कर्मफल की सुनिश्चितता और प्रायश्चित्त की आवश्यकता

January 1982

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कर्म फल ऐसी सचाई है जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार ही करना होगा। यह समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की श्रृंखला से जकड़ी हुई है। किया की प्रतिक्रिया का नियम कण−कण पर लागू होता है और उसकी परिणति का प्रत्यक्ष दर्शन पग−पग पर होता है।

भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चलता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य सम्पदा जीवन में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता बनकर सामने आती है। जीवन का सदुपयोग दुरुपयोग−बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने−देर तक जीने या जल्दी मरने के रूप में परिणति होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती है और पुनर्जन्म का रूप में अपनी परिणित प्रकट करती है।

यही प्रक्रिया संसार की समस्त गतिविधियों में दृष्टिगोचर होती है। जीवन के हर क्षेत्र में अपने प्रभाव का परिचय देती है। आज की परिस्थितियों के सम्बन्ध में पिछले आलस्य या उत्साह को श्रेय दिया जा सकता है। सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे देर−सबेर में अपनी परिणति प्रस्तुत किए बिना रहते ही नहीं। वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसमें पिछले कृत्यों की ही प्रधान भूमिका रहती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते है, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योग−शाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्यपरिणाम सर्वविदित है, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया गया था। कुछ काम अवश्य ऐसे होते है, जो हाथों−हाथ फल देते है। मदिरा नशा हो जाता है भूसा दिन−भर परिश्रम करते ही शाम को मजदूरी मिलती है। टिकट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेकों काम है, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे है, जो देर लगा लेते है। असंयमी लोग जवानी में खोखले बनते रहते है, उस समय कुछ पता नहीं चलता। दस−बीस वर्ष बीतने नहीं पाते कि काया की जर्जरता अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय−साध्य परिणतियों को देखकर अनेकों को कर्म−फल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों−हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित  भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते और बुरे काम करने वाले अधिक निर्भय−निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान् ने मनुष्य की दूरदर्शिता –विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूँठ बोलते ही मुँह में छाले भर जांय। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुँसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों−हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय। उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजाइश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचाने और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें भी धैर्यपूर्वक सहन करे।

कर्म फलित होने में देर लगाते हैं। हथेली पर सरसों उगाई जा सकती है। जौ बोने से दस दिन में ही उनके अंकुर छः इंच ऊँचे उग आते हैं। किन्तु जिनका जीवन लम्बा हो, जो चिरस्थायी हैं, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। नारियल की गुठलर बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षा में धीरे−धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष ही देर लगाता है। जब कि अरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपर बहुत दिन में पूरा करते हैं, जबकि खरगोश जैसे छोटे प्राणी एक वर्ष में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत ही जल्दी आता है पर वे मरते भी उतने ही जल्दी है। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार−विहार का, व्यवहार शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों−हाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धियाँ सामयिक होती है, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव−सम्वेदनाएँ और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं। जड़े अन्तरंग की गहराई में धँसी रहती है, इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते है। इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म−जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है।

अन्तःकरण की संरचना दैवी−तत्वों से हुई है। उसमें स्नेह−सौजन्य−सद्भाव−सच्चाई जैसी सत्प्रवृत्तियाँ ही भरी पड़ी है। जीवन−यापन की रीति−नीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र में अनायास ही मिलती रहती है।

इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती है, तो उसकी प्रतिक्रिया असहज होती है। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते है, तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने के लिए प्राण−पण से संघर्ष छेड़ते हैं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्त करण की दैवी चेतना की आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीवन सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके बने रहते आन्तरिक जीवन उद्विग्न–अशान्त ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रियाएँ फूट−फूटकर बाहर आती रहती है।

दो साँड लड़ते हैं, तो लड़ाई की जगह को तहस−नहस करके रख देते है। खेत में लड़े तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियाँ जब भी जहाँ भी अवसर पाती है, वहीं घुसपैठ करने, जड़−जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखली करती है और चिनगारी की तरह चुप−चुप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती है। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ आत्म−सत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती है, किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं, अस्तु वह विरोध पर अड़ी ही रहती हैं। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है और उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक−सन्तापों के रूप में सामने आते रहते है।

मनोविज्ञानी इस स्थिति को ‘दो व्यक्तित्व’ कहते है। एक ही शरीर में भले−बुरे व्यक्तित्व शान्ति−सहयोग पूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते बिल्ली की–साँप नेवले की–दोस्ती कैसे निभे? शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो कैसी दुर्दशा होती है, इसे सभी जानते हैं। नशेबाजी की दयनीय स्थिित देखते ही बनती है। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही है, जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

