अनन्त ईश्वर की समीपता से अनन्त सामर्थ्य की प्राप्ति

September 1979

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यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-

सहस्त्रषीर्षा पुरुषः सहस्त्रत्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठिदृषाड्. गुलम्॥

ईश्वर अनन्त मस्तिष्कों, वाला, अनन्त आँखों और अनन्त पैरों वाला है। सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त होते हुए भी उससे ऊपर है। अर्थात् वह परमात्मा सृष्टि के भीतर और बाहर सभी जगह व्याप्त है।

जिस वस्तु को हम अनुभव नहीं कर सकते अथवा तर्क द्वारा सिद्ध नहीं कर सकते, वह अनन्त है। ईश्वर अनन्त है। काल, समय एवं क्षेत्र की परिधि में बँधी होने के कारण साँसारिक वस्तुओं की अपनी सीमायें है, उनका अन्त है। पहाड़ों की चोटियों पर दृष्टि दौड़ाने पर उनका अन्त स्पष्टतः दीखता है। न भी दिखायी दे तो भी यह अनुभव होता है कि उसका कभी न कभी निर्माण हुआ है और एक न एक दिन उसका अन्त होगा। इस बात की पुष्टि तर्क भी करता है। समुद्र की भी अपनी सीमाएँ है। अपार दिखायी पड़ते हुए भी वह पार रहित नहीं है।

अनन्तता का भाव मनुष्य के हृदय में जन्म के साथ ही मिला है, जिसको वह अनुभव तो करता है किन्तु उसको भली प्रकार जान सकना असम्भव हैं जो बात समझ में आ गई वह अनन्त नहीं रही।

परमात्मा की कृति यह सृष्टि इतनी विराट एवं अनन्त रहस्यों से युक्त है जिसका एक अंश भी अब तक जाना नहीं जा सका। जिन पदार्थों, रचनाओं को हम देखते हैं, उनका ही स्वरूप अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है। सृष्टि की प्रत्येक घटना तथा वस्तु अपने अन्दर अनन्त नियमों को छिपाये है। विज्ञान द्वारा जितना ज्ञात होता है अविज्ञात का क्षेत्र उसी अनुपात में बढ़ता जाता है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि विज्ञान अब तक पदार्थ सत्ता का स्पष्ट स्वरूप तक निर्धारित नहीं कर सका है। कभी यह मान्यता थी कि पदार्थ का सबसे छोटा कण परमाणु है। नयी शोधों ने इस मान्यता को निरस्त कर दिया। प्रोट्रान, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पॉजीट्रान जैसे सूक्ष्म कणों का अस्तित्व उभर कर सामने आया। कालान्तर में कणों की मान्यता को ऊर्जा का स्वरूप विज्ञान ने प्रदान किया। स्थिति अब यहाँ तक जा पहुँची है कि जड़-चेतन की मध्यवर्ती ‘क्वान्टा’-जो विचारशील शक्ति प्रवाह है की बात परमाणु के संदर्भ-विवेचन में स्वीकार की जाने लगी हैं कौन जाने आगे चलकर नये तथ्यों का रहस्योद्घाटन हो और यह मान्यता भी धराशायी हो जाय।

एक सामान्य परमाणु अपने अन्दर असंख्यों रहस्य छिपाये है। इस विराट् सृष्टि की कल्पना मात्र से बुद्धि हतप्रभ रह जाती हैं ग्रह नक्षत्रों से युक्त अनेकों सौर-मण्डल, आकाश गंगाएँ जिनका वर्णन शास्त्रों में आता है, के रहस्यों को जान सकना तो अभी बहुत दूर की बात है। उनकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। इनकी स्थिति एवं दूरी की सही जानकारी प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं हो सका है, उनके स्वरूप को समझ सकना बहुत आगे की बात है।

लगता है परमात्मा ही नहीं उसकी सृष्टि भी अचिन्त्य और अनन्त है। सृष्टि का स्वरूप यदि स्पष्ट हो जाय तो भी उसके प्रवाह की अनन्तता से इन्कार नहीं किया जा सकता। तात्पर्य यह कि सृष्टि के पहले भी सृष्टि थी और बाद में भी होगी। इससे पहले भी एक सृष्टि तथा इसके पश्चात् भी सृष्टि की कल्पना करते जाय तो यह क्रम कभी समाप्त नहीं होता। सृष्टि का प्रवाह काल इस प्रकार अनादि और अनन्त दोनों है। अनादि से चली आ रही सृष्टि अनन्त की ओर प्रवाहित हो रही है। जिस प्रकार रात के बाद दिन और फिर रात का क्रम चलता रहता है। जन्म, मरण, प्रलय सबका प्रवाह कभी अवरुद्ध नहीं होता। इसी कारण संसार को जीवन चक्र कहा गया है। जिस प्रकार चक्र के आदि और अन्त का पता लगाना मुश्किल है उसी प्रकार सृष्टि के अनन्त प्रवाह को काल की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है।

