अपनों से अपनी बात - युग परिवर्तन, प्रज्ञावतार, गायत्री शक्ति पीठ की श्रृंखला

September 1979

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नव युग का दृश्यमान अवतरण प्रभातकाल के अरुणोदय के समतुल्य माना जाय तो उसकी किरणें गायत्री शक्ति पीठों के रूप में व्यापक आलोक वितरण करती हुई प्रतीत होगी। सूक्ष्म कितना ही प्रचण्ड क्यों न हो उसका दृश्य स्वरूप स्थूल कलेवर के रूप में ही दृष्टिगोचर होता है। मानवी सत्ता चेतना होने के कारण सूक्ष्म है। जीव का स्वरूप आँखों में नहीं देखा जा सकता। तो भी उसका परिचय काय कलेवर के रूप में मिलता है। आम तौर से शरीर को ही व्यक्ति माना जाता है। व्यक्ति को ही जीव समझा जाता है। यों वस्तुतः दोनों पृथक् हैं। शरीर पंचभौतिक है और आत्मा सर्वथा अभौतिक। तो भी दोनों इस प्रकार गुथे होते हैं कि सामान्य बुद्धि उनका पृथककरण कर नहीं पाती। लोक मान्यता में जीव और शरीर का संयुक्त स्वरूप ही प्रकाश परिचय में आता और प्रभावी प्रतीत होता है। ठीक इसी प्रकार नव युग की हलचलों को अगले दिनों गायत्री शक्ति पीठों के माध्यम से परिवर्तन और सृजन की सामयिक आवश्यकताओं को पूरा होते हुए देखा जायगा।

विगलित का अभिनव के रूप में प्रत्यावर्तन ही युग परिवर्तन है। व्यष्टि में दुष्टता और समष्टि में भ्रष्टता के तत्व बढ़ गये है। औचित्य का स्थान औद्धत्य हथियाता चला जा रहा है। समूह गत सहकारिता कुंठित हो गई है और संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलबाला है। प्रवृत्तियाँ सृजन का बहाना भर करती हैं। व्यवहार में ध्वंस ही उनकी दिशा धारा है। ऐसी दशा में बड़े परिवर्तन और बड़े परिवर्तन से कम में कम नहीं चल सकता। प्रवाह को उलटना बड़ा काम है। विशेषता निकृष्टता की सड़क पर जब आतुर घुड़दौड़ चल रही हो तो पवमानों की लगाम पकड़ना और उन्हें ....कने ही नहीं, उलटने के लिए विवश करना, एक बहुत बड़ा काम है। साथ ही अतिकठिन भी। श्रम साध्य और साधन साध्य भी। क्रान्तियों की बात करना सरल है, योजनाएँ बनने में भी देर नहीं लगती। किन्तु उन्हें कर दिखाना और सफल बनाना दुरुस्त होता है। श्रेय हलचलों को नहीं सफल प्रतिफल को मिलता है। इस दृष्टि से क्षेत्रीय और सामयिक क्रान्तियाँ भी आँशिक रूप से ही सफल हो पाती है। फिर चार सौ करोड़ मनुष्यों की मनःस्थिति और 25 हजार मील परिधि के भूमण्डल की परिस्थितियों को बदल देना कितना कठिन कार्य है, इसकी कल्पना करने भर से सामान्य बुद्धि उतनी ही हतप्रभ हो जाती है जितनी कि विशिष्ट प्रज्ञा, ब्रह्माण्ड के विस्तार और उसके अन्तराल में चलती हुई हलचलों को देखकर। फिर भी काम तो काम ही है। जो होना है वह तो होगा ही। दूसरा विकल्प नहीं। यह जीवन और मरण का चौराहा है। जहाँ आज की दुनियाँ आ खड़ी हुई है वहाँ से आगे बढ़ने के लिए दो ही मार्ग हैं एक सर्वनाश, दूसरा नव सृजन। चुनाव इन्हीं दोनों में से एक का होना है। नियति को इन्हीं दोनों में से एक का चयन करना है।

