दिव्य अनुदानों का सुयोग सुअवसर

January 1982

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मनुष्य के अपने पुरुषार्थ का महत्व तो है ही, साथ ही यदि परिस्थितियों की अनुकूलता भी उपलब्ध हो सके तो सफलता और भी अधिक सरल सुनिश्चित हो जाती है। उगता तो बीज ही है और उगाने का श्रेय भी धरती को ही मिलेगा किन्तु वर्षा ऋतु आने पर पौधों को जल्दी उगने और बढ़ने का अवसर मिलता है इस तथ्य से भी सभी परिचित हैं। फूल अन्य महीनों में भी खिलते हैं किन्तु वसन्त में वृक्ष वनस्पतियों को जिस प्रकार फूल कोपलों से लदा देखा जाता है वैसा अन्य किसी महीने में नहीं। शीत ऋतु स्वास्थ्य संवर्धन के प्रयोगों को अपेक्षाकृत अधिक सफल बनाती है। नर्मी के आँधी−तूफान समूची धरती की शीलन सुखाने और बुहारी लगाने का कार्य करते हैं। अन्य महीनों में प्रकृति को वैसा करने की फुरसत ही नहीं रहती।

हवा का रुख पीछे हो तो नाव से लेकर साइकिल तक की चाल में सहज ही तेजी आती है। कुशल अध्यापक के तत्वावधान में पढ़ने वाले विद्यार्थी अधिक अच्छे नम्बर पाते हैं। साधनों की कमी न पड़े तो बुद्धिमत्ता और परिश्रमशीलता को चमत्कारी सफलताएँ प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह परिस्थितियों के प्रभाव का परिचय देने वाले कुछ विवरण हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि बाह्य अनुकूलताओं का भी प्रगति क्रम में कम योगदान नहीं होता। सरकारी भर्ती खुलने पर इच्छुकों को सरलतापूर्वक काम मिलता है अन्यथा योग्यता होने पर भी निराश बैठे रहना पड़ता है। खरीद बढ़ने पर उत्पादक को अच्छा मुनाफा मिल जाता है, अन्यथा परिश्रमी लोग बहुत उगा लेने पर भी घाटा उठाते या कम मोल में बेचकर उल्टा घाटा उठाते हैं।

साधना में यों अपना पुरुषार्थ ही प्रमुख है किन्तु उसमें वातावरण या परिस्थितियाँ भी सहायक या बाधक होती हैं। हनुमान अंगद, नल, नील एवं रीछ वानरों को श्रेय यों उनके पराक्रम का ही मिला, पर यह भी मिथ्या नहीं है कि सीताहरण और असुरता उन्मूलन की परिस्थितियाँ सामने न आती तो वे सभी अन्यान्य रीछ−वानरों की तरह सामान्य स्तर का जीवन गुजारते रहते। अवसर सामने न होने पर कोई करे भी तो क्या करे? ग्वाल−बालों को श्रेय इसीलिए ही मिला कि कृष्ण ने गोवर्धन उठाने की योजना बनाई और उसमें सहायता की आवाज लगाई। यदि वैसी आवश्यकता सामने न आती तो ग्वाल−बालों को सामान्य पशु पालकों से बढ़कर ऐसा कुछ हस्तगत न होता जिसके सहारे वे ऐतिहासिक चर्चा का विषय बनते। सुरक्षा संकट उत्पन्न होने पर सरकार नागरिकों को हथियार बाँटती है जबकि साधारण समय में पैसा खर्चने और आवेदन करने पर भी किसी−किसी को कठिनाई से उनका लाइसेन्स मिलता है। दंगल का आयोजन हो तो पहलवान को अपना कौशल दिखाने, इनाम जीतने का अवसर मिले। अन्यथा उसे घर रहकर कसरत करते रहने में ही दिन गुजारने पड़ते हैं। चुनाव की घोषणा होने पर ही प्रत्याशी खड़े होते और जीतकर प्रतिनिधि सभा में पहुँचते हैं। चुनाव ही न हो तो लोकप्रिय समाजसेवी को भी प्रतिनिधि बनने को सुयोग कैसे मिले?

ऊपर कतिपय उदाहरण इसलिए प्रस्तुत किए गए हैं कि अवसर का महत्व समझा जाय। सामने हो तो उससे लाभ उठाया जाय। आलस्य प्रमाद की दीर्घ सूत्रता में उसे गँवाया न जाय। नवरात्रि साधना का एक विशेष अवसर है। अन्य दिनों की अपेक्षा उन दिनों किए गए अनुष्ठान अपेक्षाकृत अधिक सफल होते हैं। तीर्थ स्नान तो कभी भी किया जा सकता है, पर पर्वकाल में उसका अधिक पुण्य प्रतिफल माना गया है। उपासना के लिए हर समय अच्छा है, पर प्रातःकाल में जो आनन्द आता है वह अन्य समय नहीं। सोने की तो दिन में भी कोई रोक नहीं, पर सभी जानते हैं कि रात्रि में जैसी गहरी और लम्बी नींद आती है वैसी दिन में नहीं। इसे समय अर्चना का प्रभाव ही कहा जायगा। सफलताओं में परिस्थितियों का योगदान रहता ही है।

