जीवन सम्पदा का मूल्यांकन और सदुपयोग

January 1982

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इस विश्व ब्रह्माण्ड की अजस्र शक्ति और सम्पदाओं में से जीवात्मा के हिस्से में जो सर्वोपरि उपहार आता है उस वैभव को मनुष्य जीवन कहा जा सकता है। दृष्टि पसार कर देखने पर प्राणी के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और कुछ हो ही नहीं सकती। अन्य जीवधारियों को जो काय−कलेवर मिला है उससे प्रकृति की इच्छा ही पूरी होती है। आत्मा या परमात्मा को कोई प्रसन्नता या सम्भावना की आशा नहीं रहती। क्योंकि उन शरीरों की क्षमता मात्र इतनी ही है कि निर्धारित आयुष्य को पूरा करने के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भर करते रह सकें।

शरीर के लिए आहार–आहार के लिए श्रम–श्रम की प्रेरणा भूख से। यह प्राणि−जगत की हलचलों का एक प्रयोजन है। दूसरा है–वंश रक्षा। प्रकृति चाहती है–धरती प्राणियों से रहित न रहे। मरण की तरह जन्म की प्रक्रिया भी चलती रहे। इस कट−साध्य कार्य का दबाव पड़ता है। इस व्यर्थ के कष्टकर झंझट को कोई क्यों वहन करे। इस उलझन को सुलझाने के लिए मनःक्षेत्र में एक ऐसी उमंग उत्पन्न की गई जिससे प्रेरित होकर प्राणी यौन−कर्म की ओर आकर्षित हो और परिवार बढ़ाये। यही है दो प्रयोजन जिनमें हर वर्ग और स्तर के प्राणी निरत पाये जाते हैं। इन्हीं दो उपक्रमों में उनकी जीवनचर्या घड़ी के पेण्डुलम की तरह झूले−झूलती रहती है। इन दोनों प्रयोजनों के लिए हर प्राणी में सामर्थ्य एवं कुशलता है। न इससे कम न अधिक।

मनुष्य जीवन इस सामान्य की तुलना में कहीं अधिक असामान्य है। उसे ऐसी काय−संरचना तथा बुद्धि सम्पदा उपलब्ध है जिनके सहारे वह आगे की सोच सकता है और ऊँचा उठ सकता है। काया की संरचना भी ऐसी है जिसे न केवल असामान्य प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सके वरन् कला−कौशल के ऐसे भाव−संवेदना भी हस्तगत कर सके जिसमें अन्तःकरण प्रफुल्लता से भर सके। अपना बहुमुखी हित साधन हो सके और उपलब्धियों का लाभ असंख्यों को वितरण करके कृत−कृत्य हो सके।

मनुष्य ही है जिसने भाव−सम्वेदना, विचारणा एवं निर्धारण की क्षमता को सुसंस्कृत सुनियोजित बनाकर अपनी आन्तरिक गरिमा को उच्चस्तरीय बनाया है। महामानव से लेकर नर−नारायण बन सकने जैसी विभूतियों को करतलगत किया है। प्रसुप्त क्षमताओं को जाना, उभारा और लाभ उठाया है। शरीर की इन्द्रिय तृप्ति सर्वविदित है, किन्तु मनुष्य ही है जिसने भाव−सम्वेदना को परिष्कृत करके संतोष, आनन्द, उत्साह, उमंग जैसी अदृश्य भाव−सम्वेदनाओं से अपने उपलब्धियाँ हैं। तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का आनन्द वही लेता है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के कारण अवसर उसी को मिला है। जबकि अन्यान्य प्राणी मात्र पेट प्रजनन के निमित्त कुछ करने और कुछ पाने का ही उथला−सा आनन्द ले सके।