प्रस्तुत परिस्थितियों में निर्माण भूमिका सृष्टि के सूत्र संचालक को ही निभानी है। निश्चय ही उसे अपनी इस अनुपम कलाकृति का विनाश अमान्य है। छूट तो बच्चों को भी मिलती है और अभिभावक उसकी स्वतन्त्रता एवं सक्रियता को एक सीमा तक चलने भी देते हैं, पर जब बचपन विनाश से खेलने को मचलता हो तो अभिभावकों का उत्तरादयित्व आगे आता है और सहमत या असहमत होने की परवा किये बिना बालक के उद्धतता छोड़ने और औचित्य अपनाने के लिए विवश करता है। इन दिनों भी यही होने जा रहा है। सृष्टा ने समय-समय पर असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने की भूमिका निभाई है। महाविनाश की घड़ी आने तक यह क्रम चलता ही रहेगा। नियति के अन्याय निर्धारणों की तरह सन्तुलन में सक्षम विधान है, उसे सक्रिय ऐसे ही अवसरों पर होना पड़ता है, जैसा कि आज है। अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन की आवश्यकता जब भी अनिवार्य हुई है तभी वदाऽऽत्मनं सृजाम्यहं का आश्वासन मूर्तिमान होते और आश्वासन की पूर्ति करते देखा गया है। अवतार की सुदीर्घ श्रृंखला का यही इतिहास है। इसी में एक नया अध्याय, प्रज्ञावतरण का और जुड़ रहा है। आस्था संकट की सघन तमिस्रा का निराकरण ऋतंभरा प्रज्ञा की प्रभात वेला ही कर सकती है। गायत्री यही है। जनमानस का परिवार और देव युग का निर्धारण उसी तत्व ज्ञान के आलोक से सम्भव होगा। गायत्री को एक वर्ग की पूजा प्रयोजन समझा भर गया है। वस्तुतः वह इतनी स्वल्प और सीमित है नहीं। उनमें मानवी चिन्तन और चरित्र को देवत्व की दिशा में घसीटा ले जाने वाले सभी तत्व विद्यमान है। उस अवलम्बन से देव युग में स्वर्गीय परिस्थितियों का लाभ चिरकाल इस धरती के निवासी उठाते रहे है। पुनर्जीवित किया जा रहा है। इसे पुनरावर्तन मात्र समझा जा सकता है। अभिनव दीखने पर भी वस्तुतः चिर पुरातत्व है। देवयुग की वापसी आश्चर्यजनक लग तो सकती है, पर उसमें ऊषा के हर प्रभात में हर बार उदय होने के गति चक्र का परिभ्रमण मात्र ही तथ्य है।

सूक्ष्म की प्रेरणा स्थूल में हलचलें वन प्रकट होती है। ऋतुओं के बदलते ही परिस्थितियां किस प्रकार उलट जाती है इस चमत्कार से हर कोई परिचित है। शीत और ग्रीष्म की प्रतिक्रियाएँ और व्यवस्थाएँ एक-दूसरे से कितनी भिन्न होती हैं? वर्षा के महीने और गर्मी के दिन एक-दूसरे से कितने भिन्न होते है यह सर्वविदित है। यह सूक्ष्म परिवर्तन का स्थूल प्रभाव है। अदृश्य का दृश्य में परिणित है। मनुष्य की आस्था आकाँक्षा बदलने पर उसकी गतिविधियों और सम्भावनाओं में कितनी बड़ी उलट-पुलट होती है इसके प्रमाण आये दिन पग-पग पर देखे जाते है। बड़े और व्यापक परिवर्तन इसी प्रकार होते है। साधनों की सहायता से भी कई बार कुछ बड़े हेर-फेर देखे गये हैं। बुद्धि, कौशल और व्यवस्था विधान से भी कई बार चमत्कार दीखता है, किन्तु लोक प्रवाह बदलने जैसे व्यापक और जटिल प्रयोजन की पूर्ति चेतना जगत में उठने वाले प्रचण्ड प्रवाह ही सम्पन्न करते है।