अध्यात्म साधनाएँ करने के लिए हर समय हर ऐसे भी अवसर आते हैं जिनका सुयोग बैठे एक तो लम्बे समय तक कठिन परिश्रम करने पर जो लाभ मिलना चाहिए वह उस विशिष्ट अवसर का कारण स्वल्प काल में ही, अधिक परिमाण में भी मिल सकता है। ऐसी उपलब्धियों को दैवी अनुदान कहा जाता है।

राधाकृष्ण परमहंस को कुछ करना था। उनने विवेकानन्द को ढूँढ़ निकाला और अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए जितनी आत्मशक्ति आवश्यक थी उतनी अपनी तप सम्पदा में से हस्तांतरित कर दी। समर्थ रामदास का अनुदान शिवाजी को और चाणक्य का वरदान चन्द्रगुप्त को मिला था। तपस्वी भगीरथ का गंगावतरण प्रयास शिवाजी की सहायता से सम्पन्न हुआ। गान्धी का सघन सहयोग पाये बिना विनोबा वहाँ न पहुँच पाते जहाँ वे पहुँचे, लोक व्यवहार में भी अनेकों को अपने पूर्वजों की सम्पदा उत्तराधिकार में मिलती है और वे अनायास ही खुल चैन से समय बिताते है अभिभावकों के अनुदानों के सहारे ही अधिकाँश छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करते और प्रगतिशील कहलाते है। यों कुछ अपवादों में ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनमें परिस्थितियाँ उत्साहवर्धक न होने पर भी मनस्वी लोग आगे बढ़े और ऊँचे उठे हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि उन्हें यदि साधनों की कमी और परिस्थितियों की प्रतिकूलता न रही होती तो अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में, कम समय में अधिक सफलता अर्जित कर सके होते।

युग सन्धि का यह विशिष्ट पर्व है। ऐसे समय कभी हजारों लाखों वर्ष बाद आते हैं। सृष्टा को कतिपय महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होते है। निराकार ब्रह्मा की प्रकाश प्रेरणा अन्तःकरणों को ही प्रभावित करती है क्रिया−कलाप साकार होते है। उन्हें करने कराने के लिए मनुष्य शरीर एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। भूतकाल के युग परिवर्तनों में भी यही होता रहा है। महामानवों, देवदूतों, युग प्रवर्तकों के रूप में सृष्टा के प्रतिनिधि ही सृष्टा की इच्छा पूर्ति में संलग्न रहे है। निराकार ब्रह्मा के लिए यह कठिन है कि वह स्वयं अपने व्यापक स्वरूप को समेटकर व्यक्तियों का रूप बनाये और सामान्य जनों की तरह उतार−चढ़ावों से जूझने का उपक्रम अपनाये। शासनाध्यक्ष योजना बनाते और निर्देश देते हैं, असंख्य प्रकार की शासकीय गतिविधियों का कार्यान्वयन करने में तो बड़े अफसरों से लेकर छोटे कर्मचारी तक निरत रहते है इतना अवश्य है कि इन कार्यरत अफसरों को उनकी आवश्यकतानुसार अधिकार एवं साधन सरकार की ओर से हर प्रदान किये जाते हैं। व्यक्तिगत हैसियत से तो वे वैसा कुछ कर ही नहीं सकते जैसा कि शासनतन्त्र के अंग बनकर ही कर सकना उनके लिए सम्भव होता है।

इलाज तो डॉक्टर ही करते हैं। प्रत्यक्षतः उन्हीं की सेवाओं से रोगी लाभ उठाता हैं। किन्तु परोक्षतः सरकारी अनुदानों से ही वहाँ की समूची साधना व्यवस्था चलती हैं। इमारत, उपकरण, औषधि, वेतन आदि का यदि सरकारों प्रबन्ध ने हो तो अनुभवी डॉक्टर भी उस अभावग्रस्त स्थिति में कुछ बड़ा काम न कर सकेंगे। लड़ने का पराक्रम यह तथ्य भी किसी से छिपा हुआ नहीं हैं कि वाहन, वस्त्र, भोजन, अस्त्र, बारूद, निर्वाह जैसी उनकी अनेकों आवश्यकताओं की पूर्ति रक्षा मन्त्रालय को ही करनी होती हैं। परशुराम अपने बलबूते विश्व विजय का एकाकी अभियान नहीं रच सकते थे। उनसे यह सब तभी सम्भव हो सका जब वे भगवान शिव की इच्छा पूरी करने के लिए भारी जोखिम उठाने के लिए कटिबद्ध हो गये। ऐसा कर सकना तब उनके लिए किसी प्रकार सम्भव न हुआ होता जब उनने पुल बनाने वाले ठेकेदारों की तरह निर्वाह की दृष्टि रखी होती। सैनिक यदि निजी दुश्मनी निकालने के लिए पड़ोसियों पर आक्रमण करना चाहें तो उन्हें उन उपकरणों का लाभ नहीं लेने दिया जाएगा जो देश रक्षा के लिए युद्ध मोर्चे पर जाने के उद्देश्य से मिलता है।

