तपश्चर्या सरल भी, सत्परिणामदायक भी

January 1982

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तपश्चर्या के चमत्कारी प्रतिफलों का अध्यात्म शक्ति में विशद वर्णन विवेचन किया गया है। उच्चस्तरीय तपश्चर्या में अधिक कठिन एवं कठोर तितिक्षाओं का भी समावेश है किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इससे कम के उपचार है ही नहीं। बड़े स्तर के प्रयास बड़े परिणाम उत्पन्न करते हैं तो छोटों के छोटे तो हो ही सकते हैं। चढ़ना तो हाथी पर, नहीं तो घोड़े का उपयोग ही न करने वाली नीति सही नहीं है। सर्वोपयोगी सर्वसुलभ मार्ग अपनाकर व्यापक सत्परिणाम उत्पन्न करना–कुछ लोगों के विशेषज्ञ बनने की अपेक्षा कहीं अच्छा है। कुछ लोगों को पहलवान, विद्वान पर धन केन्द्रित रहे इसकी तुलना में यह अधिक उपयुक्त है कि अधिक स्वस्थ बनाने की बात को प्रमुखता दी जाय।

सामान्य जीवन क्रम में संयम साधना को तपश्चर्या कहते हैं। उसके चार स्तर हैं (1) इंद्रिय संयम (2)अर्थ संयम (3) समय संयम (4) विचार संयम। अनगढ़, उच्छृंखल लोग स्वेच्छाचारियों की तरह जीवनयापन करते हैं। किन्तु जिन्हें भावना उत्कृष्टता की अवधारणा अभीष्ट है, वे चौरासी लाख योनियों के संचित कुसंस्कारों को निरस्त करने और दैवी विशेषताओं को अभ्यास में उतारने के लिए दुस्साहसों जैसे प्रबल प्रयत्न करते हैं। यही तपश्चर्या का सार संक्षेप।

(1) इन्द्रिय संयम–इन्द्रिय संयम में सर्वप्रथम जिह्वा पर नियंत्रण करना पड़ता है। वह स्वाद की प्रधानता देकर ऐसे पदार्थ खाती रहती है जो अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। स्वाद में मात्रा बढ़ती है। फलतः पेट खराब होता है और असंख्यों रोग उठ खड़े होते हैं। “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली उक्ति की सार्थकता अध्यात्म क्षेत्र वे हर अभ्यासी को विदित होगी अथवा जाननी चाहिए। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सही सन्तुलित रखने के लिए औषधि उपचार से भी अधिक आहार चिकित्सा की आवश्यकता है उपवास को प्रतीक मानकर इन्द्रिय संयम के प्रथम चरण की तरह उसे अपनाया जाता है। साथ ही कटु, असत्य, पतनोन्मुख वचन बोलने से भी जिह्वा को रोका जाता है। इसके लिए मौन व्रत का अभ्यास भी स्वाद जप की तरह ही करना होता है।

जैसा खाये अन्न वैसा बने मन की उक्ति सर्वविदित है। आहार से रक्त माँस ही नहीं विचार संस्थान एवं अन्तःकरण भी प्रभावित होता है। चित्त की चंचलता, मनोविकार एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे कषाय–कल्मषों को उभारने–अनीति की ओर अग्रसर करने में अनुपयुक्त आहार की प्रधान भूमिका रहती है। इसके विपरीत यदि सात्विक सुसंस्कृत अन्न औषधि रूप में लिया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया मानसिक एवं आध्यात्मिक चिकित्सा की तरह अनेकों आधि−व्याधियों का निराकरण करती हैं।

ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच और कामेंद्रियां पाँच हैं। इन्द्रिय संयम में इन सभी की क्षमताओं को परिष्कृत सुनियोजित करना होता है ताकि शरीरगत मनोगत सामर्थ्य भण्डार के अपव्यय को रोककर उस प्रचण्ड क्षमता का संचय किया जा सके। इस संग्रह की आत्मधन सम्वर्धन के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित किया जा सके। उपवास का प्रभाव शरीर पर और ब्रह्मचर्य का मन पड़ता है, दोनों के समन्वय से शरीर बल और मनोबल की उभयपक्षीय आवश्यकता पूर्ण होती है।

