आत्मिक प्रगति का सर्वसमर्थ अवलम्बन- प्रज्ञा

January 1982

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मानवी सत्ता में सन्निहित समझ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक ‘बुद्धि’ जो शरीर यात्रा के काम आती है, तद्नुरूप चिन्तन, प्रयास एवं व्यवहार का ताना−बाना बुनती है। दूसरी वह है जो ईश्वरीय नियम मर्यादाओं में रस लेती है। क्षुद्र को महान के साथ एकीभूत बनाने के लिए उत्कृष्टता अपनाती और उच्चस्तरीय प्रगति के लिए साहस सँजोती है इसे ‘प्रज्ञा’ कहते है। बुद्धि दैत्य का–वैभव का समर्थन करती रहे और प्रज्ञा देव का समर्थन करती है। दिव्य के साथ तादात्म्य होने की उमंगों से भरी रहती है। बुद्धि का उपार्जन सम्पदा भर है। ललक लिप्सा की पूर्ति भर से उसका काम चल जाता है, किन्तु प्रज्ञा को विभूतियों से कम में चैन नहीं। विभूतियाँ अर्थात् श्रेष्ठता में रमण करने की सरसताएँ और उस मार्ग पर रास्ते में मिलने वाली परमार्थ प्रयोजनों में काम आने वाली सिद्धियाँ।

प्रज्ञा व्यक्तिगत जीवन को अनुप्राणित करती है, इसे ‘ऋतम्भरा’ अर्थात् श्रेष्ठ में ही रमण करने वाली कहते हैं। महाप्रज्ञा इस ब्रह्मांड में संव्याप्त है। उसे दूरदर्शिता विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सद्भावना, उदारता के रूप में प्राणियों पर अनुकम्पा बरसाती और पदार्थों को गतिशील− सुव्यवस्थिति एवं सौंदर्ययुक्त बनाती देखा जा सकता है। परब्रह्म की वह धारा जो मात्र मनुष्य के काम आती एवं आगे बढ़ाने,ऊँचा उठाने की भूमिका निभाती है ‘महाप्रज्ञा’ है। ईश्वरीय अगणित विशेषताओं एवं क्षमताओं से प्राणि जगत एवं पदार्थ जगत उपकृत होते हैं, किन्तु मनुष्य को जिस आधार पर ऊर्ध्वगामी बनाने−परमलक्ष्य तक पहुँचने का अवसर मिलता है उसे महाप्रज्ञा ही समझा जाना चाहिए। इसका जितना अंश जिसे, जिस प्रकार भी उपलब्ध है जाता है वह उतने ही अंश में कृतकृत्य बनता है। मनुष्य में देवत्व का–दिव्य क्षमताओं का उदय उद्भव मात्र एक ही बात पर अवलम्बित है कि महाप्रज्ञा की अवधारणा उसके लिए कितनी मात्रा में सम्भव हो सके।

महाप्रज्ञा को अध्यात्म की भाषा में ‘गायत्री ‘ कहते हैं। इसके दो पक्ष हैं–एक दर्शन दूसरा व्यवहार। तत्वदर्शन अर्थात्–’अध्यात्म’। शालीनता युक्त आचरण अर्थात्–’धर्म’। आत्मिकी क्षेत्र पर ‘गायत्री’ का आधिपत्य है और भौतिकी का सूत्र−संचालन ‘सावित्री’ करती है। यह दोनों नाम एक ही दिव्य सत्ता के हैं। यह नाम भेद उनकी प्रयोग प्रक्रिया को देखकर किया गया। एक ही व्यक्ति को कुश्ती लड़ते समय पहलवान– प्रवचन करते समय विद्वान कहा जा सकता है। दो समयों पर दो नामों से सम्बोधन किये जाने पर भी वस्तुतः वह रहता एक ही है। महाप्रज्ञा है तो एक ही पर उसे श्रद्धा भक्ति के और पुण्य प्रयोजनों में अपनी भूमिका अलग−अलग ढंग से निभाते हुए भी देखा जा सकता है। बिजली कभी हीटर जलाकर गर्मी पैदा करती है और कभी रेफ्रिजरेटर के माध्यम से बर्फ जमाती है। यह एक ही शक्ति की दो प्रक्रिया मात्र हैं। गायत्री की–महाप्रज्ञा की परिणति अन्तःक्षेत्र में–दिव्य लोक में–विभूतियों की तरह और भौतिक क्षेत्र में–लोक −व्यवहार को ‘ऋद्धि’ एवं ‘सिद्धि’ भी कहते हैं।