आध्यात्मिक अनुदानों की सामान्य परम्परा भी रही है और आपत्तिकालीन अतिरिक्त व्यवस्था भी होती है। गुरु शिष्यों, देवता भक्तों को समय−समय पर अनेकानेक अनुदान देते रहे हैं। पर साथ ही उनने इस बात का भी ध्यान रखा है कि उपलब्धकर्ता उसे संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में खर्च न करने लगे। “दैवी वरदान दिव्य प्रयोजनों के लिए” का सिद्धान्त यदि समझा जा सके तो उस व्यापक भ्रम जंजाल से सहज छुटकारा मिल सकता है जिसके कारण लोग निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए पूजापाठ के बदले दैवी अनुग्रह जैसा बहुमूल्य अनुदान झटक लेने का ताना–बाना बुनते रहते है। उस अनैतिक प्रसंग में असफल रहते हैं।

युगसन्धि की बेला में नव सृजन का उत्तरदायित्व सँभालने वाली दिव्य शक्तियां इन दिनों ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए जागृत आत्माओं की तलाश में है। उन्हें वाहन बनाकर अग्रदूतों का काम लेना चाहती हैं। इससे प्रयोजन तो सृष्टा का पूरा होना है और उसमें भागीदार बनने का साहस दिखाने के बदले श्रेयाधिकारी बनने का लाभ उन्हें मिलता है जो इन दिनों किसी न किसी रूप में युग शिल्पी की भूमिका निभाने का शौर्य साहस जुटा सकेंगे। पांडवों ने इसलिए चलाया था कि वह उनकी इच्छानुसार विशाल भारत की −महाभारत की −संरचना का कष्टसाध्य काम करने में भगवान को सहयोगी बनने का लिए तत्पर हो गया था। यदि ऐसा न होता करने अर्जी लेकर थोड़े ही आने वाले थे। सुदामा को भगवान ने अपना सारा वैभव हस्तान्तरित किया था। उसमें उनके महान गुरुकुल का सुप्रबन्ध करने की दूरदर्शिता की सन्निहित थी। यदि उनने स्वयं सेठ बनाने के उद्देश्य से याचना की होती तो तिरस्कारपूर्वक कुछ सिक्के पाकर ही अपनी क्षुद्रता को सन्तोष दे पाते।

इन दिनों युग देवता ने सृजन शिल्पियों को ऐसे अलभ्य अनुदान देने का निश्चय किया है जितना कि वे निजी प्रयास से निजी प्रयोजन के लिए लम्बे काल तक कष्टसाध्य श्रम करने पर भी अर्जित करने में सफल न हो पाते। योगाभ्यास, तपश्चर्या, व्रतशीलता, ब्रह्मविद्या, परमार्थ परायणता के क्षेत्र में गहराई तक उतरने वाले ही चेतना के महासागर के कुछ मणि मुक्त का उपलब्ध कर पाते हैं। पर यदि सौभाग्य साथ दे तो किसी राजाधिराज के अनुग्रह से बहुमूल्य हीरक हार उपहार में बिना मूल्य भी मिल सकते हैं। इस सम्भावना के पीछे एक तथ्य तो निश्चित रूप से जुड़ा रहेगा कि देने वाला किसी कारण उस व्यक्ति पर अत्यधिक उदार हो उठे। निश्चय ही यह कार्य न तो दाता की भावुकता कर सकती है और न याचक की गिड़गिड़ाहट। उसके पीछे कोई ऐसी विशिष्टता होनी चाहिए जिसके कारण दाता का मन इतना भाव−विभोर हो उठे कि उस रत्न राशि को दिये बिना रुक सकना ही सम्भव न हो सके।

इन दिनों उच्चस्तरीय अध्यात्म अनुदान सत्पात्रों को वितरण किये जा रहे हैं। उन्हें ईश्वरीय प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने का विश्वास दिलाने पर सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है। सरकार तकाबी बाँटती है। वह कुआँ, खोदने, पशु पालने, उद्योग खड़ा करने जैसे किन्हीं ऐसे कामों के लिए ही वह धन दिया जाता है जिससे न केवल ऋण लेने वाले का वरन् उस उपार्जन से अन्यान्य लोगों का भी हित साधन होता है। बुद्ध, गान्धी की महानता में ईश्वरीय अनुदान जुड़े हुए थे,पर वे मिले इसी शर्त पर थे कि उनके सहारे आत्म−कल्याण के अतिरिक्त लोक−कल्याण का प्रयोजन भी पूरा हो सके। नारद देवर्षि कहलाते थे। उन्हें विष्णु लोक तक पहुँचने की, भगवान के किसी भी स्थिति में होने पर भी उनसे मिल सकने की बिना रोक−टोक वार्तालाप बर सकते की छूट थी। इसीलिए उन्हें देवर्षि कहा जाता था। यह गौरव और किसी ऋषि को प्राप्त नहीं था। अकेले उन्हीं को सौभाग्य क्यों मिला? इसका एक ही उत्तर है कि वे दैवी उपलब्धियों का पूरा−पूरा उपयोग लोक−शिक्षण के लिए ही करते थे। अपनी इच्छा, सुविधा का ध्यान न रखते हुए परिभ्रमण करते हुए भगवद्भक्ति के प्रसार में, उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ भरने में प्रयत्नशील रहते थे।

