ईश्वरीय अनुग्रह सबके लिए सहज सुगम

September 1979

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परमात्मा का अनुग्रह वरदान जिन लोगों पर बरसता है उनका ऐहिक और आत्मिक जीवन कृतकृत्य हो उठता है। प्रत्येक पिता अपने पुत्र को सम्पूर्ण हृदय से प्यार करता है और उसकी सुख-सुविधा के लिए हर सम्भव प्रयास करता है। सीमित और संकीर्ण होने के कारण उस स्नेह को मोह की संज्ञा भी दी जाती है। लाड़-प्यार भी कहा जा सकता है। इस तरह की मोह-ममता में सन्तान का अहित होने की सम्भावना भी रहती है। परन्तु परमात्मा अपने पुत्रों को शुद्ध स्नेह, प्रगाढ़ प्रेम करता है। जिसमें सभी का हित सधता है।

ईश्वर को चूँकि अपने सभी पुत्र समान रूप से प्रिय है। न कोई विशेष प्रिय है और न ही उसका किसी पर कम स्नेह है। जहाँ सबके प्रति समदृष्टि हो वहाँ कुछ नियम मर्यादायें भी बनानी पड़ती है। परमात्मा का अनुग्रह सबके लिए उपलब्ध है परन्तु उसके साथ कुछ शर्तें भी जुड़ी हुई है। हर जरूरतमंद को हथियार मिल सकते है, परन्तु यदि उनका दुरुपयोग होता हो तो प्रशासन उन्हें जब्त भी कर लेता है।

परमात्मा का अनुग्रह उसके अनुदान, वरदान नितान्त सम्भव सहज उपलब्ध है, किन्तु यह सब किसी को बिना शर्त नहीं मिल सकते। बैंक की पूँजी से अनेकों उद्योग चलते है। अनेकों को ऋण मिलते है, पर वह उधारी प्राप्त करने के लिए बैंक का अंकुश भी स्वीकार करना होता है। प्राप्त धन उन्हीं कार्यों में लगाया जा सकता है जिस लिए बैंक ने सहमति दी है। उस ऋण को मनमर्जी के हर काम में खर्च नहीं किया जा सकता। दूसरी शर्त यह रहती है कि ऋण का मूलधन ही नहीं उसका ब्याज भी लौटाने की तैयारी रखी जाय। इन शर्तों को तोड़ने पर बैंक के सहयोग का सिलसिला बन्द हो जाता है और मिली हुई पूँजी वापिस करने को विवश होना पड़ता है, भले ही उस दबाव से कारोबार ही क्यों न बन्द हो जाय। बैंक का ऋण लूट का माल नहीं है जिसे अपनी मर्जी से चाहे जिस प्रकार खर्च किया जाय और वापिस करने के नाम पर अँगूठा दिखने का इरादा रखा जाय।

शर्त है-सम्पूर्ण आत्म-समर्पण अर्थात् अपनी खुदी को मिटा देना।

मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तवा चाहे कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलजार होता है।

आत्म समर्पण में जितनी गहराई होती है उसी अनुपात से ईश्वरीय अनुग्रह बरसता है। आदान-प्रदान का सिद्धांत सर्वत्र काम करता है। भक्त और भगवान के बीच भी घनिष्ठता स्थापित होने में भी यही सिद्धान्त काम करता है। इस आधार पर भक्त जन ईश्वर की समीपता पाते और अनुकम्पा खरीदते है। इस तथ्य को यदि पूरी तरह हृदयंगम किया जा सके तो परिजनों में से प्रत्येक के जीवन में काया-कल्प प्रस्तुत हो सकता है और एक ऐसे सहयोगी की सच्ची घनिष्ठता प्राप्त कर सकने का अवसर मिल सकता है जो सर्व समर्थ है और जिसका अनुग्रह इतना बहुमूल्य है जितना समस्त संसार का समन्वित वैभव। इस क्षेत्र की सफलता को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति कहते है। इसे प्राप्त करने वाले स्वर्ग में रहते-मुक्ति फल पाते और इसी कार्यों में रहते हुए देवताओं जैसा आंतरिक सन्तोष और ब्रह्म सम्मान सहयोग प्राप्त करते हुए सत्-चित् आनंद की स्थिति प्राप्त करते है। इसके लिए किये गये प्रयासों को परम पुरुषार्थ कहा गया है। ईश्वर के सान्निध्य से परिष्कृत व्यक्तित्व के कण-कण से सिद्धियों का वैभव झरता रहता है।

