शान्ति का अर्थात (kahani)

September 1979

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दिन का अधिकांश समय, एक बच्चा एकांत में बिताता। न खाने में कोई तर्क, न बाहर निकलने की इच्छा। कहीं जाना होता तो अपनी राह जाता और अपनी राह वापस लौट आता।

पिता को चिंता हुई। एक दिन पूछ ही लिया- ‘‘बेटा! आजकल काम-धंधा कुछ नहीं करते। कुछ कष्ट रहता है क्या?’’

बेटे ने विनीत भाव से उत्तर दिया- ‘‘पिताजी! आप ही तो कहते थे- मनुष्य को शांति का जीवन बिताना चाहिये।’’ पिता ने हंस कर कहा- ‘‘बेटे! चुप-चाप पड़े रहने का नाम शांति नहीं। कैसी भी स्थिति हो धैर्य रखकर, अनिवार्य दुखों को स्वयं वीरतापूर्वक झेलता हुआ भी उद्विग्न न हो उसे शांति कहते हैं।’’


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