आत्मलोचन (kavita)

January 1982

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जाग रहा हूँ, पर सोने वाले का स्वाँग बनाया। देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया॥

नारी का रति सा यौवन, नर शशि जैसा सुन्दर था। पल भर पीछे वही वृद्ध थी झुका उसी का सर था॥

उस दिन के धन पति को देखा, भिक्षा पात्र सम्हाले। नीरव मरघट में साते देखे, सिंहासन वाले॥

जिस शरीर को मरना था जीवन भर उसे सजाया। देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया॥

चला चली का मेला था, यह गया और वह आया। सुख का स्वप्न देखने वाला ‘लुढ़क पड़ा चिल्लाया॥

जो कहते थे हम स्वामी हैं, धनी गुणी बलशाली। वे अर्थी पर लदे हुए थे, कर थे उनके खाली॥

सभी यहाँ का यहाँ रह गया अपना और पराया। देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया॥

यह सब देखा देख रहा हूँ, फिर भी आँखें मीची। विष के फल जिन पर आते हैं, वी लताएँ सींची॥

जान रहा हूँ जान, जान, जानकर भी अनजान बना हूँ। गंगा के तट पर रहता हूँ, फिर भी कीच सना हूँ॥

भुला दिया उसको ही जिसने यह संसार बनाया। देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया॥

–श्री जिज्ञासु

*समाप्त*


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