न्यूयार्क (अमेरिका) की ए बालिका डेजी ड्राइडन की मृत्यु इस वर्ष की अल्पायु में ही हो गयी, उसकी मृत्यु का कारण पेट की खराबी और टाइफाइड की बीमारी थी। जीवन के अन्तिम दिनों में, जब वह बहुत कमजोर तो थी, लेकिन उसे कोई शारीरिक कमजोरी नहीं थी वह अपने चारों ओर के भौतिक जगत के अतिरिक्त एक अन्य अलौकिक जगत की बातें भी करने लगी।
पश्चिमी दुनिया के लिए इस तरह की घटनाएँ भले ही आश्चर्यजनक हों, परन्तु भारतीय समाज में इस तरह की घटनाएँ आम देखने को मिलती हैं। गाँव, कस्बों में रोग शैया पर मरणासन्न स्थिति में पड़े व्यक्ति प्रायः देवदूत, यमदूत या किन्हीं डरावनी अथवा सौम्य आकृतियाँ दिखाई देने की बातें करने लगते है। सम्भवतः यह प्रायः व्यक्ति के मन में, पारलौकिक जगत के प्रति बनी हुई पूर्व धारणाओं और धार्मिक संस्कारों के फलस्वरूप होता हो। परन्तु डेजी ड्राइडन की घटना इस तरह की सभी घटनाओं से भिन्न थी।
बीमारी की शुरुआत के समय ही जब किसी को डेजी के मरने की आशंका नहीं थी तभी वह जान गयी थी कि अब और अधिक दिन जीवित नहीं रहा जा सकेगा। फिर भी उसने अपने माता-पिता पर यह विश्वास बहुत आहिस्ता-आहिस्ता व्यक्त किया। माता-पिता का मन यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था। हो भी कैसे सकता है? कौन माता-पिता अपनी लाड़ली सन्तान को सदा के बिछुड़ जाने की बात सहज ढंग से स्वीकार कर सकेगा। इस बात को उन्होंने डेजी का व्यर्थ भय बताया और कहा कि हम सब लोग शीघ्र ही अपने पुराने स्थान कैलीफोर्निया जायेंगे। इस पर डेजी ने धीरे से कहा-’मम्मी, तुम लोग ही जाओगे, मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकूँगी।’
किन्हीं-किन्हीं लोगों के लिए ही यह बता पाना सम्भव होता है कि वे शीघ्र ही मरने वाले है। मृत्यु का भय और जीवन का मोह मनुष्य को चेतना पर एक ऐसा आवरण डाल देता है, जिससे वह अपनी मृत्यु को प्रथम तो स्वीकार ही, नहीं करता कि और करता भी है तो इसी जिजीविषा के साथ कि मुझे अभी बहुत दिनों तक जीता है। फिर भी इतना तो सभी जानते हैं कि सबकी मृत्यु निश्चित है। प्रत्येक व्यक्ति या जीवधारी को एक न एक दिन सुनिश्चित ही मरना है। जीवन में जो घटना इतनी सुनिश्चित हो उसके बारे में समय से पहले जान लेना कोई कठिन बात नहीं है। कठिन लगती जरूर है क्योंकि सामान्य व्यक्ति मृत्यु से इतने भयभीत हो जाते हैं कि वे जीवन से भी आँख मूँद लेते है।
बस या ट्रेन में सवार सोये हुए यात्री को इस बात का कोई पता नहीं रहता कि गन्तव्य स्टेशन तक गाड़ी पहुँचने में कितनी देर है। जागा हुआ व्यक्ति इस बात का पूरा ध्यान रखता है और वह कभी भी बता सकता है कि इतनी देर बाद हम गन्तव्य स्थान तक पहुँच जायेंगे। मृत्यु को सहज स्वाभाविक मानते हुए सहज ढंग से जीवन जिया जाय तो उसके बारे में भी जाना जा सकता है। डेजी ड्राइडन कहा करती थीं कि कोई अदृश्य आत्मा उसे मृत्यु की स्वाभाविकता के सम्बन्ध में बताया करती थी और उसे आश्वस्त करती रहती थीं कि मृत्यु के सभी भय काल्पनिक और अवास्तविक हैं।