देखने वाले देखते है और जानते वाले जानते है कि जब कभी सृजनात्मक परिवर्तन हुए है तो अंतर्जगत में आदर्शवादिता अपनाने वाली उमंगे आँधी तूफान की तरह उमँगी है और उनके प्रचण्ड प्रवाह में पत्ते तिनके तक आकाश चूमने का असंभाव्य सम्भव करके दिखाते रहे है। यही है युग परिवर्तन की सन्धि वेलाओं में अपनी प्रमुख भूमिका निभाने वाली समर्थता। जो उत्पन्न तो अंतर्जगत में होती है, पर उलटकर सारे वातावरण को रख देती है। अपने समय में युग परिवर्तन की यही पुण्य वेला है। इसके अन्तराल में महाकाल का प्रचण्ड प्रयास चल रहा है उसी के फलस्वरूप अनेकानेक सृजनात्मक प्रवृत्तियां मानवी प्रयत्नों में सम्मिलित हो रही है। विवाद यह हो सकता है कि स्थूल प्रयत्नों से लोक चेतना उत्पन्न हुई या सूक्ष्म प्रवाह ने प्रयत्नों को उभारा? इस प्रश्न का निपटारा अभी नहीं हो सकता। इसे समय बीतने पर पूरी तस्वीर सामने आने के उपरान्त भावी विश्लेषण कर्ताओं के लिए शोध का विषय बने रहने के लिए छोड़ देना चाहिए। आज तो इतना ही मान लेना पर्याप्त है कि दोनों अविच्छिन्न रूप से जीव और शरीर की तरह गुथे और परिवर्तन एवं सृजन के उभय पक्षीय प्रयोजन में एक जुट होकर परिपूर्ण तत्परता के साथ तन्मय हो रहे है। सूक्ष्म जगत की प्रेरणाएँ और स्थूल जगत की प्रवृत्तियां संयुक्त रूप से नव सृजन का ढाँचा खड़ा कर रही है। प्रमुखता हलचलों की नहीं प्रेरणाओं की है।

महान जागरण और महान परिवर्तन का सूत्र-संचालन दिव्य लोक से उभरी हुई सक्रियता का उपयुक्त नाम ‘युगान्तरीय चेतना’ है। देव संस्कृति का उदय और स्वर्गीय परिस्थिति का नव निर्माण उसी का काम है। इसी ने जागृत आत्माओं को अनुप्राणित किया है। उदीप्त सूर्य की प्रथम किरणें भी तो सर्वप्रथम गिरि शिखरों पर ही चमकती है। द्वितीयचरण में दिनकर का आलोक समस्त भू-मण्डल को ही आच्छादित कर देता यों गुफाओं में अन्धेरा तो मध्याह्न काल में भी बना रहता है। युगान्तरीय चेतना को ही कितने ही दृष्टिकोण से कई रूप में समझा अपनाया जा रहा है। सामाजिक क्षेत्रों में उसे विचार क्रान्ति कहा जा रहा है। सृजन शिल्पी उसे जनमानस का परिष्कार कहते है। दार्शनिक क्षेत्र में उसे ‘ज्ञानयज्ञ’ की संज्ञा दी गई है। अध्यात्म वादियों ने उसे ‘प्रज्ञावतार’ की संज्ञा दी है। चूँकि यह प्रयोजन धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होना है इसलिए उसे गायत्री से तात्पर्य धर्मानुष्ठान के लिए प्रयुक्त होने वाले एक शब्द गुच्छक तक सीमित नहीं है वरन् उसे महाप्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। उसका कार्यक्षेत्र सार्वभौम और लक्ष्य सर्वजनीन है। गायत्री शक्ति पीठों की स्थापना इसी देव चेतना को जन-जन के मन में प्रतिष्ठापित करने के लिए की जा रही है। उनका स्वरूप हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुरूप बने हुए देवालयों जैसा है। इतने पर भी उसका कार्यक्षेत्र किसी देश, जाति या धर्म की परिधि में सीमित नहीं है। उसका विस्तार विश्वव्यापी है।