युग सन्धि के दिनों हिमालय के आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र से ऐसी दिव्य क्षमताओं का प्रसार−विस्तार हो रहा हैं जिन्हें ग्रहण धारण करने वाले असाधारण शक्ति सामर्थ्य उपलब्ध कर सकें और समस्त संसार का तथा साथ−साथ अपना भी भला कर सकें। दैवी अनुदानों के साथ सदा से यह शर्त जुड़ी रही है कि वे ऐसे प्रामाणिक व्यक्तियों के हाथ सौंपी जायें जिनके द्वारा उनका मात्र सदुपयोग ही बन पड़े। उस अनुदान से विश्व व्यवस्था में सहायता मिले और सत्प्रवृत्तियों के पनपने फलने−फूलने की सम्भावना बने। मात्र माँग होगा तो उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ा होगा। निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भगवान ने हर मनुष्य को शरीर, मस्तिष्क और निर्वाह साधनों की सहज सुविधा उत्पन्न की हुई है। रावण, हिरण्याक्ष जैसी तृष्णा लद पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा उचित निर्वाह के लिए हर प्राणी के लिए अपना अपना सामान्य पुरुषार्थ ही पर्याप्त होता है। कभी किसी को विशेष दैवी अनुग्रह मिले होंगे तो उनके पीछे इस तथ्य की जाँच−पड़ताल अवश्य हुई होगी कि उस अतिरिक्त अनुदान का उपयोग किस प्रयोजन के लिए किया जाता है। इन दिनों हिमालय पर अवस्थित अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र कुछ ऐसी आलोक किरणें निःसृत कर रहा है जिसके सहारे स्वार्थ और परमार्थ का संयुक्त समन्वय सम्भव हो सके।

उद्योगों में एक अत्यन्त सरल, सुविधाजनक उद्योग ‘कमीशन’ का है। उत्पादक का माल उपभोक्ता तक पहुँचा देने वालों को मध्यवर्ती ढुलाई, मजदूरी भी इतनी बन जाती है कि उसके द्वारा निजी उद्योग चलाने से भी अधिक लाभ उपार्जन किया जा सके। छोटी−बड़ी एजेन्सियाँ भी कम नफे में नहीं रहतीं।

वे लाखों−करोड़ों इसी व्यवसाय में कमाती रहती हैं। इन दिनों सृष्टा की इच्छा जन−जन के मन−मन तक नव सृजन की चेतना उत्पन्न करने और लोकमानस को सत्प्रवृत्तियों के साथ जोड़ देने की है। इस कार्य में जो सहायता करना चाहें,अपना श्रम नियोजित करने के लिए इच्छुक हों, उन्हें बेचने वितरण करने के लिए आवश्यक अनुदान मिल सकते हैं। खपत में कमीशन पक्का।

बीमा से लेकर अनेक व्यवसायों में एजेण्ट लोग भ्रमण करते, जन संपर्क साधते, ग्राहक पटाते हैं। साथ ही अपना अच्छा−खासा पारिश्रमिक भी हाथ−पैर की पूँजी के सहारे वसूल करते रहते हैं। दूसरे के हाथ पर लगाने के लिए मेंहदी पीसने वालों के हाथ अनायास ही रच जाते हैं। ऋषि−मुनियों से लेकर लोक−सेवी महामानव तक सभी यही करते रहे हैं। दैवी शक्तियों का अनुदान जन−जन तक पहुँचाने में वे प्रवृत्त रहे हैँ। इससे भगवान की इच्छा पूरी हुई है। जन−जन का हित साधन हुआ है। साथ ही उन लोक सेवियों ने स्वयं भी पुण्यात्माओं का श्रेय सम्पादित किया है। यशस्वी एवं विभूतिवान बने हैं तथा आत्म−सन्तोष के साथ जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सके। इन दिनों भी ऐसा ही संयोग संयोग हैं। दूरदर्शी इसका सहज लाभ उठाकर सौभाग्यवान बन सकते हैं। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त तो सर्वविदित है ही। पर इन दिनों एक ऐसा अलभ्य अवसर उपलब्ध है कि सृष्टा की अपनी आवश्यकता की पूर्ति करते हुए उसकी अनुकम्पा, शक्ति −सम्पदा ही नहीं कृतज्ञता भी प्राप्त की जा सकती है। यह सौभाग्य उन्हीं को मिलना है जो युग सन्धि के दिनों नव सृजन के लिए अपने श्रम, समय एवं साधनों को किसी अंश में लगाने के लिए व्रतशील हो सके। उन्हें बैंक खजाँची की भांति विपुल राशि वितरित करते रहने जैसे उत्तरदायित्व भरा सम्मानित पद प्राप्त हो सकता है।

पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव केन्द्र अनन्त अन्तरिक्ष में संव्याप्त ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म संपदाओं में से जो आवश्यक है उन्हें खींचता रहता है। उस अनुदान को धरती के विभिन्न घटकों को आवश्यकतानुसार वितरित करता रहता है। बचेखुचे कूड़े−करकट को दक्षिण ध्रुव के माध्यम से फिर ब्रह्माण्ड के खत्ते में उड़ेल देता है। इसी अनुदान के सहारे पृथ्वी के महत्वपूर्ण क्षेत्र अपना अपना गुजारा जलाते हैं। बादल बरसते हैं तो उनसे खेत,कुएँ नदी, नाले सभी अपना भण्डार भरते हैं। बादल न बरसें तो किसी जलाशय में एक बूँद भी दृष्टिगोचर न हो। इसी प्रकार अंतरिक्षीय सामर्थ्य से परिपूर्ण मेघ धरती पर बरसते रहते हैं। वह उन्हें सोखकर ब्रह्माण्ड की राजकुमारी बनी रहती है।

ठीक यही भूमिका हिमालय के मध्यकेन्द्र में अवस्थित आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र की होती है। वे ब्रह्माण्डव्यापी दिव्य चेतना का, ब्रह्मा−सत्ता का मानवोपयोगी अतिमहत्वपूर्ण अंश आकर्षित करते हैं। उसे धारण करते है और जहाँ जिन घटकों को जितनी आवश्यकता पड़ती है वहाँ उसी अनुपात में व्यवस्थापूर्वक पहुँचाते हैं। इस केन्द्र को धरती का स्वर्ग कहा जाता हैं। पुरातन काल से लेकर अद्यावधि वहाँ सिद्ध पुरुषों की क्रीड़ाभूमि रही है। देवसत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाली आत्माएँ इसी क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर से विद्यमान रहती हैं। सुमेरु पर्वत का देव पर्वत कहा गया है। उस पर समस्त देवताओं के निवास करने का का पुराणों में उल्लेख है।

तपस्वी,योगी प्रायः इस क्षेत्र में विद्यमान विशेष प्राण ऊर्जा का लाभ उठाने के लिए, उच्चस्तरीय साधनाएँ करने के लिए पहुँचते हैं। पाण्डव शरीर समेत स्वर्ग प्रयाण के लिए इसी क्षेत्र के स्वर्गारोहण शिखर पर गए थे। पौराणिक स्वर्ग की ऐतिहासिक एवं भूगोल सम्मत संगति इसी क्षेत्र के साथ बैठती है। दशरथ, अर्जुन, नारद आदि का आवागमन देव सान्निध्य के संदर्भ में इसी क्षेत्र में रहा है। मानवी विकास विद्या के विद्यार्थी यही कहते पाये जाते हैं कि आर्य मध्य एशिया से भारत में आये और उन्होंने मध्यवर्ती पड़ाव हिमालय के जिस क्षेत्र में डाला उसका नाम ‘स्वर्ग’ रखा गया। उस मंडली के अधिनायक इन्दु का निवास यहीं था। तिब्बत के लोगों की भी मान्यता इस क्षेत्र के सम्बन्ध में ऐसी ही है। थियोसोफिकल सोसायटी ने भी इसी क्षेत्र में सिद्ध पुरुषों की मंडली का निवास बताते हुए कहा है कि वहीं से संसार में ब्रह्माण्डीय चेतना का वितरण होता है। नन्दन वन, महाशिवलिंग वाला कैलाश अभी भी इसी क्षेत्र में देखा जा सकता है। उल्लेखों,प्रतिपादनों के अतिरिक्त अनुभूतियाँ भी इस तथ्य को प्रकट करती हैं कि इस समूचे ब्रह्माण्ड पर विद्यमान चेतना का ध्रुव केन्द्र हिमालय के मध्य केन्द्र में हैं। उसी भाग को “देवात्मा हिमालय “ कहते हैं। इसे भौतिक क्षेत्र के उत्तरी ध्रुव के समान ही आध्यात्मिक चेतना का चुंबकीय क्षेत्र कहा गया है। वहाँ ब्रह्माण्डीय चेतना में से उपयोग अंश पकड़ा, खींचा और एकत्रित किया जाता है। आवश्यकतानुसार उसी को जहाँ, जितनी जिस स्तर की आवश्यकता पड़ती है वहाँ उतना ही प्रेषण, विभाजन,वितरण कर दिया जाता हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण इस क्षेत्र को अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र कहा गया है। भौगोलिक दृष्टि से इसे गंगोत्री, गोमुख से आगे का बद्रीनाथ के बीच में पड़ने वाला सुमेरु के आसपास का क्षेत्र कह सकते हैं। प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना का विकिरण भी यहीं से निःसृत होता है। इन दिनों उसमें दिन−दिन अधिकाधिक प्रखरता बढ़ती चली जा रही है। सूर्योदय के समय की किरणों में मन्द ताप होता है, पर मध्याह्न काल में वे ही प्रचण्ड ऊर्जा धारण करती और प्रचण्ड बनती चली जाती हैं।

इस केन्द्र में इन दिनों अत्याधिक सक्रियता है। ज्वालामुखी-उछलती दिव्य चक्षुओं से देखी जा सकती हैं। यह विशेष उद्भव इसलिए हो रहा है कि उससे विशिष्टों को विशेष और सामान्यों को सामान्य स्तर की क्षमताएँ सरलतापूर्वक अनुदान के रूप में उपलब्ध हो सकें। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि ऐसे अनुदान को दैवी प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने की शर्त होती है। संकीर्ण स्वार्थ परता की पूर्ति के लिए देवताओं को फँसाने का जो भी जाल−जंजाल बुनता है यह अपनी ही कुटिलता का कष्टकारक प्रतिफल स्वयं ही विनिर्मित करता है।

