स्रोत अंदर है, बाहर नहीं

September 1979

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आनंद आत्मा का शाश्वत गुण है। मनुष्य जब प्रसन्नचित्त होता है तो उसकी आत्मा प्रफुल्लित हो उठती हैं। शरीर में जीवनी शक्ति का प्रवाह तीव्र हो जाता है। समस्त आत्मिक शक्तियां विकसित होती हैं। आत्मिक शक्ति की स्फुरणा से शरीर की आकृति एवं मन की प्रवृत्ति में परिवर्तन होता है। मुख से चेतनता एवं सजीवता टपकने लगती है। शरीर रोमांचित हो उठता है। कभी-कभी इस प्रकार का आभास प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन काल में होता है।

आनंद प्राप्त करने का भाव मनुष्य की अंतरात्मा में निहित है। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में वह भिन्न-भिन्न प्रकार से उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है। उसके सुख का केंद्र कभी एक वस्तु बनती है कभी दूसरी। शैशव काल में शिशु माता की गोदी में लेटा रहता है। मां का स्तन पान करता हुआ आनंद में मग्न रहता है। शिशु अवस्था में उसके आनंद का केंद्र मां की गोद से हटकर खिलौनों में जा पहुंचता है। उसमें आमोद-प्रमोद करता रहता है। विद्यार्थी जीवन में पैर रखते हुए भविष्य के निर्माण में केन्द्रित होता है। सुनहरे भविष्य का ताना-बाना बुनता रहता तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए प्रयास करता है। इसमें ही वह आनंदित रहता है। शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी करना अथवा व्यवसाय की सफलता उसके आनंद का क्षेत्र बन जाता है। धनोपार्जन से वह प्रसन्न होता है।

गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के उपरांत आनंद का केंद्र-बिंदु पत्नी बन जाती है। पत्नी के साहचर्य, स्नेह-अभिसिंचन से प्रसन्न रहता है। कुछ समय पश्चात् पत्नी की गोद में बच्चा आ जाता है तथा वह पत्नी का स्थान ले लेता है। बाल-सुलभ चेष्टाओं में मनुष्य अपने दुखों को भूल जाता है तथा उसकी किलकारियों में रस में डूबा रहता है।

य‍ह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं बनी रहती। गृह, स्त्री, पुत्र, धन अब उसे उतना आनंद नहीं आता। आनंद प्राप्ति का कोई नया क्षेत्र ढूंढ़ने लगता है। सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठता है। सामाजिक कार्यों द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करता तथा प्रसन्न होता है।

उपरोक्त अवस्थाओं पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि व्यक्ति से सुख का केंद्र सदा बदलता रहता है। शैशव काल मां की गोद में, बाल्यावस्था खिलौनों में, छात्र जीवन में पुस्तकों में, यौवन पत्नि तथा धन संचय में, गृहस्थाश्रम पुत्र में, यश की प्राप्ति में रहता है। गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि जिन चीजों में आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है वस्तुतः वे भौतिक पदार्थ आनंद से रहित हैं। यदि उनमें आनंद होता तो मन सदा उनमें लीन रहता किंतु आनंद प्राप्ति का केंद्र सतत परिवर्तित होते रहना इस बात का प्रमाण है कि यह विशेषता भौतिक वस्तुओं में नहीं है।

सुख एवं आनंद की भावना तो मनुष्य की अंतरात्मा में विद्यमान है यह भाव ही विभिन्न वस्तुओं में आरोपित होकर हमें आनंद देता प्रतीत होता है, इसी कारण भ्रम वश लोग वस्तुओं को ही आनंद का हेतु समझ लेने की भूल कर बैठते हैं। विभिन्न वस्तुओं में उसे ढूंढ़ने एवं प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। फलस्वरूप असफलता ही हाथ लगती है। यह स्थिति उस हिरन के समान है जो अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की गंध से प्रभावित होकर उसे पाने की तलाश में जंगलों में भटकता रहता है जबकि कस्तूरी उसके अंदर ही विद्यमान होती है।

सुख, आनंद का केंद्र बिंदु आत्मा है जो मनुष्य के अंदर विराजमान है। वही आनंद प्राप्ति का भाव प्रेषित करती तथा अपनी आनंदमय स्थिति का भान कराती है। किंतु मनुष्य अंतर्मुखी होकर उसे प्राप्त करने के स्थान पर बहिर्मुखी होकर भौतिक पदार्थों में ढूंढ़ता रहता है। वस्तुओं को सुख का आधार मान लेता है।