कहा जा सकता है कि शक्ति पीठें हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुरूप देव प्रतिमा को आधार मानकर क्यों की गई? उनका स्वरूप सार्वभौम मान्यता के अनुरूप क्यों नहीं बनाया गया? इसका उत्तर यही है कि सार्वभौम धर्म और दर्शन भी बन नहीं सका है। उसके बन जाने पर वैसा प्रयास ही उचित होगा, पर जब तक विश्व भाषा बनी नहीं है तब तक क्षेत्रीय भाषाओं का अवलम्बन छोड़ा कैसे जाय? लक्ष्य विश्व भाषा बनने का बहुत उत्तम है। पर उसके लिए आधार खड़ा करने, वातावरण बनाने एवं सहमति पाने के लिए वर्तमान भाषाओं के माध्यम से ही प्रतिपादन और प्रचार करना होगा। लक्ष्य की मान्यता एक बात है उसे पाने की प्रक्रिया दूसरी। लोक प्रवाह को मोड़ने के लिए जनजागरण की प्रक्रिया धर्म तन्त्र से लोक-शिक्षण से ही सम्पन्न होनी है। चूँकि आज विश्व धर्म का कोई स्वरूप विद्यमान नहीं है इसलिए उसके लिए वर्तमान धर्मों के माध्यम से ही विश्व धर्म की-विश्व दर्शन की-पृष्ठ भूमि खड़ी करनी होगी। प्रभात का शुभारम्भ पूर्व से होता है। अग्रणी होने का श्रेय सौभाग्य उसी को प्राप्त है। भारत पूर्व भी है और अग्रणी भी। अध्यात्म उसकी अपनी प्रकृति और परम्परा है। अतएव शुभारम्भ का उत्तरादयित्व भी उसी के कन्धे पर आना है। ‘प्रज्ञावतार’ सार्वभौम है। ऋतम्भरा प्रज्ञा भी सर्वजनीन है। गायत्री शक्ति पीठों की योजना, रीति-नीति एवं कार्य पद्धति भी व्यापक है। प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना एवं उपचार पद्धति भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही रखी गई है। जिस देश से अरुणोदय हो रहा उसके लिए वर्तमान परिस्थितियों में वही सर्वोत्तम है। अन्य देशों में अगले दिनों इसी प्रतिष्ठापना का विस्तार होगा। तब उन क्षेत्रों की संस्कृति के अनुरूप प्रतीकों और परम्पराओं को अपनाया जायगा और वहाँ के जन मानस को सार्वदेशिकता की दिशा में क्रमशः अग्रसर किया जायगा। मुस्लिम देशों में सम्भवतः मसजिदों और ईसाई देशों में गिरजे बनाकर उसी महान उद्देश्य की पूर्ति की जायगी जिसके लिए भारतीय लोक मानस को माध्यम में रखते हुए गायत्री शक्ति पीठों की योजना बनाई गई है। उस दिन की सम्भावना सुनिश्चित है जब सभी धर्म, सभी दर्शन मिलकर एक सार्वभौम उपासना पद्धति और संस्कृति आचार संहिता निर्धारित करेंगे। उन्हीं परिस्थितियों में गायत्री शक्ति पीठों का स्वरूप सार्वभौम होगा। आज तो सार्वभौम दर्शन अपना कर चलना ही सम्भव है। गायत्री शक्ति पीठें भारतीय संस्कृति के अनुरूप बन रही है। इतने पर भी उसमें विश्व संस्कृति के समस्त बीजांकुर और प्रगति प्रयास विद्यमान देखे जा सकते है और उस सुदिन की सम्भावना झाँकती मिल सकती है, जिसमें सब कुछ सार्वभौम ही होगा। गायत्री शक्ति पीठें भी तब उसी स्तर की बन सकेगी। सब कुछ बदलेगा तो शक्ति पीठों का स्वरूप बदलने में ही क्या कठिनाई रहेगी। आज तो शुभारम्भ जिस रूप में किया जा रहा है वही सर्वोत्तम है।