चेतना के तीन स्तर हैं− कारण, सूक्ष्म, स्थूल। कारण अर्थात् अन्तरात्मा। सूक्ष्म अर्थात् विचारणा। स्थूल अर्थात् क्रियाशीलता। इन्हीं तीन स्तरों को श्रद्धा,प्रज्ञा, निष्ठा के तीन नामों से जाना जाता है। भक्ति योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की विद्या इन्हीं तीनों को विकसित करने के लिए विनिर्मित हुई है। सत्य, शिवं, सुन्दरम् के रूप में इन्हीं तीन शरीरों से आच्छन्न है। कारण शरीर का केन्द्र बिन्दु हृदयचक्र, सूक्ष्म शरीर का आज्ञा−चक्र और स्थूल शरीर का नाभिचक्र है।

हठयोग में नाभिचक्र को ही मूलाधार कहते हैं और आज्ञाचक्र में सहस्रार है। मेरुदण्ड के माध्यम से इन्हीं दो सिरों को कुण्डलिनी उत्तेजित करती है। मूलाधार को भूलोक, सहस्रार को ब्रह्मलोक और मेरुदण्ड को दोनों के मध्य चलने वाले आवागमन का मध्यमार्ग ‘देवयान’ कहा गया है। कुण्डलिनी जागरण का उपक्रम इसी क्षेत्र में होता है।

हृदय चक्र की उपलब्धि है।− ‘ अमृतानुभूति’। आज्ञाचक्र की दिव्य ज्योति। मूलाधार नाभिचक्र की प्राण ऊर्जा। इन तीनों दिव्य शक्तियों की अपनी−अपनी विशेषताएँ हैं। अमृतानुभूति का रसास्वादन करने वाले देवत्व के साथ जुड़ी हुई विभूतियों से भर जाते हैं। व्यक्तिगत रूप में वे आप्तकाम बनते हैं। कामना की तृप्ति, तृष्णा की तुष्टि और आकाँक्षा की शान्ति की निर्वाध आनन्द मिलता है। साथ ही समूचे वातावरण को, प्राणि समुदाय को भाव संवेदनाओं − दिव्य प्रेरणाओं से भर देने की सामर्थ्य उनमें होती है। प्रकारान्तर से दस क्षेत्र के समर्थों को धरती के देवता, अग्रदूत, अवतारी आदि नाम से पुकारते हैं।

सूक्ष्म शरीर के सामर्थ्यवानों को ऋषि, मनीषी, तत्वदर्शी आदि नामों से पुकारते हैं। यथार्थता को जानने की उनमें विशेषता होती है वे अतीन्द्रिय क्षमताओं के धनी होते हैं। बौद्धिक क्षेत्र में उनके पराक्रम उच्चस्तरीय होते हैं। व्यास का साहित्य सृजन, धन्वन्तरि का आयुर्वेद, द्रोणाचार्य की शस्त्र विद्या, नागार्जुन की रासायनिकी, सुपुर्द की शल्य विद्या के अनुसंधानों में किन्हीं यन्त्र उपकरणों की सहायता नहीं ली गई थी। इन ऋषियों ने अपने सूक्ष्म शरीर को ही अनेकानेक यन्त्र उपकरणों की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य बना लिया था। दधिचि तो चलते−फिरते डायनामाइट राडार थे। उन्होंने अपने समय में अणुबम की भूमिका अपने अस्थि पंजर से ही विनिर्मित कर दी थी। लोक−शिक्षण एवं लोक −निर्माण में ऋषियों की ही वाणी तथा प्रतिभा काम करती है दिव्य दृष्टि से वे त्रिकालदर्शी होते है और शाप−वरदान के माध्यम से अनेकों पर अनुशासन रखते तथा अभ्युदय का अवलम्बन प्रदान करते हैं। स्थूल शरीर में प्राण ऊर्जा का निवास है। उसी के न्यूनाधिक होने से मनुष्य की बलिष्ठता तथा साहसिकता घटती–बढ़ती रहती है। कायबल के मान से जानी जाने वाली बलिष्ठता देखने में तो रक्त माँस की परिणति होती है किन्तु वस्तुतः वह प्राण तत्व के अनुपात में न्यूनाधिकता पर आश्रित है।

रोग निरोधक शक्ति, जिजीविषा, स्फूर्ति, तेजस्विता, आकर्षण क्षमता, प्रभावोत्पादकता, साहसिकता, श्रम में अभिरुचि,दृढ़ता, धैर्य, आशावादिता, प्रतिकूलताओं से निपटने की सूझ−बूझ जैसी अनेकों शारीरिक, मानसिक विशेषताओं का आधार प्राणशक्ति की न्यूनाधिकता पर निर्भर है। इसके लिए शारीरिक संरचना का प्रभाव तो पड़ता है किन्तु अन्ततः हैं वे प्राणशक्ति पर ही अवलम्बित। गान्धी, विनोबा जैसे दुर्बलकाय व्यक्ति भी सैण्डो, किंग–कांग, जैविस्को, गामा और विश्व विख्यात पहलवानों की तुलना में अधिक पराक्रमी ही सिद्ध हुए हैं। उन्हें कृशकाय होते हुए भी दुर्बल कह सकने की धृष्टता कोई नहीं कर सकता।