आत्मा को कितना ही कुचला जाय वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी–उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर काँपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय, उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियाँ उस घुस−पैठ से अपना पैर वापस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शान्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैं। प्रगति पथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अंधकारमय बनाते है। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक−संविधान की सामान्य क्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था के और भी ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार से भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है। राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोक−थाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग अक्सर उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक, मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते है।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक ‘व्याधि’ और मानसिक ‘आधि’ उन्हें घेरती है और तिल−तिल करके रेतने, काटने जैसा कष्ट देती है। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियन्त्रण में आकुँचन−प्रकुँचन, निमेष−उन्मेष, श्वास−प्रश्वास, रक्त −संचार, ग्रहण−विसर्जन आदि अनेकों स्वसंचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती है। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती है। शरीर तभी तक जीवित है जब तक उसमें चेतना का अस्तित्व है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केंद्र संस्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया−कलापों का अनुभव करते हैं। यह संस्थान−मनोविकारों से–पाप−ताप एवं कषाय−कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर भी पड़ता है और मानसिक सन्तुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों की नित नई शोध होती है और उनके लिए आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती है। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे है और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का कोई उपयुक्त समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती तो है, पर दूसरे ही क्षण रोग अपना रूप बदलकर नई आकृति में फिर सामने आ खड़े होते है। यह स्थिति तब तक बनी ही रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। शिर दर्द, आधाशीशी, जुकाम अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग है। चिन्ता, भय, निराश आशंका, आत्म−हीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण जैसे आवेश मनःसंस्थान को ज्वार−भाटों की तरह की तरह असन्तुलित बनाये रहते हैं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग निरर्थक चला जाता है एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म−हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएँ विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो है। तरह−तरह की सनकों से कितने ही लोग समकते रहते हैं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते है। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना तथा अपने साथियों का कितना अहित करते हैं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ ही रही हैं। मनोविकार ग्रसित, अर्ध विक्षिप्त लोगों की गणना की जाय तो आधी से अधिक जनसंख्या इसी चपेट में आई हुई दिखाई पड़ेगी। शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति बहुत ही स्वल्प संख्या में मिलेंगे। जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त पूर्ण निरोग कहा जा सके, ऐसे लोगों को ढूँढ़ निकालना इन दिनों अतीव कठिन है।

रंगाई से पूर्व धुलाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला−कुचैला हैं, तो उस पर रंग ठीक तरह न चढ़ेगा। इस प्रयास में परिश्रम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरान्त उसकी रँगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए–उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए, जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग−पग पर कठिनाई उत्पन्न करते है। दीवार बीच में हो तो उसके पीछे बैठा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय−कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।

उपासना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्म−शोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित्त−विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर−शोधन के लिए नेति–धोति, वस्ति, न्योलि, कपाल–भाति क्रियाएँ करने का विधान है। राजयोग में यह शोधन कार्य यम−नियमों के रूप में करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका−चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई करली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण−कर्म स्वभाव को सुधारा जाय और पिछले जमा कूड़े−करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के काया−कल्प विधान में वमन−विरेचन, स्वेदन, स्नेह आदि कृत्यों द्वारा पहले मल−शोधन किया जाता है तब उपचार आरम्भ होता है। आत्म−साधना के सम्बन्ध में भी आत्म−शोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

आज की अपनी दुःखद परिस्थितियों के लिए भूतकाल की भूलों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। इसी प्रकार सुखी−समुन्नत होने के सम्बन्ध में भी पिछले प्रयासों को श्रेय दिया जा सकता है। इस पर्यवेक्षण का सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि अशुभ विगत को धैर्यपूर्वक सहन करें या फिर उसका प्रायश्चित करके परिशोधन की बात सोचें। शुभ पूर्वकृतों पर सन्तोष अनुभव करें और उस सत्प्रवृत्ति को आगे बढ़ायें। यह नीति-निर्धारण की बात हुई। अब देखना यह है कि यदि आधि-व्याधियों के रूप में अशुभ कर्मों की काली छाया सिर पर घिर गई है, तो उसके निवारण का कोई उपाय है क्या?

जो कर्मफल पर विश्वास न करते हों, उन्हें भी मानवी अन्तःकरण की संरचना पर ध्यान देना चाहिए और समझना चाहिए कि वहाँ किसी के साथ कोई पक्ष-पात नहीं। पूजा-प्रार्थना से भी दुष्कर्मों का प्रतिफल टलने वाला नहीं। देव दर्शन तीर्थ-स्नान आदि से इतना ही हो सकता है कि भावनाएँ बदलें। भविष्य के दुष्कृतों की रोक-थाम बन पड़े। अधिक बिगड़ने वाले भविष्य की सम्भावना रुके। पर जो किया जा चुका, उसका प्रतिफल सामने आना ही है। उसका उपचार शास्त्रीय परम्परा और मनःसंस्थान की संरचना को देखते हुए, इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि खोदी हुई खाई को पाटा जाय। प्रायश्चित्त के लिए भी वैसा ही साहस जुटाया जाय, जैसाकि दुष्कर्म करते समय मर्यादा उल्लंघन के लिए अपनाया गया था। यही एक मात्र उपचार है, जिससे दुष्कर्मों के उन दुःखद प्रतिक्रियाओं का समाधान हो सकता है, जो शारीरिक रोगों, मानसिक विक्षोभों, विग्रहों, विपत्तियों, प्रतिकूलताओं के रूप में सामने उपस्थित होकर जीवन को दूभर बनाये दे रही है। यह विषाक्तता लदी ही रही, तो भविष्य के अन्धकारमय होने की भी आशंका है। अस्तु प्रायश्चित्त प्रक्रिया को अपनाकर वर्तमान और भविष्य को सुखद बनाना ही दूरदर्शिता है।


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