प्रज्ञावतार ही पौराणिक मान्यता के अनुरूप ‘निष्कलंक’ है। यह प्रमाण पत्र हैं जिसके लिए कलंकों का आरोपण और अग्नि परीक्षा से उसका निराकरण आवश्यक है। शक्ति पीठों के निर्माण में अनेकानेक विग्रहों का खड़ा होना प्रायः वैसा ही है जैसा राम, कृष्ण बुद्ध आदि को निरस्त करने के लिए आसुरी तत्वों ने विविध छड़ रूप से आक्रमणों का सिलसिला चलाया था। इसमें बिगड़ा कम बना अधिक। प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को भी इसी प्रकार के अवरोधों में होकर गुजरना होगा। इतने पर भी सफलता की आत्मिक परिणित सुनिश्चित है। ‘निष्कलंक’ प्रज्ञावतार द्वारा युग परिवर्तन की प्रक्रिया को सम्पन्न होने में आस्थावानों को तनिक भी सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है।

जिन्हें सूक्ष्म दर्शन का आभास देने वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त है उन्हें यह अनुभव करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि युग परिवर्तन की सुखद सम्भावनाओं को मूर्तिमान करने के लिए गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण की कितनी आवश्यकता है। स्थान न होने पर बैठा कहाँ जाय? बैठने को जगह तक न हो तो किया क्या जाय? उथले और अस्थिर कार्य तो चलते-फिरते भी हो सकते है किन्तु अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र संचालन तो किन्हीं केन्द्रों से ही हो सकता है। गायत्री तपोभूमि, शान्ति कुंज, ब्रह्म वर्चस-गायत्री नगर आश्रमों का अस्तित्व न होता, सब कुछ चलते-फिरते ही किया जाता रहता तो जो बन पड़ा है उसका शताँश भी सम्भव नहीं था। अब मथुरा और हरिद्वार के दो आश्रम पर्याप्त नहीं रहे। प्रवृत्तियों की तीव्रता और व्यापकता ने तकाजा किया है कि आलोक वितरण के लिए अनेकानेक केन्द्रों के लिए व्यवस्था बनाई जाय। बिजली उत्पादन के लिए एक बड़ा केन्द्र हो सकता है। किन्तु हर नगर का हर मुहल्ले का सब स्टेशन थी बनता है। ट्रांस फारमर अनेक लगने पड़ते है। सत्ता भले ही दिल्ली में केन्द्रित रहे पर शासन तन्त्र को चलाने के लिए क्षेत्रीय कार्यालयों की आवश्यकता रहेगी ही। समय आगया कि युग सृजन की चेतना का एक मात्र केन्द्र या एक व्यक्ति के द्वारा सूत्र संचालन पर्याप्त नहीं माना जा सकता। उसके लिए सब डिवीजन चाहिए। गायत्री शक्ति पीठों को महान सूत्र संचालन तन्त्र का विकेन्द्रीकरण कहा जा सकता है। उनकी उपयोगिता आवश्यकता के प्रतिपादन में जितना कुछ कहा जा सके उतना ही कम है। उन्हें वर्तमान पीढ़ी के लिए गौरव गरिमा का और भावी पीढ़ी के लिए समय से पूर्व बड़ी बात कहने से तो कुछ लाभ नहीं। चुनाव घोषणा पत्रों की तरह इस कथन को भी अतिश्योक्तिपूर्ण और अविश्वस्त माना जा सकता है, किन्तु जन इन कल्पवृक्षों को फलित होने का अवसर आवेगा तो एक स्वर से यही माना जायगा कि उनकी आवश्यकता उपयोगिता, प्रतिक्रिया एवं सम्भावना के सम्बन्ध में जो कहा गया था, वह स्वल्प नम्र एवं संकोच युक्त था। जो होने जा रहा है उसके सम्बन्ध में इन दिनों उसको कही अधिक उत्साह वर्धक एवं आशाजनक कहा जा सकता है जो संक्षेप में और शील संकोच को ध्यान में रखते हुए कहा जा रहा है।

गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण क्रम युग शक्तियों द्वारा इन दिनों उत्साहपूर्वक अपनाया गया है। उनका ढाँचा गढ़ने में तत्परता पूर्वक प्रयत्न चल रहे है। फलतः प्रगति की दिशा में उससे कहीं अधिक हो रहा है जैसा कि योजना को घोषित करने समय कहा गया था। आरम्भ में 24 तीर्थों में 24 निर्माण की बात कही गई थी। वह संकल्प अब योजनों पीछे रह गया। इस समय तक 108 के निर्धारण का दूसरा चरण भी पूरा हो गया और 240 निर्माणों के तीसरे चरण को पूरा करने की योजना चल रही है। एक वर्ष पूरा होते-होते आगामी वसन्त पर्व तक यह तृतीय चरण पूरा हो जाने और चौथे की तैयारी चल पड़ने की सम्भावना है। चौथे चरण की संख्या क्या होगी यह अभी से बताना असामयिक होगा। यह सफलता वस्तुतः महाकाल द्वारा प्रेरित युगान्तरीय चेतना की है जिससे जागृत आत्माओं को युग की माँग पूरी करने के लिए अनुप्राणित करके रख दिया है।

निर्माण कार्य में जुटे हुए नल-नीलों का इतिहास दिखने और छापने की भी योजना है। तथ्य जब सामने आयेंगे तो प्रतीत होगा कि सामान्य स्तर के व्यक्तित्व भी आज की परिस्थितियों में भी रीछ-बानरों का-ग्वाल-वालों का-गिद्ध-गिलहरियों का-केवट और जामवन्तों का अनुकरण करने में किसी से पीछे नहीं रहे। गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण में जो सामान लगा उसका हिसाब नहीं छपेगा वरन् यह अंकित किया जायगा कि परिस्थितियाँ प्रतिकूलता रहते हुए भी अन्तःक्षेत्र में उफनती हुई दिव्य चेतना असमर्थों से भी समर्थों की तुलना में कहीं बड़ी भूमिका निभा सकना सम्भव कर सकती है। यह रहस्योद्घाटन प्रस्तुत इतिहास प्रकाशन द्वारा जब जनसाधारण के सामने आयेगा तो प्रतीत होगा कि उत्कृष्टा और आदर्शवादिता इस गये गुजरे समय में भी अपना अस्तित्व किस प्रकार बनाये और कहाँ छिपाये बैठी थी।

गायत्री शक्ति पीठें अधिक संख्या में बननी, अपेक्षित है और उस निर्माण को बिना समय गंवाये ही सम्पन्न होना चाहिए ताकि युग समस्याओं के समाधान के लिए कारगर उपाय अविलम्ब अपनाये जा सके। इन संस्थानों के माध्यम से सृजन शिल्पियों की जो चतुरंगिणी कार्यक्षेत्र से उतरने को आतुर हो रही है उसे भी निर्माण के लिए लम्बी प्रतीक्षा सहन नहीं। समय से अधिक संख्या में और अधिक जल्दी इन निर्माणों को पूर्ण करने के लिए दबाव डाला है। इस संदर्भ में अन्यमनस्कता एवं निष्क्रियता अपनाना प्रत्येक जागृत आत्मा के लिए इन दिनों प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। चुनौती को अस्वीकार करना हर दृष्टि से खेदजनक ही होगा।