सीमा की दृष्टि से देखा जाये तो भी सृष्टि का अन्त नहीं है। सृष्टि रूपी श्रृंखला की कड़ियों का आदि अन्त नहीं दिखायी पड़ता, इस बात पर विचार किया जाये कि मनुष्य सृष्टि के कितने अंशों को जान सकता है तो उसकी अल्पज्ञता को देखते हुए निराशा ही हाथ लगती है। संसार के समस्त ज्ञान का योग किया जाय तो भी वह सृष्टि के विराट् अविज्ञात ज्ञान के समक्ष उतना ही है जितना कि पहाड़ के समक्ष कंकड़ों का एक छोटा ढेर।

विराट् सृष्टि के अनन्त रहस्यों को देखते हुए ‘सर ऑलिवर लाज’ ने अपनी पुस्तक ‘मनुष्य तथा सृष्टि’ में लिखा है। “अनन्त नियम, अनन्त स्थान और अनन्त काल का सृजन करने वाली कोई अनन्त सत्ता ही हो सकती है। इस सृष्टि का निर्माण किसी सीमित शक्ति सम्पन्न सत्ता द्वारा सम्भव नहीं हो।,’

प्रसिद्ध दार्शनिक ‘डब्लू. आर. ईज.’ अपनी पुस्तक फिलासफी एण्ड रिलीजन में लिखते है, “सृष्टि को बनाने एवं उसका नियमन करने वाली सत्ता अनन्त ही हो सकती है। सृष्टि पर ईश्वर की प्रतिच्छाया परिलक्षित होती है। सृष्टि सदा रहती है क्योंकि इसका रचयिता नित्य है। यह अनन्त है क्योंकि इसको बनाने वाला अनन्त है। सृष्टि नियमित है क्योंकि इसका बनाने वाला ‘एक रस’ है। सृष्टि की सुव्यवस्था को देखकर विचार शीलता का पता लगता है क्योंकि उसका कर्त्ता बुद्धिमान है।”

उपरोक्त कथन वेद की उस मान्यता की पुष्टि करते है। जिसमें अथर्ववेद का ऋषि कहता है-

“यों भूतं च भव्यं च सर्व यष्चाधितिष्ठति।’

“वह ईश्वर भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे है।”

ईश्वर की अनन्त सत्ता का यह तो स्थूल स्वरूप रहा जिसका एक अंश भी अब तक जान सकना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं हो सका है। सृष्टि के स्थल स्वरूप की तुलना में अदृश्य चेतन जगत कही अधिक अद्भुत एवं रहस्यों से युक्त है। शास्त्रों में वर्णन है-

‘एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायाँष्च पुरुषः। पादोऽस्य विष्वाभूतानि त्रिपादस्यामृत दिवि॥’

“परमात्मा के वर्णित की अपेक्षा अवर्णित स्वरूप असंख्य गुना अधिक है। समस्त सृष्टि उसका एक स्वल्प भाग है। बड़ा भाग तो अमृत है।” अमृत का अभिप्राय यहां चेतना की उन परतों से है जो स्थूल सृष्टि से अलग सूक्ष्म जगत में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है तथा जीवन मरण से रहित है। वस्तुतः यह अमृतत्व ही अनन्तता है। उसे समझ सकना तो और भी कठिन है। मानव शरीर में कार्य कर रही चेतन परतों को ही अब तक न ही जाना जा सका है। उस परम चेतना को समझ पाना कठिन ही नहीं असम्भव ही है। ऋषियों ने इसी कारण उस परमात्मा को कहा था ‘नेति-नेति।

जीव अल्प है उसकी सामर्थ्य की अपनी सीमाएँ है। परमात्मा अनन्त है। उसकी शक्ति भी अपरिमित है। उसकी कल्पना मात्र से हृदय आन्दोलित एवं मस्तिष्क चकित हो जाता है। उसका सान्निध्य प्राप्त किया जा सके, अनन्तता से सम्बन्ध जोड़ा जा सके तो जिस प्रकार पानी की बूँद गंगा में मिलकर गंगाजल बन जाती है, उसी प्रकार जीव को सामर्थ्य भी अनन्त हो सकती है। उस मिलन की स्थिति में कितना आनन्द एवं सन्तोष मिलता है इसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

अल्प जीव का अनन्त ब्रह्म के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही आत्म-विकास है। क्रमिक विकास की श्रेणियों में होते हुए जीव उस अनन्तता का अनुभव करता है। उस अनन्तता की पूर्ण अनुभूमि को ही मुक्ति कहा गया है।

उस अनन्त सत्ता के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय। उसके संपर्क सान्निध्य को लाभ उठाया जा सके तो मनुष्य वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है जिसके लिए उसे जीवन का अनुपम आहार मिला है।


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