महाप्रज्ञा असंख्य समर्थताओं की जन्मदात्री है, गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। इसके तीन चरण−सत्, चित्, आनन्द के नाम से जाने जाते हैं। उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती का त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है। देव प्रतिपादन में इन्हीं का ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं सरस्वती, लक्ष्मी, काली के नाम से अलंकारिक उल्लेख होता है। तत्वदर्शी इन्हीं त्रिविधि प्रवाहों को सद्−रज−तम की संज्ञा देते और समग्र सृष्टि का आधार भूत कारण मानते हैं। गायत्री को वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता कहा गया है। (1)वेद अर्थात्−−दिव्यज्ञान। वेदमाता अर्थात्−−दिव्यज्ञान की अधिष्ठात्री। (2)देव अर्थात् पवित्र और प्रखर। देवमाता अर्थात् अपने अंचल में बैठने वाले की सत्ता को देवोपम बना देने वाली। (3) विश्व अर्थात् विराट्। विश्वमाता अर्थात् अनेकता को एकता में, बिखराव का केन्द्रीकरण में समेटने वाली− वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर आत्मीयता को व्यापक बनाने वाली। इस त्रिवेणी में मनुष्य की आस्था, विचारणा एवं प्रवृत्ति को−समग्र चेतना को−स्नान करने का अवसर मिलता है तो स्थिति काया−कल्प जैसी बन जाती है। इन त्रिविधि अनुदानों की प्राप्ति के लिए भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की पुण्य प्रक्रिया का सुविस्तृत साधना तन्त्र खड़ा किया गया हैं। इन्हीं के सहारे कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर को परिष्कृत किया जाता है।

देव संस्कृति का भाव पक्ष ब्रह्म विद्या कहलाती है। ब्रह्म विद्या का विवेचन आर्ष वाङ्मय में हुआ हैं। आप्त वचनों में उसी की चर्चा होती है। वेद, उपनिषद्, दर्शन, आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र पुराण आदि, आदि के रूप में जितना भी शास्त्र विवेचन है उसे ब्रह्म विद्या की व्याख्या विवेचना कह सकते हैं। इस सारे विस्तार में महाप्रज्ञा गायत्री का ही विभिन्न स्तरों पर प्रकाश डाला गया है। भगवान के अवतार 24 हुए हैं। यह गायत्री के चौबीस अक्षरों में सन्निहित रहस्यों का−−−एक−एक करके−−एक−एक प्रयोजन के लिए किया गया रहस्योद्घाटन ही समझा जा सकता है। एक ही तथ्य को मानवी संरचना एवं आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया गया यह विवेचन भी है जिसे ब्रह्म विद्या के अंतर्गत माना गया विशालकाय शास्त्रीय निर्धारण कहा जा सकता है। एक शब्द में इस समस्त परिवार को गायत्री का तत्व दर्शन भी कह सकते हैं। इस प्रतिपादन में वह समूचा निर्धारण विद्यमान है जो मनुष्य को उच्चस्तरीय प्रगति के मार्ग पर चलते हुए अभीष्ट अनिवार्य होता है