जिस दिन डेजी की मृत्यु हुई उस दिन उसने दर्पण माँगा। माँ, ने यह सोचकर कि अपना रक्तहीन चेहरा देखकर उस आघात लगेगा, हिचकिचाई। लेकिन डेजी के पास ही बैठे उसके पिता ने कहा-अगर वह चाहती ही है तो उसे अपना चेहरा देख लेने दो।
माँ ने डेजी को दर्पण दे दिया। कुछ देर तक अपना चेहरा देखने के बाद वह बोली-”मेरी यह देह जर्जर हो गयी है। यह उस खूँटी पर टँगी पुरानी पोशाक की तरह है जिसे मम्मी तुमने पहनना छोड़ दिया है। मैं भी इस देह को उतार दूँगी और फिर एली की भाँति दिव्य देह धारण करूंगी।”
‘एली कौन है?’-यह पूछने पर डेजी ने बताया कि- ‘‘यही वह व्यक्ति है जो हवा में तैरता हुआ-सा आता है और उसे मृत्यु के बारे में बताया है। आज रात तक मैं भी चली जाऊंगी।’’
क्या पागलपन की बात करती हो डेजी- मां ने डांटते हुए कहा, परंतु डेजी ने मुस्कराकर अपनी मां की ओर देखा जैसे वह कह रही हो कि यही सत्य है। उसी दिन शाम को साढ़े आठ बजे के समय डेजी ने स्वयं ही समय देखा और बोली- ‘अभी साढ़े आठ बजे हैं साढ़े ग्यारह बजे एली मुझे लेने आयेगा।’
फिर उसने अपने पिता के सीने से लगकर उनके कंधे पर सिर रख दिया और विश्राम करने लगी। इस तरह बैठना उसे बहुत अच्छा लग रहा था। करीब सवा ग्यारह बजे वह बिस्तर पर लेट गयी और उसने एक भजन गाने को कहा। जैसे ही घड़ी के कांटों ने साढ़े ग्यारह बजाये, उसने दोनों बांहें फैलायीं और बोली- ‘आओ एली। मैं तैयार हूं।’ इतना कहते ही डेजी ने अंतिम श्वांस ली और कमरे में गंभीर शांति छा गयी।
मृत्यु के समय मनुष्य को किन-किन अनुभवों से गुजरना पड़ता है- यह जानने के लिए लंदन के जोन एफ. हैस्लोप ने वर्षों तक सैकड़ों व्यक्तियों से संपर्क किया। संपर्क के लिए उन्होंने ऐसे व्यक्तियों को चुना जिनके यहां हाल ही में किसी की मृत्यु हुई थी तथा मरने वाला अपने संबंधियों को कोई ऐसी असामान्य बातें बता रहा था। इस शोध, संपर्क और अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों को उन्होंने ‘लाइफ वर्थ लिविंग’ के नाम से लंदन की प्रसिद्ध प्रकाशन संस्था मैसर्स चार्ल्स बुक हाउस द्वारा प्रकाशित कराया।
मृत्यु के समय कोई अशरीरी आत्मा मनुष्य को समझाने बुझाने या आश्वस्त करने के लिए आती है अथवा नहीं यह अलग विषय है। परंतु अन्य पराविदों ने भी अपने शोध-अनुसंधानों के आधार पर यही प्रतिपादित किया है कि मृत्यु कोई असामान्य अथवा पीड़ादायी घटना नहीं है। भारत तथा विदेशों की परामनोवैज्ञानिक शोध संस्थाओं में अनेक ऐसे व्यक्तियों के भी अनुभव संकलित किये गये हैं, जो एक बार मृतक घोषित किये जाने के बाद पुनः जी उठे। इन विवरणों में कई भिन्नतायें होने के बावजूद अनेक समानतायें भी हैं। एक तो यह कि मृत्यु के समय, मरने से पहले या मरने के बाद ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि हो जाती है।
