स्वाध्याय करें भी, करायें भी

September 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज मनुष्य जितनी प्रगति कर सका है, उसके महत्वपूर्ण आधारों में से एक बौद्धिक सम्पदा का पीढ़ी-दर पीढ़ी संरक्षण सम्वर्धन भी है। ज्ञान ही प्रगति की आधार शिला है। ज्ञात रहित मनुष्य अन्य पशुओं की तरह ही आदिम, अनगढ़, अपरिष्कृत, प्रवृत्तियों, आवेगों से परिचालित जीवन जीता है और मानवीय गरिमा का अर्थ तक नहीं समझ पाता।

अज्ञानी व्यक्ति की सारी शक्तियाँ उसके भीतर निरुपयोगी बनी बन्द रहती है और शीघ्र ही कुँठित होकर नष्ट हो जाती है। जिन शक्तियों के बल पर मनुष्य संसार में एक-से-एक ऊँचा कार्य कर सकता है, बड़े-से-बड़ा पुण्य-परमार्थ सम्पादित करके अपनी आत्मा को भव-बन्धे से मुक्त करके मुक्ति, मोक्ष जैसा परम पद प्राप्त कर सकता है, उन शक्तियों का इस प्रकार नष्ट हो जाना मानव-जीवन की सबसे बड़ी क्षति है। इस क्षति का दुर्भाग्य केवल इसलिए सहन करना पड़ता है कि वह ज्ञानार्जन करने में प्रमाद करता है अथवा अज्ञान के कारण धूर्तों के बहकावे में आकर सत्य-धर्म के मार्ग से भटक जाता है। मानव-जीवन को सार्थक बनाने, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने और आध्यात्मिक स्थिति पाने के लिये सद्ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होना ही चाहिए और विधिपूर्वक जिस प्रकार भी हो सके उसकी प्राप्ति करनी चाहिए। जड़तापूर्वक जीवन जीना मृत्यु से भी बुरा है।

ज्ञान की जन्मदात्री, मनुष्य की विवेक बुद्धि को ही माना गया है और उसे ही सारी शक्तियों का स्त्रोत कहा गया है। जो मनुष्य अपनी बुद्धि का विकास अथवा परिष्कार नहीं करता अथवा अविवेक के अभिभूत होकर बुद्धि के विपरीत आचरण करता है, वह आध्यात्मिकता के उच्च स्तर को पाना तो दूर साधारण मनुष्यता से भी गिर जाता है। उसकी प्रवृत्तियाँ अधोगामी एवं प्रतिगामिनी हो जाती हैं। वह एक जन्तु-जीवन जीता हुआ उन महान सुखों से वंचित रह जाता है जो मानवीय मूल्यों को समझने और आदर करने से मिला करते हैं। निकृष्ट एवं अधो-जीवन से उठकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक जीवन की ओर गतिमान होने के लिये मनुष्य को अपनी विवेक बुद्धि का विकास, पालन तथा संवर्धन करना चाहिए। अन्य का विकास, पालन तथा संवर्धन करना चाहिए। अन्य जीव-जन्तुओं की तरह प्रकृति प्रेरणाओं से परिचालित होकर सारहीन जीवन बिताते रहना मानवता का अनादर है, उस परमपिता परमात्मा का विरोध है जिसने मनुष्य का ऊर्ध्वगामी बनने के लिए आवश्यक क्षमता का अनुग्रह किया है।

आध्यात्मिक ज्ञान सिद्ध करने में बुद्धि ही आवश्यक तत्व है। इसके संशोधन, संवर्धन एवं परिमार्जन के लिए विचारों को ठीक दिशा में प्रचलित करना होगा। विचार प्रक्रिया से ही बुद्धि का प्रबोधन एवं शोभन होता है। जिसके विचार अधोगामी अथवा निम्न स्तरीय होते है उसका बौद्धिक पतन निश्चित ही है। विचारों का पतन होते ही मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन दूषित हो जाता है। फिर वह न तो किसी माँगलिक दिशा में सोच पाता है और न उस ओर उन्मुख ही हो पाता है। अनायास ही वह गर्हित गर्त में गिरता हुआ अपने जीवन को अधिकाधिक नारकीय बनाता चला जाता है। पतित विचारों वाला व्यक्ति इतना अशक्त एवं असमर्थ हो जाता है कि अपने फिसलते पैरों को स्थिर कर सकना उसके वश की बात नहीं रहती है।