मनुष्य ही है जिसने प्रकृति को मथ डाला और उसके अन्तराल में गहरी डुबकी लगाकर रहस्यमयी रत्न−राशि पर कब्जा जमाया। प्रकृति ने हर प्राणी को उसके निर्वाह भर के अनुदान दिये हैं। शेष को किन्हीं अविज्ञात प्रयोजनों के लिए अपनी रहस्य भरी तिजोरी में सात तालों के भीतर छिपा रखा है। मनुष्य ने चाबी ढूँढ़ी और रहस्य भरे वैभव का भारी मात्रा में माल असवाय अपने कब्जे में कर लिया। अभी भी उसका प्रयास समूची सम्पदा हस्तगत करके सृष्टा न सही अधिष्ठाता–अधिकारी कहाने का श्रेय तो प्राप्त कर ही ले। पौराणिक युग के रावण, वृत्तासुर, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, मारीच, सहस्रार्जुन आदि आज के मनुष्य की तुलना में बहुत पीछे रह गये हैं।

यह हैं मानवी उपलब्धियां। आत्मिक क्षेत्र का उसे बृहस्पति और भौतिक क्षेत्र का शुक्राचार्य दोनों का समन्वय कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। यह उस विश्वमानव का समष्टि मानव का स्वरूप है जिसकी उपलब्धियों की मुक्त कण्ठ से सराहना करनी पड़ेगी। यों उसका एक विनाशकारी पक्ष भी है जिसमें उपलब्धियों के दुरुपयोग की दुःखद दुर्घटना भी सम्मिलित है। ऐसी दुर्घटना जिसके कारण यह स्वयं पिछड़ी, पतित और कष्टकर स्थिति में फँसा और समूचा वातावरण विषाक्त बनाकर रख दिया। अवाँछनीय आकांक्षा और आदतों को अपनाकर जिस दुर्गति का वरण किया है उसे देखते हुए कई बार आश्चर्य होता है कि क्या यही मनुष्य है जिसने आत्मिक विभूतियों और भौतिक सिद्धियों का आश्चर्यजनक वैभव अर्जित करने में सफलता पाई।

ऊपर की पंक्ति यों में जो कुछ भी ऊहापोह किया जा रहा वह मनुष्य जीवन की समर्थता एवं सम्भावना की एक उथली−सी झाँकी है। मनुष्य जन्म सचमुच ही इतना बड़ा दैवी उपहार है जिसकी तुलना में अधिक मूल्यवान् इस समूचे संसार में और कुछ मिल सकना कठिन है। मानवी सत्ता की वरिष्ठता को खोजने में यदि बढ़ते ही चला जाय तो यहाँ पहुँचना पड़ेगा जहाँ उसने ईश्वर की–भौतिकी−आत्मिक की–शिक्षा, चिकित्सा की तथा और भी न जाने किस−किस की सृष्टि की है। ब्रह्माण्ड का सृष्टा तो परमात्मा ही है, पर इस सृष्टि में जो कुछ भी शोभा−सज्जा, प्रगति एवं प्रसन्नता दिखाई पड़ती है, उसे प्रकारांतर से मनुष्य का ही अर्जन, उपार्जन कहना चाहिए। इस सबका श्रेय मनुष्य के सर्वसमर्थ जीवन को है। उसकी अनन्त सम्भावनाओं में से अभी कुछ ही चरितार्थ हुई हैं, जिनका प्रकटीकरण शेष है उनकी तो कल्पना करने भर से रोमाँच हो उठता है।

असमंजस इस बात का है कि इन दिनों ऐसी दुर्गति का सामना करना पड़ रहा है जिसमें उसका शरीर दुर्बलता, रुग्णता से ग्रसित होकर आमतौर से अकाल मृत्यु का वरण करता है। मानसिक दृष्टि से तनाव, असन्तोष, खीज, भय, आशंका, चिन्ता, आक्रोश, जैसा उद्विग्नताओं के कढ़ाव में उबलता रहता है। जिस अद्भुत मनःसंस्थान से हर घड़ी प्रसन्नता प्रफुल्लता झरती रहनी चाहिए, उस पर श्मशान जैसी वीभत्स जुगुप्सा छाई रहे तो उसे दुर्भाग्य−दुर्विपाक ही कहना चाहिए। अन्य प्राणियों की तुलना में निर्वाह स्वल्प एवं सरल, उपार्जन की क्षमता अत्यधिक–इस स्थिति में उसे साधनों के सम्बन्ध में हर घड़ी प्रसन्न सन्तुष्ट रहना चाहिए। इतने पर भी यदि आर्थिक तंगी छाई रहे, दरिद्रता और कंगाली का अभिशाप लदा रहे तो समझना चाहिए कि कहीं न कहीं भयानक गलती हो रही है। पारिवारिक जीवन को धरती का स्वर्ग और भाव−सम्वेदनाओं से भरा−पूरा नन्दन वन कहा गया है। उसमें रहने व्यक्ति को हर घड़ी मनोमालिन्य, असन्तोष, असहयोग का सामना करना पड़े–विरोध−विग्रह बना रहे और भटियारों की सराय जैसा–कैदखाने जैसा वातावरण बना रहे तो समझना चाहिए कि परिवार तन्त्र की गरिमा, उपयोगिता, व्यवस्था एवं आचार संहिता समझी समझाई ही नहीं गई। अन्यथा हर घर−घरौंदे में स्नेह−सहयोग का वातावरण होता और गरीबी में भी अमीरी से बढ़कर प्रसन्नता का रसास्वादन उस समुदाय का हर सदस्य करता रहता।