प्रकृति ने यह व्यवस्था इसलिए की हो कि मनुष्य जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और सबसे अधिक निश्चित घटना को जागरूक होकर देखे तथा अनुभव करे। अपने जीवन के तमाम क्रिया-कलापों और उपलब्धियों को छूटते हुए अनुभव कर ले जिन्हें प्राप्त करने के लिए उसने उचित अनुचित सभी उपाय किये थे। यह जाना जा सके कि वे सारी उपलब्धियां व्यर्थ रही हैं जिनके लिए वह जीवन भर भाग-दौड़ करता रहा और सही गलत सभी तरीके अपनाता रहा।
लेकिन मनुष्य के मन में मृत्यु का भय इस प्रकार समाया रहता है कि वह आसन्न मृत्यु को देखकर मृत्यु से पहले ही अचेत हो जाता है। इसे जीव के प्रति अज्ञानजनित आसक्ति ही कहना चाहिए कि मृत्यु जीवन की एक अनुपम घटना होते हुए भी दुखद बन जाती है और मनुष्य उसकी पीड़ा को, जो वस्तुतः है नहीं, झेल नहीं पाता। यथा वासांसिजीर्णानि........ की सैद्धांतिक चर्चा तो बहुत देखने सुनने को मिलती है, परन्तु व्यवहार क्षेत्र में इससे उल्टी ही बात देखने को मिलती है। प्रतीत होता है कि मनुष्य अपने अचेतन में मृत्यु को जीवन का अंत ही माने बैठा है। इसी कारण वह मृत्यु के नाम से भी सिहर उठता है।
अब तक भौतिक विज्ञान भी मृत्यु को जीवन का अंत मानता आ रहा था। परंतु पिछले दशकों में हुई शोधों ने विज्ञान को यह मान्यता बदलने के लिए विवश कर दिया है। उपरोक्त कुछ उदाहरणों और परामनोवैज्ञानिकों के शोध निष्कर्षों से स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक उत्सव है। इस बात को यों भी समझा जा सकता है, पर्व-उत्सवों के दिन लोग नये वस्त्र पहनते हैं, घरों को नये ढंग से सजाते संवारते हैं और इस नवीनत्व का सृजन करने में गहन रुचि लेते हैं। मृत्यु को भी जीवन चेतना द्वारा, आत्मिक सत्ता द्वारा मनाया जाने वाला एक उत्सव माना जा सकता है जिससे पुराने शरीर से लेकर अपनी ही बनाई हुई पुरानी दुनिया का परित्याग किया जाता है तथा एक नये वातावरण की सृष्टि होती है।
मृत्यु के प्रति यह समझ और सहज स्वीकृति का भाव विकसित किया जा सके तो इसी जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आने लगता है। वर्षों तक इस विषय का अध्ययन कर ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ पुस्तक लिखने वाले डा. रेमण्ड ए. मूडी ने अपनी पुस्तक में लिखा है- जो व्यक्ति मर चुके थे और मरने के कुछ ही समय बाद पुनः जीवित हो उठे, उनसे संपर्क कर प्राप्त किये गये विवरणों तथा इसके बाद के उनके जीवन क्रम को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मृत्यु का अनुभव प्राप्त कर चुके उन व्यक्तियों में बहुत परिवर्तन आ गया है। इस संसार के प्रति, अन्य व्यक्तियों के प्रति, ईश्वर के प्रति और जीवन-मृत्यु के प्रति सभी के दृष्टिकोण को मैंने एकदम बदला हुआ पाया। प्रायः उन व्यक्तियों ने कहा कि अपने जीवन में दूसरों को जितना ज्यादा प्रेम कर सकें उतना कम है। अपनी सारी उम्र घृणा एवं तिरस्कार के साथ गुजारने वाले एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि वह जब तक जीवित है लोगों को अधिकतम प्यार करेगा। क्योंकि यही एक वह तत्व है जो दूसरों को दिया जा सकता है तथा बाँटने से और बढ़ता है।”