मस्तिष्क शरीर का अंग है। उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय दक्षता भी शरीर क्षेत्र की विशेषता ही मानी जाती है अस्तु चेतना का शरीर से जुड़ा हुआ, लोक व्यवहार में काम आने वाला भाग चातुर्य कहलाता है और वह कायिक विशेषता के क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है। इस क्षेत्र का सूत्र संचालन प्राणशक्ति ही करती है। प्रजनन की उत्तेजना क्षमता से लेकर कलाकारिता, एकाग्रता, सरसता, तन्मयता जैसे गुणों का उभार प्राण चेतना की प्रखरता का ही परिचय देती है। शरीर के इर्द−गिर्द छाया रहने वाला तेजोवलय इसी सूक्ष्म प्राण शक्ति का स्थूल शास्त्री इसी की जीवनी शक्ति कहते हैं। वस्तुतः यह एक प्रकार की चेतना विद्युत है और जड़ विद्युत की तरह ही अपने क्षेत्र में चमत्कारी परिणतियाँ उत्पन्न करती है। अध्यात्म भाषा में इसी को निष्ठा कहते हैं?

ज्ञान, जिसे प्रकाश कहते हैं वह मन और बुद्धि से आगे की शक्ति हैँ। उसे प्रज्ञा कहते हैं। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन के माध्यम से इसी को विकसित किया जाता है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, आत्म−बोध, आत्मविश्वास, आत्मावलम्बन जैसी विशेषताएँ प्रज्ञा की परिणति हैं। कल्पना, विवेचना और निर्धारण के भौतिक प्रयोजन सँभालने वाली लोक व्यवहार की दक्षता को ही बुद्धिमान कहे जाते है। पर अध्यात्म क्षेत्र का वर्गीकरण इससे भिन्न है। उसमें नीर−क्षीर विवेक कर सकने वाली, मात्र औचित्य के मोती ही उदरस्थ करने वाली हंसवृत्ति को ही दूरदर्शी विवेकशीलता के नाम से जाना−माना गया है। अचेतन, उच्च चेतन के नाम से मनोविज्ञानी जिन रहस्यमयी परतों की चर्चा करते रहते हैं उन्हें अध्यात्म भाषा भी कहते हैं। दूरदर्शन, दूरश्रवण, भविष्य ज्ञान, विचार संचालन,शक्ति पात, कुंडलिनी प्रकरण, षट्चक्रवेधन, पंचकोश जागरण आदि नामों से इसी क्षेत्र की रहस्यमयी क्षमताओं की चर्चा होती रहती है। आशा चक्र, ब्रह्मरंध्र, सहस्रार आदि नामों से जाने वाले क्षेत्र की अधिष्ठात्री प्रज्ञा ही है। इसको विकसित करने में शारीरिक स्थिति का कम और संकल्प शक्ति का अधिक योगदान रहता है।

ऊपर की पंक्तियों में प्राण और प्रज्ञा का संक्षेप संकेत जान लेने के साथ साथ ही आस्था क्षेत्र पर भी एक बार पुनः दृष्टि पात कर लेना चाहिए। अपने सम्बन्ध में, अपनी मान्यताओं के सम्बन्ध में जैसी भी मान्यताएं परिपक्व हो जाती हैं उसी के अनुरूप अपनी एक विशेष दुनिया बनकर खड़ी हो जाती है। नर और नारी हैं। भ्रूण की आरम्भिक अवस्था में शरीर के दोनों अवयव समान रूप से विद्यमान रहते हैं। जीव की पूर्व संचित आस्था जिस वर्ग में रहने की अभ्यस्त होती है उसी का चयन करती है और वहीं पक्ष विकसित होने लगता है। सामान्य जीवन में भी यदि मनुष्य विपरित लिंग के सम्बन्ध में अपनी मान्यता परिपक्व कर लें तो इस जन्म में भी लिंग परिवर्तन सम्भव है। हेय अथवा आस्था क्षेत्र का ही प्रभाव परिणाम है। “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” इस लोकोक्ति के साथ इस रहस्य से भी अवगत होना चाहिए कि हर मनुष्य अपनी विलक्षण दुनिया स्वयं ही गढ़कर खड़ी करता है रेशम के कीड़े द्वारा बनाया गया खोखला, सीप घोंघों के कवच, पक्षियों के घोंसले, मकड़ी के जाले का उदाहरण देकर यह समझाया जा सकता है कि मनुष्य किस प्रकार अपनी दुनिया आस्थाओं के आधार पर स्वयमेव गढ़ता है और किस प्रकार उसी में उलझा जकड़ा, रोता खीजता या हँसता हँसाता समयक्षेप करता है। यदि कोई साहसी अपने खोखले को उतार कर नया सृजन आरम्भ कर दे तो निश्चय ही उसे महाप्रलय के उपरान्त विधाता द्वारा की जाने वाली नई सृष्टि की उपमा दी जा सकेगी। ध्रुव, प्रह्लाद, पार्वती, सुकन्या,अशोक, भर्तृहरि, वाल्मीकि, अंगुलीमाल, सूर, कबीर जैसे अगणित उदाहरण ऐसे हैं जिन में मनुष्यों ने अपने काया−कल्प किये हैं और इसी जन्म में कुछ से कुछ बन गये हैं।