कहाँ तो मनुष्य की विशिष्टता, वरिष्ठता और कहाँ पशु−पक्षियों से भी बीती हेय−हीनता। आखिर या आकाश, पाताल जैसा अभ्यन्तर बना कैसे? आया कहाँ से? लद पड़ा क्यों कर? इन अनबूझ पहेलियों को सुलझाते−सुलझाते, ओर−छोर ढूंढ़ते–ढूंढ़ते वहाँ पहुँचना पड़ता है,जहाँ विडम्बना के उद्गम केन्द्र को जाना−पहचाना जा सके। असमंजसों की जन्मदात्री है–मानवी की गरिमा के प्रति छाई हुई अनभिज्ञता। इस विभूति का सही मूल्याँकन न कर सकने और उसके सदुपयोग से अपरिचित होने की मूढ़ता।

समर्थता से –सम्पन्नता से लाभान्वित होने की बात तभी बनती है जब उसकी उपयोगिता समझी जा सके। साथ ही विभूतियों का सदुपयोग करा सकने वाली दूर−दर्शिता उभरे, अन्यथा सामर्थ्य दुधारी तलवार है। वह जहाँ सुरक्षा का उद्देश्य पूरा करती है, आततायी आक्रमणों को रोकती है, वह वहाँ उलटकर आत्मघात का भी निमित्त कारण बनती है। ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि अनुकम्पा की प्रतीक जीवन−सम्पदा है। इससे बढ़कर जीव को देने योग्य ईश्वर के खजाने में कोई रत्न−राशि है नहीं। साथ ही यह भी निश्चित है कि सर्वसमर्थ उपादान प्राप्त करने के उपरान्त और कोई आवश्यकता रह भी नहीं जाती।

प्रश्न सदुपयोग कर सकने की क्षमता का है। वह न बन पड़े तो हर महत्वपूर्ण व्यक्ति पर उलट कर उतनी ही घातक भी सिद्ध होती है। आग, बिजली, बारूद, औषधि, अस्त्र की तरह ही वैभव की भी गरिमा माननी पड़ती है, किन्तु सर्वविदित है कि यदि इनका दुरुपयोग होने लगे तो कोई व्यक्ति देखते−देखते अपना और अपने परिवार का सर्वनाश कर सकता है। विभूतियाँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उनसे भी अधिक उस विवेक बुद्धि की गरिमा है जो उनके सदुपयोग की पृष्ठभूमि बनाती, व्यवस्था जुटाती और अग्रगमन की साहसिक मनोभूमि उत्पन्न करती है। यह न समझना चाहिए उपलब्धियाँ उलटकर विपत्ति ही बनेंगी।