दबाव को ध्यान में रखते हुए पूर्व निर्धारण को काफी उदार और लचीला बना दिया गया है। प्राचीन तीर्थों तक ही यह निर्माण सीमित रहे अब ऐसी कोई बात नहीं हैं। जागृत क्षेत्रों में सर्वत्र यह नये तीर्थ बन सकते है। भव्य भवन बनाने की जो प्रतिस्पर्धा चली थी और उसमें अधिक धनराशि लगाने के लिए दौड़-धूप चल रही थी। यों विशालता से सुविधा भी है और प्रभावोत्पादक आकर्षण शक्ति भी। फिर भी उतनी बड़ी राशि जमा करना हर किसी का काम नहीं है। उसे उंगली पर गिनने जितने व्यक्ति ही संग्रह कर सकते है। एक समय था जब धर्म संस्थान बनाने में गौरव पुण्य और यश की प्राप्ति समझी जाती थी। अब रुझान बदल गया है इसलिए धनिकों को भी उसके लिए उदार सहयोग देने के लिए सहमत कर लेना सहज नहीं है। थोड़े से भव्य भवनों पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा यही सर्व सुलभ पाया गया कि निर्माण की राशि कम करने की बात सोची जाय। भले ही इससे भव्यता घटती हो। आवश्यक काम चलाऊ सुविधाएँ तो हर शक्ति पीठ में अनिवार्य रूप से रखी ही जानी थी। (1) देवालय (2) लेख स्थापना कक्ष (3) यज्ञशाला (4) अतिथि गृह (5) दफ्तर (6) परामर्श कक्ष (7) पाँच परिव्राजकों के रहने के लिए क्वार्टर। यह सात सुविधाएँ न्यूनतम हैं जो हर हालत में छोटी या बड़ी शक्ति पीठ में रखी ही जानी चाहिए।

आरम्भ में जो नक्शे बने थे उनमें प्रथम श्रेणी डेढ़-दो लाख की और द्वितीय श्रेणी एक-डेढ़ लाख की कूती गई थी। यह राशियाँ कठिन दिखी तो भवन निर्माण विद्या के विशेषज्ञों को बुलाकर एक नया नक्शा बनवाया गया जिसमें उपरोक्त सातों सुविधाएँ तो उपलब्ध रहें किन्तु लागत न्यूनतम आये। इस प्रयोजन के लिए नया स्पेशल डिजाइन ढूंढ़ निकाला गया है जिसकी भवन निर्माण लागत साठ हजार आती है। किन्तु जमीन में 60 ग 80 फुट से कमी नहीं होती। जहाँ मौके की जमीन मिलना दुस्तर एवं असम्भव नहीं है वहाँ छोटे शहरों में, कस्बों के लिए यही उपयुक्त है। कहीं मौके की जमीन न मिलती हो वहाँ पुराना टूटा-फूटा मकान लेकर भी उसे बनाया जा सकता है। दस हजार जमीन म का रखा जाय तो हरिद्वार की लागत के माप दण्ड से प्रायः सत्तर हजार में स्पेशल डिजाइन की दो मंजिली शक्ति पीठें बनती है। इनका नक्शा तथा विस्तृत विवरण 28 जुलाई के साप्ताहिक युग निर्माण में छाप दिया गया है।

बड़े शहरों में शक्ति पीठ बनाने की समस्या अभी भी जटिल है वहाँ मौके की जमीनें पहले से ही घिरी हुई है। जो बची थी वे होटल निर्माताओं ने सोने-चाँदी के मोल पर खरीदने की प्रतिस्पर्धा लगा रखी है। ऐसी दशा में एक तो मिलन ही कठिन है फिर कहीं कुछ गुंजाइश भी हो तो 60×80 की जमीन के लिए डेढ़ दो लाख देने की बात है। इतना यदि जमीन में ही लगाया जाय तो इमारत में कितना लगे? और फिर वह कहां से आये? शहरों को छोड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि शिक्षित और कुशल वर्ग देहातों से सिमटकर उन्हीं में जमा हो गया है। देहात अपना प्रधान लक्ष्य है फिर भी शहरों की ओर से आंखें मूंद भी तो नहीं रहा जा सकता। शक्ति पीठें वहां भी बननी ही चाहिए।

समाधान यह सोचा गया है कि तीर्थ स्तर की न सही प्रज्ञाभवन स्तर की इमारतें वहां बनाई जायें। मुख्य सड़क और सघन मुहल्ले से हटकर किसी खुले गली मुहल्ले में भी यह निर्माण हो सकता है। जमीन न मिले तो पुराना मकान तोड़कर भी उसे बनाया जा सकता है। बड़ी जमीनें तो ऐसी जगहों में भी नहीं मिलेंगी। इसलिए महंगे शहरों के लिए थोड़ी जमीन में बन सकने वाली एक ऐसी डिजाइन बनाई गई है जिसे तीन मंजिली बना देने से वे सातों उद्देश्य पूरे हो जाते हैं जिनकी सभी शक्ति पीठों में अनिवार्य आवश्यकता है। इस स्तर के शहरी डिजाइन में मात्र 40×40 जगह लगेगी। इसका विस्तृत विवरण 7 अगस्त के साप्ताहिक युग निर्माण में छाप दिया गया है। इमारत की लागत इसमें भी साठ हजार ही आती है। जमीन की लागत अधिक से अधिक पच्चीस हजार और सम्मिलित करनी पड़ सकती है।

सत्तर से पच्चासी हजार की राशि में प्रायः शहरी और देहाती दोनों ही स्तर की शक्ति पीठ बन सकते हैं। मजदूरी या निर्माण सामग्री कहीं हरिद्वार की तुलना में सस्ती पड़ती हो तो लागत और भी घट सकती है। यह राशि इतनी बड़ी नहीं है कि उत्साही और प्रतिभाशाली कुछ व्यक्ति कहीं भी उठ खड़े हों तो उसे संकलित न किया जा सके। शक्ति पीठों के लिए चंदा देने वालों के लिए इनकम टैक्स फ्री होने की छूट मिल गई है। अतएव जो इस दृष्टि से दान देने में कई लाभ सोचते हैं उनके लिए भी अब अधिक सुविधा रह सकती है और जो इनकम टैक्स देते हैं उन्हें अधिक प्रभावी दलील देकर इस पुण्य-प्रयोजन में अधिक सहायता देने के लिए कहा जा सकता है।

कुछ दिनों पहले समझा गया था कि शक्ति पीठों के निर्माण में, संपन्नों एवं समर्थों का कारगर सहयोग प्राप्त करना होगा। इसके बिना गाड़ी रुक जायेगी। अब वह अवरोध दूर हो गया। भव्यता में कटौती कर देने से आकर्षण तो जरूर घटेगा पर जिस प्रयोजन के लिए इन्हें बनाया जा रहा है। उसमें अंतर पड़ने की आशंका नहीं है। नवयुग का आलोक वितरण के लिए शक्ति पीठों के साथ जुड़े हुए परिव्राजकों के जत्थे उतनी ही तत्परता से इन छोटे निर्माणों में भी काम करते रहेंगे जितना कि भवन बनने की स्थिति में कर पाते।

परिजनों में से जिनने युग परिवर्तन, प्रज्ञावतार और गायत्री शक्ति पीठों की परस्पर गुथी हुई श्रृंखला का स्वरूप समझा हो, वे उसकी सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए साहसिक कदम उठावें। गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण में ऐसा भावभरा सहयोग दें जिसे चिर स्मरणीय रखा और अनुकरणीय कहा जा सके।


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