देवताओं,मन्त्रों, योगाभ्यासों के माध्यम से मिलने वाली दक्षिणमार्गी एवं वाममार्गी साधनाओं के जो चमत्कारी परिणाम सामने आते हैं, उनमें कर्मकाण्डों का तो अकिंचन ही प्रभाव होता है अधिकाँश उत्पादन तो भावश्रद्धा ही सकती है। श्रद्धा न जागे और कर्मकाण्डों की लकीर पिटती रहे तो प्राणविहीन शरीर की तरी उस विडंबना का का कोई महत्वपूर्ण परिणाम प्रस्तुत न हो सकेगा। भूत−प्रेतों का अस्तित्व तो है, पर जन साधारण के ऊपर उनका जो प्रभाव आतंक पाया जाता है उसे एकाकार से आन्तरिक उत्पादन ही कहना चाहिए। छाया पुरुष की ही तरह देवता भी प्रकट किए जाते है और साधक की श्रद्धा के अनुरूप वे अपनी सामर्थ्य का न्यूनाधिक प्रमाण देते रहते हैं। रामकृष्ण परमहंस की काली उनके लिए जो चमत्कार प्रस्तुत करती थी वह दक्षिणेश्वर के अन्य किसी पुजारी को उपलब्ध नहीं हुआ। मीरा की भाँति कृष्णा और किसके साथ नाचने आते हैं। एकलव्य के द्रोणाचार्य जैसा गुरु कौरवों पाण्डवों को भी उपलब्ध न हो सका। श्रद्धा की शक्ति यही हैं जो झाड़ी से भूत उत्पन्न करती हैं। इसे निष्ठा और प्रज्ञा से भी उच्चस्तरीय सामर्थ्य कहा गया है।

अन्तःकरण का केन्द्र नाभिक हृदयचक्र में माना गया है। भाव सम्वेदनाएँ यहीं से उभरती हैं। सहृदयता हृदयहीनता के रूप में जो चर्चा होती है उसे इसी संस्थान का भला−बुरा स्वरूप कह सकते हैं। अपने सम्बन्ध में जैसी भी मान्यता इस क्षेत्र में गढ़ गई है उसी प्रतिमा को व्यक्तित्व की अधिष्ठात्री कहना चाहिए। “यो यच्छ्रद्धः स एव सः” के सूत्र में गीताकार ने इसी रहस्य का उद्घाटन किया है। आस्थाएँ आकाँक्षा उत्पन्न करती हैं, आकाँक्षा की प्रेरणा से विचारणा का प्रवाह चलता है। विचारणा क्रिया को धकेलती है। क्रिया के रूप में जीवन चर्या बनती है। यह दृश्यमान व्यक्तित्व है और अपने स्तर के सहयोगियों के परिस्थितियों को न्यौत बुलाता है। इस पर थोड़ा विस्तारपूर्वक विचार किया जा सके तो प्रतीत होगा कि आस्था संस्थान ही पूरी तरह व्यक्तित्व का स्वरूप गढ़ता है। जो जैसा है उसे तद्नुरूप स्वर्ग या नरक की परिस्थितियों में रहना पड़ता है। उद्यान में भौंरा पुष्प पर बैठता है और गुबरीला उसी क्षेत्र में पड़े गोबर की तलाश कर उसी में घर बनाता है। यह अपने−अपने चयन और स्वभाव की ही परिणति है। महानता और क्षुद्रता कहीं ऊपर से नहीं टपकती। यह आस्था क्षेत्र में जमी जड़ों द्वारा उत्पन्न की गई वृक्षावली ही है। विष वृक्ष उसे या कल्पवृक्ष यह निर्णय करना अपनी−अपनी आन्तरिक स्थिति पर निर्भर है। विचारशक्ति की तुलना में भावना की सामर्थ्य असंख्य गुनी है। इसी प्रकार निष्ठा से प्रज्ञा को और प्रज्ञा से श्रद्धा को क्रमशः अधिक उच्चस्तरीय, अधिक सूक्ष्म, अधिक समर्थ कहा जा सकता है। प्राण का आवरण शरीर, प्रज्ञा का संस्थान मस्तिष्क और श्रद्धा का हृदय है। इतने पर भी वे इन अवयवों के साथ जुड़ी नहीं है। वे अदृश्य जगत से अवतरित होती हैं। प्रतिनिधि चुनकर तो अपने क्षेत्रों से ही आते हैं। पार्लियामेण्ट में तो उनकी सीटें भर नियत रहती हैं। चेतना के दिव्य अनुदान मनुष्य के तीन शरीरों को मिलते हैं। वे किस आसन पर बैठें, किस कमरे में ठहरें इसी की चर्चा मूलाधार (नाभिचक्र),तृतीय नेत्र (आज्ञाचक्र), अन्तराल (हृदयचक्र) के रूप में की गई है। सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर, और कारण शरीर का उद्गम इन्हीं केन्द्रों को समझा गया है।


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