ऐसी स्थिति में तो अभावग्रस्त ही नफे में रहते हैं। ये स्वल्प से गुजरा तो करते हैं, पर साथ ही किसी विपत्ति में तो नहीं फँसते। पशु−पक्षी किसी प्रकार दिन काटने जितनी सुविधा ही प्राप्त कर सके हैं, किन्तु उतने भर से ही चैन की जिन्दगी जी लेते हैं। चहकते, फुदकते, उठते हैं–उछलते−फुदकते दिन बिताते हैं और दिन छिपते ही पैर फैला कर सोते हैं। मनुष्य जितना खिन्न उद्विग्न, है उनमें से एक भी देखा जाता। फिर विभूतियाँ पाने का लाभ क्या हुआ? अपने को, संबंधियों को जलाते−कुढ़ाते जी लेने और अन्त में पापी की गठरी सिर पर लाद कर अँधेरे भविष्य की ओर चल पड़ने में क्या कुछ हाथ लगा? जिस सौभाग्य पर समस्त प्राणि जगत ईर्ष्या कर सकता है उसे भवसागर के नाम से जानी जाने वाली सड़ी−कीचड़ में धँसे−फँसे रहकर उजाड़ देने को क्या कहा जाय? दुर्भाग्य इसलिए कहते नहीं बन पड़ता कि जीवन ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है। ऐसा उपहार जिसके लिए प्राणि जगत का प्रत्येक सदस्य लालायित रहता है। सौभाग्य कह सकना इसलिए कठिन है उससे न अपना भला हुआ और न किसी अन्य ने सुख पाया सराहा।

इस विसंगति भरी विपन्नता−विडम्बना का कारण क्या हो सकता है, जिसके कारण उपलब्ध−सौभाग्य−दुर्भाग्य की तरह भारभूत रहता और कष्टकारक सिद्ध होता है। जबकि इतने ही साधन के सहारे असंख्यों को भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र की महान उपलब्धियाँ करतलगत करने का श्रेय सौभाग्य मिलता है।

परिस्थितियों और सुविधाओं की न्यूनता−प्रतिकूलता को आमतौर से प्रगति पथ का व्यवधान कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः जैसा कुछ है नहीं। इतिहास साक्षी है कि अभावग्रस्त गई गुजरी परिस्थितियों में जन्मे पले व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजनों की दिशा में बढ़े और व्यवधानों को चीरते हुए सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचे हैं। मोटी बुद्धि कुछ भी समझती रहे, दुनिया कुछ भी कहती रहे पर यह तथ्य अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों को बनाती सुधारती है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता इसी कारण है कि वह अपने दृष्टिकोण–स्वभाव एवं पराक्रम को उपयोगी बनाकर व्यक्तित्व की प्रचण्ड सृजनात्मक शक्ति का प्रमाण परिचय दे सकता है।

मनुष्य की उपलब्धियाँ महान हैं, पर भ्रांतियां, अवाँछनीयताएँ भी इतनी हैं जिन्हें किसी अभिशाप जैसी कहा जाना चाहिए। अभिशापों में सबसे दुरूह सबसे दुस्तर–सबसे कष्टकारक है जीवन की गरिमा न समझ पाना और उसका स्तर उभारने के सम्बन्ध में अन्यमनस्क रहता। इस एक गलती को सुधारा जा सके और किसी प्रकार यह हृदयंगम कराया जा सके कि “लोक−प्रचलन एवं अभ्यस्त ढर्रा जीवन सम्पदा के सदुपयोग में सहायक नहीं है। उसका नये सिरे से पर्यवेक्षण एवं निर्धारण की आवश्यकता समझी जानी चाहिए” तो समझना चाहिए कि व्यक्ति और समाज को संत्रस्त करने वाली समस्याओं में से आधी को अनायास ही सुलझाने का सूत्र हस्तगत हो गया।

उपेक्षा बरतने से कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य, परिवार आदि सभी क्षेत्रों में घाटा सहना पड़ता है। जीवन की उपयोगिता−क्षमता−सम्भावना एवं सही प्रयोग प्रक्रिया के प्रति उपेक्षा भी ऐसी कष्टकारक है जिसे दूसरे शब्दों में अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने या आत्म−हत्या करने जैसी स्वनिर्मित विपत्ति कहा जा सकता है। सर्वत्र फैले हुए पिछड़ेपन के कारणों में यों गिनाया तो बहुत कुछ जा सकता है पर उनमें प्रमुख एक ही है–जीवन के प्रति अज्ञान अथवा उपेक्षा भाव। इस अवरोध को हटाया जा सके तो मानवी क्षमता को सही दिशाधारा मिल सकती है इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि इस संसार में कहीं कोई कमी, समस्या या विपत्ति-विभीषिका शेष न रहेगी।


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