प्रवृत्तियों के नाम से उनने उसी ढर्रे का विश्लेषण किया है जो पशु स्तर से मिलते-जुलते पिछड़ेपन से ग्रसित क्षुद्र जनों में पाया जाता है। यह प्रायः स्व केन्द्रित ही होता है और क्षुद्र प्रयोजन में उलझा उन्हीं का ताना-बाना बुनता रहता है।

अचेतन की उच्चस्तरीय परत वह है जिसे समष्टिगत कह सकते हैं। इसे सामाजिकता, नीतिमत्ता, देशभक्ति उदारता एवं संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यह सचेतन निखिल ब्रह्माण्ड में विश्वचेतना की तरह संव्याप्त है। उसे ‘ईथर’ तत्व के समतुल्य समझा जा सकता है। इसकी प्रेरणा है कि व्यक्ति गत अचेतन को सचेतन का सहयोगी एवं अनुचर बनकर रहना चाहिए।

अदूरदर्शी अचेतन कुछ और ही तरह सोचता है उसकी इच्छा एवं हठवादिता यह है कि समष्टि को उसके ‘स्व’ की वर्चस्व मानना चाहिए और अपने नियम निर्धारण छोड़कर उसी की इच्छा पूर्ति में सारा प्रवाह एवं ढाँचा बदल देना चाहिए। विग्रह इसी बात का है। अन्तर्द्वन्द्वों का समाधान इस विग्रह के कारण खड़ा होता है और उस कलह में चेतना तन्त्र की किंकर्तव्य विमूढ ही नहीं विक्षिप्तों की तरह ऐसे मार्ग अपनाने पड़ते हैं जिस पर अवरोध एवं अधःपतन के काँटे ही काँटे बिछे पड़े है।

विकास क्रम पर चलते हुए अचेतन की क्षुद्रता सचेतन की महानता को स्वीकार शिरोधार्य करने लगती है। अनगढ़ बचपन ही बच्चों को स्वेच्छाचारी बनाये रहता है वे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, आत्मानुशासन और सामाजिक अनुशासन के परिपालन में स्वेच्छापूर्वक श्रद्धा बढ़ाते चलते हैं। तब स्वार्थ और परमार्थ में अन्तर नहीं रहता, और सदुद्देश्यों के परिपालन में भी उतना ही रस मिलता है जितना कि स्वार्थ साधन में। निजी सफलताओं और सुविधाओं के लिए जितनी आतुरता अविकसित स्थिति में पाई जाती है। चेतना का विकास विस्तार होते-होते उतना ही सन्तोष एवं आनन्द समष्टि सेवा की गतिविधियाँ अपनाने पर भी मिलता और क्रमशः बढ़ता चला जाता है। यही है क्षुद्रता से महानता की ओर बढ़ चलने का प्रगतिक्रम।

शरीरगत इच्छाओं और आत्मिक आकाँक्षाओं का अन्तर समझा जाना चाहिए। इच्छाएँ कठिनाइयों के निराकरण एवं सुविधा संवर्धन को लक्ष्य कर उठता है, उनमें वैभव और वर्चस्व ही प्रधान होता है। किन्तु आकाँक्षाओं की उमंगे अपने स्तर के अनुरूप ही सोचती और सफलता का मूल्याँकन करती है। उसकी तुष्टि एवं प्रसन्नता इनसे उथले लाभ पर आधारित नहीं तो सकती। छोटे बच्चों के लिए खिलौने ही सब कुछ हो सकते हैं, पर बड़ों का समाधान इन छोटी उपलब्धियों से हो सकना सम्भव नहीं। ललक और लिप्साएँ एक स्तर के लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकती हैं, पर इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जो इससे कुछ ऊँची वस्तु खोजते हैं।

सम्पन्नता कुछ लोगों के लिए ही सब कुछ हो सकती है। बड़प्पन या वैभव जिन लोगों को आकर्षित किये रहता है, उतने ही इस संसार में नहीं रहते। जो प्रदर्शन से दूसरों को प्रभावित करने पर विश्वास करते हैं ऐसे लोग हैं तो बहुत पर इन्हीं का आधिपत्य समूचे विचार क्षेत्र पर प्रचलन पर नहीं है। जो लोग महानता को महत्व देते और उसकी उपलब्धि में गौरव अनुभव करते हैं ऐसे लोग संख्या में भले ही कम हों, पर अभ्युदय के सुविस्तृत एवं सुनिश्चित बनाने में उन्हीं का प्रमुख हाथ रहता है।