जिह्वा को उपवास और मौन के अभ्यास से संयमित किया जाता है। दूसरे नम्बर की प्रबल इन्द्रिय है–जननेन्द्रिय। उसका मनोगत लिप्सा से सीधा सम्बन्ध है। काम को ‘मनसिज’ कहा गया है। वह सीधा मानसिक असंयम का प्रतीक है। जननेन्द्रिय के माध्यम से उस उत्तेजना का परिचय भर मिलता है। यह ब्रह्मचर्य ही है जिसमें रति कर्म को सीमाबद्ध करके शरीरगत जीवनी शक्ति के भण्डार की रक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का चिन्तन पक्ष भी ध्यान में रखना होता है। रूप–यौवन, हास–विलास एवं रति कर्म के कल्पना चित्र भी मानसिक उद्विग्नता उत्पन्न करने में असाधारण बाधक पहुँचाते हैं। इसलिए नर को नारी के प्रति और नारी को नर के लिए अश्लील चिन्तन से रोका जाता है। दोनों के मध्य स्वाभाविक स्नेह सहयोग को नीति मर्यादा के बन्धनों में जकड़ा जाता है। बहिन−भाई–माता−पुत्र–पुत्री−पिता का सम्बन्ध निभाता रहे तो दोनों के मध्य सहज सौजन्य बना रहेगा तो शरीरगत जीवनी शक्ति तथा मनोगत प्रतिभा शक्ति का क्षरण होने से बच जायेगा। यह पूँजी व्यक्तित्व के भौतिक और आत्मिक पथ को समान रूप से सुविकसित बनाने में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होती है।

(2) अर्थ संयम–तपश्चर्या का दूसरा चरण है–अर्थ संयम। आत्मिक प्रगति के पथिक को अपव्यय करने की तनिक भी छूट नहीं है। प्रश्न यह नहीं कि पैसा अपना है या पराया। मेहनत से कमाया या मुफ्त में मिला है। हर हालत में उसे जीवनोपयोगी–समाजोपयोगी शक्ति मानी जानी चाहिए और एक−एक पैसे का मात्र सत्प्रयोजनों में ही उपयोग होना चाहिए।

भगवान ने मनुष्य को श्रम, समय, एवं मनोयोग की सूक्ष्म सम्पदाएँ दी हैं। इन्हें सुरक्षित रखने की–विनिमय की–सुविधा पैसे के माध्यम से होती है। इसलिए तथ्यतः धन को–श्रम समय का ही स्थूल रूप–प्रतीक प्रतिनिधि माना जाना चाहिए। जिस प्रकार समय का अपव्यय बुरी बात है उसी प्रकार धन की बर्बादी−फिजूल खर्ची भी अदूरदर्शिता की निशानी है।

बुद्धिमानी कमाने में मानी जाती है, पर वस्तुतः उसे परखना है तो अर्थ क्षेत्र में इस कसौटी पर जाँचा जाना चाहिए कि किस प्रकार कमाया गया और उसे किस निमित्त खर्च किया गया। सही तरीके से कमाना और सही कामों में खर्च करना ही लक्ष्मी का सम्मान है। उसका उपयोग दृष्टि प्रयोजनों के लिए नहीं होना चाहिए। दुर्व्यसनों में ही यही विलासिता के लिए अपनाई गई फिजूलखर्ची की अनैतिक अवाँछनीयता में सम्मिलित है। अनैतिक इसलिए कि जिस साधन सम्पदा का अपने लिये या दूसरों के लिए अतिमहत्वपूर्ण उपयोग हो सकता था उसे होली फूँकने या मुफ्त की लूट हड़पने के लिए जिस−तिस को दे मारने में हर दृष्टि से हानि है। जिन्हें उस सहायता की वास्तविक और अत्याधिक आवश्यकता होती है–वे वंचित रह जाते हैं और जो उसे पाकर दुरुपयोग करते–दुर्व्यसनों में निरत होते हैं उन्हें प्रोत्साहन देने से अनाचार बढ़ते हैं। यह दुहरी हानि हुई। सम्पत्ति दुधारी तलवार की तरह है वह आत्म रक्षा के लिए ही नहीं आत्मघात के लिए भी प्रयुक्त हो सकती है।

अर्ध सन्तुलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है–मितव्ययता। बजट बनाकर चलना। अनावश्यक खरीद में कुछ भी खर्च न होने देना। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त अपनाकर औसत भारतीय स्तर का निर्वाह कम अपनाना।

(3) समय संयम–मनुष्य की प्रमुख सम्पदा है–”काल बोध।” वह समय की गणना कर सकता है। साथ ही बुद्धि का उपयोग क्रमबद्ध दिनचर्या बनाने में कर सकता है। यही एकमात्र वह विशेषता है जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की भौतिक एवं आत्मिक विभूतियाँ सफलताएँ–सम्पदाएँ अर्जित कर सकना सम्भव होता है। समय का निर्धारण न किया जाय, उसके साथ श्रम एवं मनोयोग को जोड़े रखा जाय तो समझना चाहिए कि यह सम्पदा ऐसे ही आवारागर्दी में अस्त−व्यस्त होती रहेगी और कहने लायक कोई सफलता हाथ न लगेगी।