वाह्य वस्तुओं में जो आकर्षण दिखायी पड़ता है वह भी आन्तरिक भावों की प्रतिक्रिया मात्र है। जड़-वस्तुओं में अपना कोई आकर्षण नहीं है न ही आनन्द। अन्तरात्मा के सौंदर्य प्रवाह की किरणें ही वस्तुओं पर पड़कर सुन्दरता का आभास कराती हैं। दर्पण में दिखायी पड़ने वाली मुखाकृति की प्रतिच्छाया को देखकर दर्पण की सराहना की जाय तथा सुन्दर मुखाकृति का कारण दर्पण को पाना जाय तो यह मान्यता अविवेकपूर्ण ही होगी। प्रतिच्छाया से आनन्द प्राप्त करने का भ्रमपूर्ण प्रयास असफल ही सिद्ध होगा।

अन्तरात्मा की प्रकाश किरणें वस्तुओं में आरोपित होकर सौंदर्य पैदा करती हैं। जिसके फलस्वरूप उनको प्राप्त करने तथा उनके उपभोग से आनन्द प्राप्त करने का लोग असफल प्रयास करते हैं। कुछ समय तक तो वे आनंददायक लगती है, किन्तु वह थोड़े समय उपरांत ही समाप्त हो जाती है। वे निस्सार तथा आकर्षण रहित प्रतीत होने लगती हैं। वस्तुतः अन्तरात्मा की प्रकाश किरणें वस्तुओं से हट जाती है जिसके फलस्वरूप जो कभी सुन्दर आनंददायक प्रतीत हो रही थी वे ही असुख-कर लगने लगती हैं।

चेतना की यह विशेषता होती है कि वह जड़ वस्तुओं में अधिक समय तक नहीं टिक सकती। जब तक उसका अन्तरात्मा में निकली भाव तरंगें संसार में विविध वस्तुओं में अपने उद्गम स्थल को ढूंढ़ती रहती हैं। उसकी स्थिति प्यास से छटपटाते हुए प्राणी के समान होती है। विविध साँसारिक चीजों में वही अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करती है। तृप्ति तो होती नहीं उल्टे उसकी स्थिति वही होती है जो पानी की तलाश में निकले प्यासे व्यक्ति की मदिरालय पहुँचकर मद्य पीने पर होती है। शराबी के समान जीव-चेतना एक वस्तु के उपभोग से अतृप्त बनी विभिन्न वस्तुओं से टकराती रहती तथा सदा अतृप्त बनी रहती है।

यह कैसी विडम्बना है कि जीव का उपहासास्पद प्रयास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। जीव पृथ्वी पर अवतरित होते ही आनन्द प्राप्ति का प्रयास विभिन्न रूपों में आरंभ कर देता है। स्वयं आनन्द स्त्रोत होते हुए जीवनपर्यन्त उस अमृतत्व से वंचित रह जाता है। बचपन के खेल खिलौने, किशोरावस्था के अध्ययन एवं युवावस्था के भोग-विलास से गुजरते हुए थके हुए खिलाड़ी की भाँति अपनी वृद्धावस्था पूरी करता और काल के गर्भ में चला जाता है। आनन्द प्राप्ति का भ्रम-पूर्ण, पदार्थवादी प्रयास उसे अपने ही आनन्द स्त्रोत अन्तरात्मा से दूर रखते हैं। फलस्वरूप मनुष्य विक्षुब्ध बना रहता है।

आन्तरिक भावों पर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि आनन्द का अजस्र स्त्रोत अन्दर बैठा अपना प्रवाह संप्रेषित कर रहा है। इस प्रकार के भावों के उत्पन्न होते ही कुप्रवृत्तियाँ नष्ट होने लगती है। चेष्टाएँ अन्तर्मुखी बन जाती हैं तो भौतिक लालसाएँ नष्ट हो जाती हैं। उनका स्थान दया, करुणा, प्रेम जैसी सत्प्रवृत्तियाँ ले लेती हैं। प्राणिमात्र के दुःखों को दूर करने में मनुष्य को आनन्द आने लगता है। प्रेम का सतत प्रवाह चारों ओर बहता दिखायी देता हे। इस स्थिति को प्राप्त करने के उपरान्त कोई कामना अवशेष नहीं रह जाती है।

मृग के कस्तूरी के लिए जंगल में भटकते रहते के समान बाह्य-वस्तुओं में आनन्द ढूंढ़ने का अविवेकपूर्ण प्रयास करने की अपेक्षा, आवश्यकता इस बात की हे कि अपनी चेष्टाओं को अन्तर्मुखी किया जाय। अन्दर बैठे अन्तरात्मा के दर्शन एवं उससे मिलने वाले अजस्र आनन्द के अनुदान को प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक साधनाओं का ही अवलम्बन लेना होगा। चेतना अपने उद्गम स्थल पर पहुँचकर ही शान्ति एवं आनन्द की शाश्वत अनुभूति कर सकती है। जीवनपर्यन्त मनुष्य जिसकी प्राप्ति के लिए साँसारिक आकर्षणों में भटकता रहता है, आत्म-दर्शन से ही सम्भव है।


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