ज्ञान और कर्म का युग्म है। सिद्धांत और अभ्यास के समन्वय में ही किसी तथ्य को हृदयंगम करना, स्वभाव व्यवहार में उतारना शक्य होता है। ज्ञान का दूसरा पक्ष विज्ञान है। ज्ञान अर्थात् आस्था, विज्ञान अर्थात् पराक्रम। दोनों के समन्वय से ही एक पूरी बात बनती है। बिजली के ऋण और धन प्रवाहों के समन्वय से ही ‘करेंट’ (विद्युतीय प्रवाह ) उत्पन्न होता है। महाप्रज्ञा का ब्रह्मविद्या पक्ष अन्तःकरण को उच्चस्तरीय आस्थाओं से आनन्द विभोर करने के काम आता है। दूसरा पक्ष साधना है, जिसे विज्ञान या पराक्रम कह सकते हैं, इसके अंतर्गत आस्था को उछाला और परिपुष्ट किया जाता है। मात्र ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता। कर्म के आधार पर उसे संस्कार, स्वभाव,अभ्यास के स्तर तक पहुँचाना होता है। साधना का प्रयोजन श्रद्धा को निष्ठा में−−निर्धारण की−−अभ्यास की−−स्थिति में पहुँचाना है। इसलिये परमहंसों, तत्व ज्ञानियों एवं जीवनमुक्तों को भी साधना का अभ्यास क्रम नियमित रूप से चलाना होता है।

चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने की प्रक्रिया योग से और आदतों को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता के क्षेत्र में उछाल देने की आवश्यकता ‘तप’ के सहारे सम्पन्न की जाती है। प्रवाह को मोड़ने−मरोड़ने के लिए इससे कम में बात बनती ही नहीं। मान्यताएँ और आदतें बड़ी ढीठ होती हैं। समझाने−बुझाने से वे औचित्य के सामने हतप्रभ तो हो जाती हैं पर अपनी स्थिति बदलने को तैयार नहीं होतीं। तर्क में हार जाने पर ऊपरी मन से स्वीकार करना एक बात है और इस आधार पर अपने स्वभाव−व्यवहार में परिवर्तन कर लेना दूसरी। तर्क प्रमाणों से काम चल गया होता तो स्वाध्याय, सत्संग की प्रचलित प्रक्रिया ने ही लोक−मानस का काया−कल्प कर दिया होता। लेखनी वाणी से ही अवाँछनीयता का प्रवाह कब का उलट दिया गया होता। किन्तु यथार्थता दूसरी ही है। गुण−कर्म−स्वभाव की–मान्यता और आदत के रूप में अन्तरंग की जैसी भी संरचना बन गई होती है उसे रास्ता बदलने के लिए तत्पर कर लेना टेढ़ी खीर है। सदाशयता का ढोल बजाने वाले दुष्ट प्रयोजनों में निरत देखे गये हैं। कारण एक ही है–हठी अन्तराल–अभ्यस्त आदतों को बदलने के लिए जितने दबाव की जरूरत थी उतना दबोचा नहीं गया। अनुपयोगी को गलाने और उपयोगी को ढालने के लिए ऊँचे तापमान की भट्टी जलानी पड़ती है। इससे कम में−−मात्र उलट−पुलट करने भर से अशुद्ध धातुओं का परिशोधन कहाँ बन पड़ता है? हठी अन्तराल को उत्कृष्टता की दिशा में उछालने के लिए योग और तप का साधना क्रम अपनाये बिना काम नहीं चलता।

ऊपर से नीचे को घसीट लेने के लिए तो पृथ्वी की प्रचण्ड गुरुत्वाकर्षण शक्ति बिना किसी प्रयत्न के सदा सर्वत्र विद्यमान रहती है। पानी को गिराते ही नीचे की ओर बहने लगती है। किन्तु ऊपर चढ़ने−चढ़ाने के लिए नये साधन जुटाने पड़ते हैं और उछालने में लगने वाली शक्ति जुटाने का प्रबन्ध करना होता है। अन्यथा उठने, उभरने, उछलने की बात कल्पना मात्र ही बनी रहेगी। कथा, प्रवचन सुनना, पूजा पाठ करना अपने स्थान पर सही है और उसका सीमित लाभ भी होता है किन्तु व्यक्तित्व के अन्तरंग एवं बहिरंग को यदि निकृष्टता से विरत करने और उत्कृष्टता को साथ जोड़ने का कायाकल्प करना हो तो उस प्रत्यावर्तन के लिये साधना की ऊर्जा अनिवार्य रूप से जुटानी पड़ेगी। इसी प्रयोजन के लिये योग तप की उभयपक्षीय साधना करनी पड़ती है। योग से विचारणा पर और तप से आदतों पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकना सम्भव होता है।