मनुष्य कितने दिन जिया इसका लेखा−जोखा इस प्रकार लेना चाहिए कितने समय का महत्वपूर्ण कार्यों में सदुपयोग किया गया। पेट प्रजनन तो शरीर के तकाजे हैं, जिन्हें हर प्राणी स्वभावतः करता रहता है। मनुष्य की दूरदर्शिता इसमें में कि वह इस सम्पदा का मूल्य समझे जिरावी हुण्डी के बदले संसार के बाजार में कुछ भी खरीदा जा सकता है। आद्य शंकराचार्य मात्र 32 वर्ष अधिक जीने का अवसर मिला, पर उनने उतने ही दिनों का तत्परतापूर्वक सदुपयोग करके वह लाभ अर्जित कर लिया जबकि दूसरे लोग सौ वर्ष जीकर भी कुछ न पा सकने की शिकायत करते–खीजते, खिजाते–हाथ मलते चले जाते हैं। यह अन्तर मात्र समय की महत्ता समझने न समझने का−उसे व्यवस्था बनाकर खर्च करने न करने भर का है। उस पौराणिक कथानक में सन्निहित तथ्य अक्षरशः सही है जिसमें रावण न काल को पाटी स बाँध कर उसे असीम वैभव प्रदान करने के लिए विवश कर दिया था। इस सचाई को सामान्य जन नहीं समझ पाते हैं और समय को जैसे−तैसे काट कर जिन्दगी के दिन पूरे करते रहते हैं। सफल और श्रेयाधिकारी महामानवों में प्रत्येक ने समय का महत्व समझा है और क्रमबद्ध दिनचर्या पर आरुढ़ रहकर–अपने एक−एक क्षण को हीरे मोतियों से तोलने लायक मानकर उसका सदुपयोग किया है। आलस्य प्रमाद को अपनाये रहने वाले अव्यवस्थित–अस्त−व्यस्त रीति से समय गुजरने वालों को हतभागी के अतिरिक्त और क्या कहा जाय। दुर्व्यसनों और कुकर्मों में निरत लोग तो एक प्रकार से अभिशप्त ही समझे जा सकते हैं।

(4) विचार संयम–चौथी तपश्चर्या है–विचार संयम। खाली समय में न जाने कितने अनगढ़, अनावश्यक अनैतिक विचार मस्तिष्क की झाड़ियों में वन्य पशुओं की तरह छिपे रहते हैं और उच्छृंखल उछल−कूद मचाते रहते हैं। धन एवं श्रम, समय की तरह ही विचार शक्ति को भी उच्चस्तरीय सम्पदा माना जाय और चिन्तन की एक−एक लहर को रचनात्मक दिशाधारा में प्रवाहित करने का जी तोड़ परिश्रम किया जाय। कुविचारों को सद्विचारों से काटने का महाभारत अहिर्निश जारी रखा जाय। विचारों के लिए उपयोगी मर्यादा एवं दिशाधारा निर्धारित की जाय जिनमें अभीष्ट प्रयोजन अथवा मनोरंजन के लिए परिभ्रमण करते रहने की छूट रहे। चिड़ियाघरों में जानवरों के लिए बाड़ा हाता है उन्हें घूमने−फिरने की छूट तो रहती है, पर उस बाड़े से बाहर नहीं जाने दिया जाय। ठीक यही नीति विचार वैभव के बारे में भी बरती जाय। उसे जहाँ−तहाँ बिखरने न दिया जाय।

एकाग्रता की–मेडीटेशन की–ध्यान धारण की अध्यात्म क्षेत्र में बहुत चर्चा होती रहती है। अलंकारिता को छोड़ दिया जाय तो उसे विचार संयम ही कहना चाहिए। एक बिन्दु पर एक बिन्दु पर एकत्रित करने की समाधि साधना को मनःसाधना का अन्तिम चरण है। उसे सिद्धावस्था कहा जा सकता है। वस्तुतः व्यावहारिक एकाग्रता इतनी भर है कि किसी उच्चस्तरीय उद्देश्य में इतनी तन्मयता सम्पादित करली जाय कि उस परिधि से बाहर की किसी बात की ओर ध्यान ही न जाय, मन ही न चले। वैज्ञानिक, कलाकार, आदि अपने−अपने विषय का ऐसा ही एकाग्रता का अभ्यास कर लेते हैं।

तपश्चर्या के मूलभूत सिद्धान्त दो हैं एक अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियाँ का उन्मूलन। दूसरा सत्प्रवृत्तियों की जीवन चर्या में समावेश करने के लिए प्रबल पराक्रम। इस मार्ग में अभ्यस्त आदतें–प्रचलन की परम्पराएँ तथा संपर्क क्षेत्र की प्रतिकूलताएँ एवं परिस्थितियों की विपन्नताएँ कई प्रकार की अड़चनें उत्पन्न करती हैं। उनसे जूझने और प्रगति−पथ पर अग्रसर होने का साहस जुटाने का प्रयत्न पुरुषार्थ करना पड़ता है–वही तप है। तपस्वी ही सिद्ध पुरुष बनते हैं–असामान्य सफलताओं का वरण करते हैं इसमें सन्देह नहीं।


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