उपासना गहरी, जीवन्त, सरस, और सफल हो सके इसकी एक ही शर्त है कि उसे प्राणवान् बनाया जाय। उसके साथ सघन संपर्क मिलाने पर ही आशाजनक अनुदानों की अपेक्षा की जा सकती है। यह सघन संपर्क कैसे हो इसका ‘तत्व-दर्शन’ पूजा उपासना के क्रिया-कृत्यों से-भजन-पूजन के निर्धारित कर्मकाण्डों से सीखा जा सकता है। अर्चा आराधना के विधि-विधान, हमें उन तथ्यों से परिचित कराते है, जिनके सहारे ईश्वर तक पहुँचना-उसके साथ घनिष्ठता स्थापित करना और अनुग्रह का लाभ ले सकना सम्भव होता है। धन का स्पर्श करके दूध दुहा जाता है, यह बात सही है, पर इसमें इतना और जोड़ना चाहिए कि स्पर्श मात्र से ही, दूध की धार नहीं छूटती। थनों को हाथों से सुहलाने की एक ऐसी विशेष क्रिया भी, करनी होती है जो बछड़े द्वारा मुँह से थन चूसने के समतुल्य हो। ईश्वर भक्ति की सफलता इस बात पर निर्भर है कि भक्त ने भगवान से कितनी वास्तविक सघनता स्थापित की। बछड़े जैसा स्तर अपना बनाया जाय ताकि माता हमें अपना बालक मानने लगे और भावभरा पयपान कराने के लिए-आतुर रह सके। पाने के लिए, देने के लिए नहीं, जब अपने मन में उमंग उठने लगे तो समझना चाहिए कि जीवन व्यवसाय में ईश्वर की साझेदारी की पृष्ठभूमि बन गई। यह आधार खड़ा करने के लिए इन्हीं दिनों हमें अपने को-अपने दृष्टिकोण को उलटने का प्रबल प्रयास करना चाहिए। इस परिवर्तन के लिए ही साधना, उपासना का विशालकाय कलेवर खड़ा है। हम इस तथ्य को समझें। अपने को ईश्वर का बनावें ताकि यह हमारा बन सके। प्रगति का-सुख-शांति का-सच्चा मार्ग यही है।

ईश्वर के सान्निध्य से किसने क्या पाया ऐसे अगणित उदाहरण प्राचीन और अर्वाचीन प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है। हनुमान, अंगद, नल-नील जैसे रीछ-वानरों की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति तुच्छ थी। उनने भक्ति का मार्ग अपनाया और भगवान का अनुग्रह खरीदा। इस उपार्जन से चमत्कारी कार्य कर सके और हर दृष्टि से धन्य बन सके। कृष्ण के भक्तों में अर्जुन और सुदामा के नामों की गणना अग्रणी है। वे आत्मिक और साँसारिक क्षेत्रों में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सके। मनुष्य होते हुए भी ईश्वर का व्यक्तित्व विकसित करने वाले अनेकों महामानव अपनी कृतियों के कारण धरती के देवता कहलाते रहे हैं। बुद्ध, महावीर, मूसा, ईसा, जरथुश्त्र, मुहम्मद जैसे देवात्माओं का एक मात्र बल दैवी अनुग्रह ही था। सन्तों में भागीरथ, हरिश्चंद्र, ध्रुव, प्रहलाद, शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, नानक, कबीर, रामदास, रामकृष्ण, रामतीर्थ, विवेकानन्द, चैतन्य दयानन्द, गाँधी आदि की गणना की जा सकती है। वे स्वयं पार उतरे और असंख्यों को अपनी नाव पर बिठा कर पार करने में समर्थ हुए। न उन्हें सन्तोष की कमी रही-न सम्मान की- न सहयोग की-न साधनों की। ईश्वर भक्ति के सत्परिणाम असीम है। उसके लिए प्रयत्न करना सर्वोपरि बुद्धिमता का चिन्ह है। इस स्तर के प्रयासों को ही परम पुरुषार्थ नाम दिया है जो अक्षरशः सही है।

“पूजा करना-मंशा पूरी कराना” यह बात प्रलोभन भर है। तथ्यपूर्ण नहीं। ईश्वर को हमें अपनी मर्जी पर चलाने में तभी सफलता मिल सकती है जब हम पहले उसकी मर्जी पर चलना सीखें। प्रलोभन और प्रशंसा की कीमत पर भगवान जैसी दिव्य चेतना को फुसलाकर अपना उल्लू सीधा करने में न आज तक किसी को सफलता मिलती है और न भविष्य में किसी को मिलेगी। यदि इतनी छोटी प्रक्रिया में ईश्वरीय अनुग्रह, प्राप्त करना सम्भव रहा होता तो मन्दिरों के पुजारी, तन्त्र-मन्त्र में उलझने-उलझाने वाले देव व्यवसायी अब तक करोड़पति बन गये होते उनमें दरिद्र और विपन्न एक भी दिखाई न पड़ता।