ज्ञानमूल आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का यथार्थ अर्थ विचारों को उपयुक्त दिशा में विकसित करना ही है। विचारों के अनुरूप ही मनुष्य का जीवन निर्मित होता है। यदि विचार उदात्त एवं ऊर्ध्वगामी हैं तो निश्चय ही मनुष्य निम्न परिधियों को पार करता हुआ ऊँचा उठता जायेगा और उस सुख-शान्ति का अनुभावक बनेगा जो उस आत्मिक ऊँचाई पर स्वतः ही अभिसार किया करती है। स्वर्ग-नरक किसी अज्ञात क्षितिज पर बसी बस्तियाँ नहीं है। उनका निवास मनुष्य के विचारों में ही होता हैं। सद्विचार स्वर्ग और असद्विचार नरक का रूप धारण कर लिया करते हैं।

विचारों का विकास एवं उनकी निर्विकारता दो बातों पर निर्भर है- सत्संग एवं स्वाध्याय। विचार बड़े ही संक्रामक, सम्वेदनशील तथा प्रभावकारी होते हैं। जिस प्रकार के व्यक्तियों के संसर्ग में रहा जाता हैं मनुष्य के विचार भी उसी प्रकार के बन जाते हैं। व्यवसायी व्यक्तियों के बीच रहने, उठने-बैठने, उनका सत्संग करने से ही विचार व्यावसायिक, दुष्ट तथा दुराचारियों की संगत करने से कुटिल और कलुषित बन जाते है। उसी प्रकार के विचार महान एवं सदाशयतापूर्ण बनते हैं।

किन्तु आज के युग में सन्त पुरुषों का समागम दुर्लभ हैं न जाने कितने धूर्त तथा मक्कार व्यक्ति वाणी एवं वेश से महात्मा बनकर ज्ञान के जिज्ञासु भोले और भले लोगों को प्रताड़ित करते घूमते हैं। किसी को आज वाणी अथवा वेश के आधार पर विद्वान अथवा विचारवान मान लेना निरापद नहीं है। आज मन-वचन-कर्म से सच्चे और असंदिग्ध ज्ञान वाले महात्माओं का मिलना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। सत्संग के लिए तो ऐसे पूर्ण विद्वानों की आवश्यकता है जो हमारे विचारों को ठीक दिशा दे सकें और आत्मा में आध्यात्मिक प्रकाश एवं प्रेरणा भर सकें। वक्तृता के बल पर मन चाही दिशा में भ्रमित कर देने वाले वाक् वीरों से सत्संग का प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा।

ऐसे प्रामाणिक प्रेरणा-पुंज व्यक्तित्व आज के युग में विरल हैं। जो हैं भी उनकी खोज तथा परख करने के लिये आज के व्यस्त समय में किसी के पास पर्याप्त समय नहीं। इन सब कठिनाइयों को देखते हुए स्वाध्याय ही सर्वोत्कृष्ट सत्संग का माध्यम सिद्ध होता है। पुस्तकें विद्वानों का बौद्धिक शरीर हैं। उनमें उनका व्यक्तित्व बोलता है। वह भी बहुत ही व्यवस्थित ढंग से।

प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को स्वाध्याय रूपी सत्संग के द्वारा ही ज्ञान का प्रकाश सरलता से मिल सकता है। इसलिए हर एक जागरूक नागरिक को जहाँ स्वयं स्वाध्याय में सदा प्रवृत्त रहना चाहिए। यह एक बड़ी लोकसेवा होगी। स्वयं भी ज्ञान-यज्ञ करना और दूसरों से भी उसे कराना एक बड़ा पुण्य-कर्त्तव्य है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118