जीवन में अ.ये इन अद्भुत परिवर्तनों का कारण यह बताया गया है कि व्यक्ति अपने को शरीर मानकर उसकी सुख-सुविधा के लिए छीना-झपटी से लेकर बेईमानी और चोरी ठगी जैसे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अपराध करता है। अपनी सत्ता को शरीर तक ही सीमित मानने के कारण उस सन्तुष्ट और सुविधा सम्पन्न बनाना ही उसका लक्ष्य रह जाता है। लेकिन मृत्यु इस भ्रान्ति को तोड़कर जीवन की शाश्वतता से साक्षात्कार करा देती है उसे अनुभव करा देती है कि जीवन जन्म और मृत्यु के बीच की ही घटना नहीं है बल्कि उससे पहले भी है और बाद में भी है। फलतः शरीर के प्रति, भौतिक जीवन के प्रति उसका मोह कम हो जाता है और शाश्वत जीवन के प्रति आस्था सुदृढ़ होती है।
यात्रा कर रहे दो सहपाठियों में बिना किसी पूर्व परिचय के जिस प्रकार सहज ही मैत्री बन जाती है, जीवन को यात्रा मानकर चलने पर भी सबके प्रति उसी स्तर की सद्भावना बढ़ने लगती है। एक अर्थ में सहपाठियों के प्रेम, सद्भाव से जीवन यात्रा के प्रेम सद्भाव की तुलना की भी नहीं जा सकती है। क्योंकि यात्रा तो कुछ ही समय की है जबकि जीवन तो शाश्वत और अनन्त है तथा स्थूल बातों पर आश्रित भी नहीं है। बल्कि स्थूल ही उस चेतना पर निर्भर है।
स्थूल भौतिक की तुलना में सूक्ष्म और चेतन की महत्ता आभास होने पर स्पष्ट ही जीवन में उत्क्राँति घटित होगी। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि मृत्यु जीवन यात्रा का एक पड़ाव भर है, जीवन का अन्त नहीं। किसी धर्मशाला में कुछ समय के लिए ठहरना हो तो यात्री को वहाँ विश्राम करने भर से मतलब होता है। उसे न किसी से राग करने की आवश्यकता प्रतीत होगी होगी और न ही द्वेष करने की। जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि को, भी आत्म-चेतना का विश्राँति स्थल या यात्रा का एक पड़ाव भर मान लिया जाय तो किसी से राग-द्वेष रखना मूढ़तापूर्ण ही लगेगा।
इससे पूर्व की मृत्यु की वास्तविकता को समझा जाय, यह आवश्यक होगा कि उसके प्रति मन में समाया हुआ भय दूर हटाया जाय। यह भय दूर कर लिया गया तो मृत्यु का तत्वदर्शन समझना सहज हो जायगा और फिर मृत्यु कोई दुःखद घटना न होकर एक उत्सव बन जायेगी, अध्यात्म विज्ञान का मूल सिद्धान्त ही शाश्वत जीवन की खोज हैं। जीवन तो शाश्वत ही है, परन्तु अज्ञानवश ही वह जन्म-मृत्यु के साथ जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। मृत्यु के प्रति सहज स्वीकार शाश्वत जीवन के प्रवेश द्वारा पर पहुँचने की सिद्धि है। इसलिए आवश्यक है कि मृत्यु को त्यौहार की भाँति उल्लास और आनन्द के साथ वरण करने की तैयारी की जाती रहे। यह तैयारी जीवन को अनुपम सन्तोष और अद्भुत शान्ति से परिपूरित कर देती है।