ईश्वर प्राप्ति के लिए ऐसा दृष्टिकोण एवं क्रियाकलाप अपनाना पड़ता है जिसे प्रभु समर्पित जीवन कहा जा सके। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मिक प्रगति का मार्ग अपनाना पड़ता है और वह यह है कि हम प्रभु से प्रेरणा की याचना करें और उसके संकेतों पर चलने का साहस करें। उपासना का मर्म और उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने लक्ष्य को-इष्ट को समझे और उसे प्राप्त करने के लिए प्रबल प्रयास करे। उपासना कोई क्रिया-कृत्य नहीं है। उसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए। आत्म-परिष्कार और आत्म-विकास का तत्व-दर्शन ही अध्यात्म है। उपासना उसी मार्ग पर जीवन प्रक्रिया को धकेलने वाली एक शास्त्रानुमोदित और अनुभव प्रतिपादित पद्धति है। इतना समझने पर प्रकाश की ओर चल सकना बन पड़ता है। जो ऐसा साहस जुटाते है, उन्हें निश्चित रूप से ईश्वर मिलता है। अपने को ईश्वर के हाथ बेच देने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को खरीद सकने में समर्थ होता है। ईश्वर के संकेतों पर चलने वाले में ही इतनी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि ईश्वर को अपने संकेतों पर चला सके। लालच की पूर्ति के लिए ईश्वर को फुसलाने वाली विडंबनायें लोग रचते तो है, पर उनमें किसी का भी सफल होना असम्भव है। ज्ञान का देवता-अज्ञानियों की लिप्सा पूरी करने के लिए निमित्त बनना स्वीकार कर लेगा ऐसा आशा करना दुराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

यहाँ वास्तविक और अवास्तविक घनिष्ठता का अन्तर भी अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिए। वास्तविक घनिष्ठता को आत्मीयता भरी मैत्री कहते है। मित्रता प्रेम के आधार पर जुड़ती, दृढ़ होती और बढ़ती है। प्रेम का ही दूसरा नाम भक्ति है। “रसो वैस” उक्ति में प्रेम को ही परमेश्वर माना गया है। प्रेम किसी भावुकता का नाम नहीं है। उसके लिए आँसू टपकाने या ऐसी ही कुछ अन्य भाव क्षेत्र की उछल-कूद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। प्रेम एक स्थित सिद्धान्त है जिसे दूसरे शब्दों में सघन आत्मीयता कहते है। इस स्तर का उदय होते ही प्रेमी की हित कामना प्रधान हो जाती है। उससे लेने का नहीं देने का ही जी करता है। यह देना जितना अधिक उच्च स्तर का-जितना सर्वांग-पूर्ण होता है उतना ही मैत्री का आनन्द आता है। उसी अनुपात से मित्रता सुदृढ़ बनती और फलप्रद होती है। पारस्परिक सहयोग मित्रता का मूल प्रयोजन है। इसमें जो अग्रणी होता है उसे प्रेमी कहते है। भक्त की मनः- स्थिति भी यही है कि वह भगवान से प्रेम करता है। प्रेमी होने के नाते उससे कुछ माँगता नहीं वरन् अपने पास जो कुछ है उसे देने के लिए व्याकुल रहता है। अवसर ढूंढ़ता है कि किस समय, किस प्रकार उसे क्या दिया जा सकता है। इन प्रयत्नों को करते-करते एक दिन ऐसी स्थिति आ जाती है कि अपनी चेतना और सम्पदा का समग्र प्रभु चरणों पर हो जाता है। अपनी महत्वाकाँक्षायें समाप्त हो जाती है उनके स्थान पर ईश्वर की आकाँक्षा का वर्चस्व छाया रहता है। जीवन की दिशाधारा अपनी इच्छानुकूल नहीं वहर्त वरन् उधर चलती है जिधर परमेश्वर की प्रेरणा होती है। चेतना के उपरान्त मानवी अस्तित्व का दूसरा पक्ष है-सम्पदा। इसमें शरीर, कौशल और धन तीनों का समन्वय रहता है। इनका उपयोग लिप्साओं की पूर्ति के लिए नहीं वरन् उन प्रयोजनों के लिए लगने लगता है जिनके लिए सृष्टा ने इस बहुमूल्य अमानत को जीवात्मा का स्तर परखने के लिए सौंपा है।