महाप्रज्ञा की साधना में कोई प्रकार के उपचार कृत्यों की–कर्मकाण्ड की–साधना विधानों की आवश्यकता पड़ती है। व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति और परिस्थिति को–ध्यान में रखते हुए साधनाओं का निर्धारण तो पृथक−पृथक ही होता है, पर सिद्धान्त एक ही रहता है। चिन्तन के क्षेत्र में समाविष्ट पशु−प्रवृत्तियों के पक्ष को मल्ल−युद्ध के लिए मोर्चे पर खड़ा कर दिया जाता है और योग साधना के अंतर्गत ऐसा सरंजाम जुटाया जाता है जिसमें अनास्थाओं को हटाने और देवत्व को जीतने का मूलभूत प्रयोजन पूरा हो सके। योग में निकृष्टता से पीछा छुड़ाना और उत्कृष्टता के साथ सघन सम्बन्ध जोड़ देना यह दोनों ही कदम उठाने पड़ते हैं। मात्र निकृष्टता से पीछा छूटना भर पर्याप्त नहीं, उत्कृष्टता का सम्वर्धन क्रम भी चलना चाहिए। रोग से पीछा छूटना आवश्यक तो है किन्तु पर्याप्त नहीं। चिकित्सा उपचार की ही तरह व्यायाम, पौष्टिक आहार, उपयुक्त जलवायु का प्रबन्ध भी स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए करना पड़ता है। चिकित्सा और परिचर्या दोनों ही आवश्यक हैं। योग धारणा में उन आस्थाओं को हृदयंगम किया और अन्तराल में जमाया जाता है जो आत्मा को परमात्मा तक पहुँचाने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक होती हैं।

योग मन को उलटता–मरोड़ता है। गलाई ढलाई के लिए आवश्यक श्रद्धा साहसिकता का–तप का भी उद्देश्य तो यही है। किन्तु कार्यक्षेत्र एवं विधि−विधान में पृथकता है। तप का क्षेत्र शरीर है। शरीर पर आदतें प्रवृत्तियाँ छाई रहती हैं। विलासिता, सुविधा की माँग इन्द्रियाँ करती रहती हैं। मन पर तृष्णा और अहंता का ललक छाई रहती है। लोभ, मोह और बड़प्पन का रुचिकर विषय है। शरीर को इन्द्रियजन्य अनेकानेक भोग उपभोगों के जायके चाहिए। इन समस्त ललक लिप्साओं के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर देना–हठपूर्वक पूर्वाभ्यासों का प्रतिरोध परित्याग करना तपश्चर्या का आधारभूत प्रयोजन है।

योग के क्षेत्र में स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मन के चार व्यावहारिक और जप,ध्यान,प्राणायाम, मुद्रा बन्ध, नाद, लय आदि कितनी ही प्रक्रियाएँ बताई, अपनायी जाती हैं। तप में अस्वाद, उपवास, ब्रह्मचर्य, शरीर सेवा में आत्म−निर्भर, भूमि शयन, ऋतु प्रभावों का सहन, मौन आदि ऐसे क्रिया−कृत्य आते हैं जिनमें शरीर को यह अनुभव करना पड़े कि उसे उच्चस्तरीय प्रगति का अभ्यास करना पड़ रहा है। आदतों का–आकाँक्षाओं का प्रतिरोध करने में स्वभावतः अनख लगता और कष्ट होता है। इसके अतिरिक्त आदर्शवादिता अपनाते ही अवाँछनीयता व्यंग्य, उपहास, असहयोग, विरोध करने पर उतरती है और चिढ़कर हानि भी पहुँचती हैं। महानता के मार्ग पर चलने वालों को कदम बढ़ाने से पूर्व इस सम्भावना को ध्यान में रखना चाहिए और उसकी पूर्व जानकारी एवं तैयारी रहने के रूप में विभिन्न प्रकार की तितिक्षाएं करते रहने की विधि व्यवस्था अपनानी चाहिए।


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