वैभव भी आकर्षण का केन्द्र और इच्छाओं के प्रवाहित होने का एक सर्वविदित और बहु प्रचलित मार्ग है। इतने पर भी सब लोग उतने से सन्तुष्ट नहीं हो सकते विकसित व्यक्तित्व को भूख होती है–महानता उपलब्धि वे ‘मैन’ न रहकर ‘सुपरमैन बनाना चाहते हैं। परिपुष्ट व्यक्तित्व की आवश्यकता एवं आकाँक्षा यही रहती है कि वे सम्पन्नता में नहीं–शालीनता में अन्य असंख्यों से ऊँचे उठेंगे और अपने पराक्रम का इस रूप में परिचय देंगे कि लोक प्रचलन से ऊँचे उठकर उनके आदर्शों का मार्ग चुने और अवरोधों, व्यंग–उपहासों एवं आदर्शों का मार्ग चुने और अवरोधों, व्यंग उपहासों एवं अभावों को सहन करते हुए भी उस संकल्प को निष्ठापूर्वक निभाया। इच्छाएँ मनुष्य को भटकाती रहती हैं, आतुर हो उठें तो गिरा भी सकती हैं, किन्तु आकाँक्षाएँ सदा उच्चस्तरीय ताने-बाने बुनती हैं और असफल रहने पर भी ऐसे गर्व गौरव का अनुभव करती हैं कि वे टूट गये किन्तु अनौचित्य के सामने झुके नहीं।

आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्राथमिक तैयारी यह करनी होती है कि बड़प्पन की महत्वाकाँक्षा घटाएँ और सादगी की निर्वाह पद्धति अपनायें। जिनकी इच्छाएँ, आवश्यकताएँ बढ़ी-चढ़ी हैं, उन्हें उसके लिए साधन जुटाने में अत्यधिक व्यस्त रहना पड़ता। इच्छाओं की तीव्रता कईबार आतुरता के स्तर तक जा पहुँचती हैं और कम समय में अधिक पाने की पगडंडी खोजते-खोजते अनीति के झाड़-झंखाड़ों में जा फँसती हैं। ऐसा न हो तो भी अभिलाषाएँ चिन्तन क्षेत्र को इतना खाली नहीं छोड़ती कि वहाँ आदर्शवादी जीवन पद्धति पर विचार कर सकना और वैसा वातावरण बनाने के जिए ठोस कदम उठा सकना सम्भव हो सके।

श्रेष्ठ जीवन का निर्माण भी किसी बड़े कृषि फर्म व्यवसाय शासन संचालन एवं सैन्य शिक्षण की तरह समूचे मनोयोग की अपेक्षा करता है। चुटकी बजाते संग्रहित आदतों से छुटकारा पाना और देव-संस्कृति के ढाँचे में आपे को ढालना भी श्रम साध्य और समय साध्य है। इसके लिए चिन्तन तन्त्र को गम्भीरतापूर्वक सोचने एवं आत्मनिर्माण के सरंजाम इकट्ठे करने का अवकाश चाहिए। न केवल चिन्तन वरन् प्रयास परिश्रम की दृष्टि से भी बहुत कुछ करना होता है। इसकी सुविधा उन्हें ही मिल सकती हैं; जिनने अपनी बड़प्पन परक आकाँक्षाओं को सीमित करके, निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करते रहना ही पर्याप्त माना है। अमीरी और गरिमा को एक साथ प्राप्त कर सकना कदाचित ही कभी किसी के लिए सम्भव हुआ है।

मनुष्य की सामर्थ्य सीमित है वह एक निश्चित दिशा में ही अनवरत गति से चल सकती है। दो विपरीत में ही अनवरत गति से चल सकती है। दो विपरीत मार्गों पर एक साथ चल सकना भला किस प्रकार सम्भव हो सकता है? महत्वाकाँक्षाएँ यदि समृद्धि सम्पादन के लिए गगनचुम्बी बनी हुई हैं तो मनःतन्त्र का महत्वपूर्ण अंश उसी का ताना-बाना बुनेगा, फिर उसे आदर्शवादी निर्धारणाओं में उतनी रुचि रहेंगी न तत्परता, जितनी कि महानता के साधन जुटाने के लिए आवश्यक है। उथले प्रयासों के परिणाम भी उथले ही होते हैं। शौकिया स्तर की महानता सदा दिवास्वप्न ही बनी रहेगी। साधन न जुटे तो सफलता कैसी? मनोयोग की प्रखरता उत्पन्न हुए भी साधन और सहयोग का अभीष्ट परिणाम में मिल सकना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?

सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त अक्षरशः सत्य है। महामानवों को अपनी आवश्यकताएँ घटानी और वैभवपरक महत्वाकाँक्षाएँ दबानी पड़ती हैं। मनोयोग एवं पुरुषार्थ की इस प्रकार की गई बचत ही महानता खरीदने के काम आती हैं।

आदतें हठीली होती हैं पर वे भी परिस्थितियाँ बदल जाने पर छूटती और नई ढलती रहती हैं। ठीक इसी प्रकार आकाँक्षा भी शाश्वत नहीं है वे समीपवर्ती लोगों के प्रभाव तथा मन मस्तिष्क को चिन्तन की सामग्री देने से बदलती रहती है। महत्वाकाँक्षाओं को आवश्यक, उपयोगी एवं शक्ति शाली माना गया है, पर यह बात तभी सच बैठती है जब उन्हें आदर्शवादिता के साथ नियोजित किया जाय। निष्कृष्टता के साथ जुड़ जाने पर भी पतन और पराभव का ही पथ-प्रशस्त करती हैं।


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