पुजारियों और भक्तों के अन्तर को स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। पुजारी के क्रिया-कलाप पूजा-परक कर्म-काण्डों तक सीमित रहते है। इतने भर से देवता प्रसन्न हो जाते है और मनोकामना पूरी करने वाले वरदान बरसाने लगते है-यही पुजारी मनोवृत्ति आज सर्वत्र छाई हुई है। जबकि पूजा-अर्चा उपचार कलेवर है और आस्था उसका प्राण है। प्राण और कलेवर का सम्मिश्रण ही पूर्णता उत्पन्न करता है। पुजारी की गतिविधियों कर्मकाण्डों तक सीमित रहती है जबकि सच्चा भक्त उपासना के क्रिया-कृत्यों से प्रकाश एवं प्रेरणा प्राप्त करके अपनी चेतना को दिशा और सम्पदा को धारा देने का प्रयत्न करता है। भगवान और भक्त की अन्तः स्थिति और गतिविधियों में जितनी समस्वरता जितनी एकता दिखाई पड़े उसी आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्ति कितनी प्राणवान् है। प्राणवान् भक्ति के सत्परिणाम सुनिश्चित है।

ईश्वर की सजीव साझेदारी में उस ओर से पर्याप्त साधन जुटा दिये गये अब अपनी बारी है कि अपना पक्ष भी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करें। मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य इस विश्व उद्यान को सुविकसित और सुसंस्कृत बनाने में ईश्वर का हाथ बँटाना है। इस धरोहर को इसी प्रयोजन के लिए दिया गया है। सेवा धर्म अपना कर हम अपने को परिष्कृत समाज को उपकृत और ईश्वर को प्रसन्न करने का तिहरा लाभ उठाते है। इसकी उपेक्षा करके उपासना कृत्य का स्वरूप फुसलाने के लिए रची गई विडम्बना बनकर रह जाता है। भक्त प्रेमी होता है। प्रेम का परिचय-उदार सहयोग के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। हमें ईश्वर से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं है। पात्रता बढ़ने के साथ-साथ पिता सहज ही अपने साधन और अधिकार स्वयं ही हस्तांतरित करता जाता है। जितना गहरा गड्ढा होगा वर्षा का जल उसमें उतना भी भरता चला जायेगा। उथले पात्र में मेघ माला द्वारा बरसाये गये अजस्र अनुदान में से भी मात्र उतना ही मिल पाता है जितनी कि उस बर्तन की परिधि होती है। हमें अपनी पात्रता और परिधि बढ़ानी चाहिए और उसके लिए ईश्वरीय प्रयोजनों के निमित्त और अनुदानों की मात्रा बढ़ानी चाहिए।

इसके लिए अब तक जीवन क्रम का जैसा कुछ प्रवाह चल रहा है उसे जबर्दस्ती संकल्पपूर्वक और दृढ़ निश्चय के साथ मोड़ना पड़ेगा, जीवन साधना के पथ पर बढ़ने की हिम्मत जग पड़े तो फिर दूसरा चरण जीवन को सुव्यवस्थित बनाने का होना चाहिये उसके लिये सतर्क सिपाही की तरह प्रतिदिन मन को भक्त बनाने का, संकल्प शील बनाने का अभ्यास प्रारम्भ करना पड़ेगा।

प्रातः उठते ही सोचा जाय, ईश्वर के प्रतिनिधि की तरह आज का दिन-एक जीवन-सत्प्रयोजनों की पूर्ति के लिए घर और बाहर के क्षेत्र में व्यतीत करना है। दिन भर अपने चिन्तन और कर्तृत्व पर कड़ी दृष्टि रखी जाय और परखते रहा जाय कि उनमें निकृष्टता का समावेश तो नहीं हो रहा है। सजगता रहने से अनैतिक तत्वों का आक्रमण प्रायः नहीं हो पाता। रात्रि को सोते समय मरण की गहरी अनुभूमि की जाय। सृष्टा के घर जाने और सौंपे गये उत्तरदायित्वों को लेखा-जोखा देने की बात स्मरण रखी जाय तो रात की शयन बेला और प्रातःकाल की संध्या एक अच्छे धर्मोपदेशक जैसी प्रेरणाएँ देती रह सकती है। ईश्वर की साझेदारी इन्हीं आधारों के अपनाने में सम्भव हो सकती है जब वह जीवन साधना के रूप में परिणित हो। कल्पना जल्पना के मन मोदक खाते रहने से न तो साँसारिक सफलताएँ मिलती है और न आध्यात्मिक प्रगति सम्भव होती है।

ईश्वर की सामर्थ्य अनन्त है उसकी अनुकम्पा से मिल सकने वाली सम्पदायें भी असीम है। ऐसी समर्थ शक्ति के साथ यदि किसी के लिए घनिष्ठता प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके तो समझना चाहिए कि उसने पारस को छूकर लोहे के सोने में परिणित हो जाने जैसी स्थिति प्राप्त कर ली।


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