मृत्यु को सामने रख कर चलें

September 1979

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अच्छे काम करने की प्रेरणा प्रायः सभी के मन में उठती है पर वे इसलिए टलते रहते हैं कि तुरन्त लाभ देने वाले कार्य ज्यादा आवश्यक लगते हैं। सत्कर्मों का परिणाम देर में मिलता हैं, उनमें तुरन्त कोई लाभ होता भी नहीं दिखाई देता इसलिए उन्हें पीछे के लिए छोड़ दिया जाता है। यह सोचना गलत होगा कि सत्कर्मों की पुण्य प्रेरणा किसी के मन में उठती ही नहीं है आखिर तो सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि अच्छे कामों का फल अन्ततः अच्छा ही मिलता है पुण्य परमार्थ से आनन्द उल्लास की प्राप्ति होती है, इस तथ्य से कौन अनभिज्ञ होगा।

ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि सत्कर्मों के पुण्यफल से अवगत होते हुए भी अधिकाँश व्यक्ति उनसे विरत क्यों होते हैं या क्यों टालते रहते हैं? इसका एक ही उत्तर है कि मृत्यु को या तो भुला दिया गया है अथवा भूलने की चेष्टा की जाती रहती है। रोज अनेकों व्यक्ति अपनी आँखों के सामने मरते रहें, चलते फिरते कितनों को ही अकस्मात् मृत्यु के मुख में गिरते देखा जाता रहे, फिर भी यह विचार अपने भीतर बना रहता है कि अपने साथ ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। क्षण भर को यदि इस तरह का विचार आ भी जाए तो तत्क्षण दूसरा विचार लहर की भाँति उठता है और उस विचार को नष्ट करता हुआ चला जाता है।

यदि इस तथ्य को स्मरण रखा जाय कि मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है अगले ही क्षण आ सकती है तो उस स्थिति में सुर-दुर्लभ इस शरीर और उसके साथ मिली विभूतियों के सदुपयोग की प्रेरणा मन में उठती, उमगती रह सकती है। यदि मृत्यु को स्मरण रखा जाता तो निश्चित ही यह प्रश्न भी मन में उठता रहता कि प्राप्त विभूतियों के साथ जो जिम्मेदारियाँ सौंपी गई हैं उन्हें पूरा करने के लिए कुछ किया जा रहा है या नहीं।

मृत्यु एक ऐसा अनागत अतिथि है जो किसी भी क्षण सामने आकर खड़ा हो सकता है और उस स्थिति में यह नग्न यथार्थता प्रस्तुत होती है कि पेट और प्रजनन के लिए अब तक जो कुछ किया जाता रहा उसकी कोई अर्थवत्ता नहीं सिद्ध हुई। अस्तु अपनी दिनचर्या में उपासना की तरह एक ऐसा समय भी निश्चित रखना चाहिए जिसमें मृत्यु का स्मरण किया जाए और इस बात का विश्लेषण किया जाय कि जो क्रम चल रहा है वह अर्थपूर्ण है या निरुद्देश्य पेट प्रजनन के लिए ही चलाया जा रहा है।

इस चिंतन स्मरण के साथ ही वह दृष्टि भी विकसित होगी जिसके आधार पर प्रस्तुत जीवन का सदुपयोग हो सके। सृष्टि के अन्य जीवों की आँख से देखा जाय तो मनुष्य असीम सुविधा साधनों से सम्पन्न अवतारी सत्ता ही है। उसी अंश अवतार जैसी सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की भूमिका में मनुष्य को भी संलग्न रहना चाहिए, पर यह इसलिए विस्मृत हो जाता है कि हम मृत्यु को भुला बैठते हैं और यह सोचते तक नहीं कि मरण निकट है। इसी कारण यह भी भुला दिया जाता है कि उपलब्ध अवसर को नष्ट किये बिना पूरी सजगता के साथ उस ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में लगना चाहिए जिसके लिए कि यह जीवन मिला है।

जिन्हें मरण के उपरान्त आने वाली समस्याओं का ज्ञान है, जो उन्हें सुलझाने में निरत हैं। उनके लिए मृत्यु का स्वरूप अगली कक्षा की तैयारी जैसी है विद्यार्थी अगली कक्षा में पहुँचने के लिए जिस प्रकार दिन रात श्रम करते हैं, व्यस्त रहते हैं उसी प्रकार उन व्यक्तियों को भी व्यस्त देखा जा सकता है जो मृत्यु को स्मरण रखे रहते हैं। भगवान शंकर को इसी से मृत्युँजय कहा जाता है कि वे मरघट में निवास करते है, श्मशान भस्म शरीर में लगाते हैं और गले में मुंडमाला पहनते हैं। इन प्रतीकों को अर्थ मृत्यु की प्रतिमा को सामने रख कर चलने की प्रेरणा ही है। निश्चित ही वे व्यक्ति मृत्युँजयी, होते हैं जो मरण को सामने रखकर चलते हैं और अपना जीवन क्रम इस तरह का श्रेयष्कर बनाते हैं जिससे अपने जीवन में भी शान्ति रहे और समाज तथा भावी पीढ़ी को भी प्रकाश मिले।


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