सोचा यह जाता है कि धन का जितना अधिक संग्रह होता जायेगा, परिणामस्वरूप उतनी ही अधिक सुख-शान्ति मिलेगी? यह तथ्य कहाँ तक यथार्थ है-कहा नहीं जा सकता है? वैसे तो जीवन व घर-परिवार को सुविधापूर्वक व सुखमय बनाने में ‘धन’ की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसकी इस उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। साधनों की पूर्ति का माध्यम धन ही हुआ करता है, फिर भी इसका अत्यधिक संग्रह अपने साथ अनेकों समस्यायें, विपदायें लिए हुए रहता है। अतः धन के अधिक संग्रह पर नहीं प्रत्युत उसके सदुपयोग पर ध्यान देना चाहिए। धन का उपार्जन तो अधिकाधिक किया भी जा सकता है, परन्तु उसका अच्छे से अच्छा उपयोग ही उसकी सार्थकता होगी। इस विषय में शास्त्रों में पर्याप्त वर्णन आते है-
ऐर्ष्वयमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः। ऐर्ष्वयमदमत्तो हि नाषयित्वा विबुध्यते॥ -महाभारत
यों तो (मादक वस्तुओं के) पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किन्तु ऐश्वर्य का नशा तो बहुत ही बुरा है, क्योंकि इसके मद से मतवाला पुरुष भ्रष्ट हुए बिना होश में नहीं आता।’ इसका मारण है कि व्यक्ति उस समय विमोहित (अज्ञानयुक्त) हो जाता है, फलतः उसे उस सुख को भी प्राप्ति नहीं हो पाती जिसे लिए अनेक कष्ट सहनकर उसने धन का उपार्जन किया है-
विमोहयन्ति संपत्सु ताप्रयन्ति विपत्तिषु। खेदयन्त्यर्जन काले कदा ह्यर्थाः सुखावहाः॥ -भविष्य-पुराण
‘जब संपत्ति की खूब वृद्धि होती है, तब उस दशा में सम्पत्तियाँ प्राणी को विमोहित कर देती है। विपत्ति की दशा में ये दुःखी किया करती है तथा अर्जन करने के समय में खेद (दुःख) पहुँचाती है। संग्रही व्यक्ति कब सुख पाते है, अर्थात् उन्हें किसी भी समय सुख की प्राप्ति नहीं होती है।
मनुस्मृतिकार ने ‘दूसरों’ को बिना कष्ट पहुँचाये अपनी आवश्यकतानुसार ही धनोपार्जन करने को कहा है-
अद्रोहेणैव भूतानामल्प द्रोहेण वा पुनः। यावृतिस्ताँ समास्थाय विप्रोजीवेदनायदि॥
यात्रामात्रपसिद्धर्य्थ स्वैर्कर्म भिरगहिर्तः। अवलेषन शरीरस्य कुर्वीत धन मंचयः॥
जिस वृत्ति में जीवों को बिल्कुल ही पीड़ा न हो अथवा थोड़ी ही पीड़ा हो, उस वृति से व्यक्ति को अपनी जीविका चलानी चाहिए। शरीर को बिना अधिक कष्ट दिये हुए, अनिन्दित कर्मों से केवल निर्वाह मात्र के लिए अर्थ (धन) का संग्रह करना चाहिए।
श्रेष्ठ कार्यों में विघ्न-बाधा उपस्थित करने वाले धन को छोड़ देना ही औचित्यपूर्ण होता है-
सर्वान् परित्येजद्रर्थात् स्वाघ्यायस्य विरोधिनः। -मनु.
उन समस्त अर्थों को छोड़ दे, जो स्वाध्यायादि श्रेष्ठ कार्यों में विघ्न डालता है।
निष्ठुर-व्यक्ति ही धन का संचय कर सकता है, उदारचेता तो अपना सर्वस्व लोक कल्याण हेतु समर्पित कर देता है।
‘ये वित्तमभिपद्यन्ते सम्यकत्वं तेषु दुर्लभम्। दुह्यनः प्रैतितत् प्राहुः प्रतिकूलं यथातथम्॥ -महाभारत-शान्तिपर्व
जो धन के पीछे पागल है, न तो उनमें विवेक रहता है और न सज्जनता। जिस-तिस को पीड़ा पहुँचाने की निष्ठुरता के बिना कौन धनी बनता है?
धनवान् क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्ट चेतनः। तिर्यगीक्षेः शुष्कमुखः पाप को भृकुटीमुखः॥ -महाभारत
जो धनवान् हैं, वह क्रोध और लोभ के आवेश में आकर अपनी विचार-शक्ति को खो बैठता है, टेढ़ी आँखों से देखता है, मुख सूखा रहता हैं, भौहें टेढ़ी रहती है और वह पाप से युक्त रहता है।’ व्यक्ति चाहे तो वह अपना कार्य थोड़ी सी धन-सम्पत्ति से चला सकता है-
तरुण सर्षपषाकं नवोदनं पिच्छलानि च दधीनि। अल्पव्ययेन सुन्दरी ग्राम्यजनोमिष्ट मष्नाति॥
सरसों, वास्तुक, पालक आदि के शाक इच्छानुसार पैदा किये जा सकते है। थोड़े ही खेत तथा थोड़ी ही सम्पत्ति में अपने कुटुम्ब के उपयोग की सब वस्तुएँ तैयार कर ली जा सकती है।
‘ऊर्ध्व बाहुविषेष्येण नहिकष्चित् श्रृणोतिमाम्। धर्मादर्थष्च काम च सः धर्मः कि न सेव्यते॥
‘मैं हाथ उठाकर चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा हूँ कि अर्थ और काम को धर्मपूर्वक ही ग्रहण करने में कल्याण है, पर इसे कोई नहीं सुनता है?
इस प्रकार हम देखते है कि धन के अनावश्यक संग्रह की वृत्ति, मनुष्य को कितनी निकृष्टता की स्थिति तक पहुँचा देती है। हमें इस स्थिति से ऊपर उठकर धन के सदुपयोग पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आवश्यकतानुसार जीवन-निर्वाह व आश्रितों के पोषण के साथ-साथ उसका एक अंश लोक-कल्याण के लिए लगाते रहना ही सर्वाधिक अच्छा उपयोग कहा जा सकता है। धन को ‘साध’ नहीं ‘साधन’ मानना चाहिए। साधन के रूप में इसका केवल सहयोग लेना ही श्रेयस्कर होगा न कि ‘साध्य’ के रूप में जिस-किसी भी प्रकार से उसका अनावश्यक संग्रह।