ज्ञान शक्ति की गौरव गरिमा

September 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को मोह-कलिल से उबारने के लिए-उन्हें युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए-उनकी शोकाकुल मनःस्थिति दूर करने के लिए-ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा था-

‘न हि ज्ञानेन (सद्वश) पवित्रमिह विद्यते।’

ज्ञान के समान पवित्र तथा पवित्र करने वाला इस संसार में कोई दूसरा नहीं है।

इस प्रसंग से जहाँ ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन होता है, वहीं इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरणा भी प्राप्त लेकर मनुष्य-पाषाण काल से क्रमशः समुन्नत होता हुआ, आज विकास की चरम सीमा पर पहुँचा है।

भौतिक जगत् के अनेक विध वैज्ञानिक आविष्कार और अध्यात्म जगत् की अनेकानेक उपलब्धियाँ ज्ञान ही प्राप्तव्य होती हैं। इसके अभाव में कुछ कहने लायक अर्जित करने को कौन कहे, सामान्य जीवन-क्रम भी स्थिर कर पाना कठिन होता है।

शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के कष्टों से मुक्ति पाना ज्ञान के द्वारा ही सम्भव हो पाता है-

आधयो व्याधयश्चव द्वय दुःखस्य कारणम्। तत्रिवृत्तिः सुख विद्यात् तत्क्षयो मोक्ष उच्यते॥ -योगवाशिष्ठ

आधियाँ (मानसिक रोग) और व्याधियाँ (शारीरिक रोग)-यह दो ही व्यक्ति के लिए दुःख के कारण बनते हैं। इनकी निवृत्ति ज्ञान द्वारा होती है। इस दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है। संसार में व्यक्ति केवल अपनी अज्ञानता से ही कष्ट पाता है और कुमार्गगामी बन जाता है। महाभारतकार ने इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है-

एकः शत्रुर्न द्वितीयोस्ति शत्ररज्ञान तुल्यः पुरुषस्य राजन्। येनावृतः कुरुते सम्प्रयुक्तो, घोराणि कर्माणि सुदारुणानि॥ -महा. शांतिपर्व

इस संसार में पुरुष का एक ही शत्रु है-अज्ञान इसके अतिरिक्त उसका अन्य कोई शत्रु नहीं है। इस अज्ञान से विमोहित होकर व्यक्ति अनेकानेक कुकर्मों प्रवृत्त होता रहता है।

ज्ञानी पुरुष को किसी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना पड़ता-

प्राज्ञं विज्ञान विज्ञेयं सम्यग् दर्शनमाधयः। न दहन्ति वनं वर्षासिक्तमग्नि शिखा इव॥ -योग वरिष्ठ

जिसने जानने योग्य को जान लिया और विवेक दृष्टि प्राप्त कर ली, उस ज्ञानी व्यक्ति को कष्ट (शरीर और मन के ) उसी प्रकार नहीं दुःखी कर पाते, जिस प्रकार वर्षा से भीगे जंगल को अग्नि नहीं जला पाती सद्ज्ञान प्राप्त कर पाना सर्वोपरि उपलब्धि होती है क्योंकि यही सुख-शान्ति का कारण होता है-

पाताले भूतले स्वर्गे सुखऐर्श्वयमेव वा। न तत्पश्यामि यत्राम पाण्डिन्यदतिरिच्यते॥ -स्कन्द पुराण

पृथ्वी लोक, पाताल लोक और स्वर्ग लोक में पांडित्य (ज्ञान) से बढ़कर कोई भी सुख या ऐश्वर्य नहीं दिखाई पड़ता है। ज्ञान ही सुख ऐश्वर्य आदि का कारण होता है। ज्ञानी-मनुष्य को, अन्य साँसारिकता के बन्धनों से जकड़े, दुःख-तकलीफ सहते, रोते-कलपते मनुष्य, अत्यधिक छोटे-तुच्छ यो क्षुद्र परिलक्षित होते हैं-

प्रज्ञा प्रासादमारुळयाशोच्यः शोचती जनान्। तमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान् प्राज्ञोऽनुपश्यति।

प्रज्ञा प्राप्त विवेकवान् योगी, संसार में शोकाकुल मनुष्यों को उसी प्रकार देखता है, जैसे पहाड़ की चोटी पर खड़ा मनुष्य पृथ्वी पर नीचे खड़े हुए मनुष्यों को देखता है। उस ज्ञानी व्यक्ति की स्थिति की वर्णन उप-निषद्कार के शब्दों में-

‘विशोक आनन्दमायो विपश्चित्- स्वयं कुतश्चिन्न विभेति काश्चित्।

विज्ञ (ज्ञानी) व्यक्ति शोक रहित होकर आनन्दपूर्वक रहते है, वे किसी से भी नहीं डरते।

‘ज्ञान’ का गुणगान जितना भी किया जाय वही कम ही होगा इसके विपरीत अज्ञान की अधिकाधिक भर्त्सना भी कम ही होगी। ‘ज्ञान’ में वहीं पतन की पराकाष्ठा भी है। इस तथ्य को समझकर ‘ज्ञान’ प्राप्ति के मार्ग पर ही नित्य-निरन्तर गतिशील होना ही श्रेयष्कर होगा। यही मानव-जीवन के सच्चे लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग का प्रदर्शक कहा जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles