मरण को अस्वीकार करें और जीवन को खोजें

September 1977

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विश्व युद्धों के सृजन में संलग्न कूटनीति और सर्वनाशी आणविक अस्त्रों की घुड़दौड़ के जिस जमाने में हम लोग रह रहे हैं उसमें मनुष्य के मूल्य और मापदण्ड भी बदल गये हैं, लगता है अब मानवी अस्तित्व अनिश्चित है। उसमें न तो निश्चिंतता रह गई है और न निश्चिन्तता। यायावरों की तरह हम भटक रहे हैं और भविष्य के बारे में आतंकित हैं। आक्रामक शक्तियों की प्रबलता को देखते हुए सुरक्षा के आधार अत्यन्त दुर्बल हैं। एक उन्मादी आक्रमणकर्ता इसे धरती की अद्यावधि संचित सभ्यता को चुटकी बजाते भस्मसात् कर सकता है और समूचे सुरक्षा साधन हतप्रभ रहकर मरण को विवशतापूर्वक अंगीकार कर सकते हैं। आक्रमण के दैत्य का सुरक्षा का बालक किस प्रकार सामना कर सकेगा इस संदर्भ में कोई आशा की किरण न तो राजनीति के क्षेत्र से उदय होती है और न विज्ञान ही कोई संतोषजनक आश्वासन देता है।

विश्व युद्धों की इस गर्मा-गर्मी के साथ-साथ एक ठंडी आग भी सुलग रही है, वह है - मानवी मर्यादाओं का अवमूल्यन। शिक्षा और सुविधा साधनों की दृष्टि से हम प्रगति की दिशा में बढ़ रहे हैं, सूचनाओं से सही सिद्ध होता है। फिर भी पीड़ा और पतन में कहीं कमी होती दिखाई नहीं पड़ती। व्यक्तिवादी संकीर्णता और विलासी अहंकारिता से प्रेरित जन मानव ऐसी मान्यताएँ अपना रही है जिनमें पड़ोसी का शोषण अनिवार्य है। ममता और आत्मीयता का इस जलती मनः स्थिति में किसी प्रकार गुजारा नहीं। जन-मानस अपने जमाने की परम्परा जिस प्रकार प्रभावित कर रहा है उसमें मत्स्य न्याय अपनाने और जंगल का कानून बरतने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं । यही हो भी रहा है। मानवी प्रगति का एक प्रबल पक्ष सामने इस प्रकार आता है जिसमें व्यक्तिगत अथवा वर्ग स्वार्थ ही सब कुछ है। हाँ, यह सब पुराने फूहड़ ढंग से नहीं चतुरता और आवश्यकतानुसार किन्हीं आदर्शों की आड़ लेकर किया जाता है। आक्रामक अपनी दुष्टता स्वीकार नहीं करते वरन् उसे विवशता एवं प्रतिक्रिया सिद्ध करते हैं। अब छद्म ही प्रधान शस्त्र स्वीकार किया जा रहा है तो फिर अनय को भी किन्हीं तर्कों और कारणों से उचित सिद्ध करने में क्या कठिनाई हो सकती है?

जो, हो, युद्धोन्माद की सामूहिक और योजनाबद्ध चेष्टाओं की तरह वैयक्तिक चिन्तन, रुझान, क्रिया कलाप का और चरित्र का अध पतन भी कम विघातक नहीं है। एक का गरम आग, दूसरी को शीत की थरथराहट कह सकते हैं। विनाश की क्षमता दोनों में लगभग समान है। हाँ एक बिजली की तरह गिर सकती है जब कि दूसरी विपत्ति जलाने की तुलना में गलाने में अधिक धैर्य का परिचय देगी और अधिक समय लेगी।

चक्की के दोनों पाटों के बीच मानवी अस्तित्व लगभग अनिश्चितता की स्थिति में रह रहा है। सुरक्षा कहाँ से मिले? परिवर्तन कौन करे? आश्वासन कहाँ से मिले? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में हमें अपने अन्तरंग का द्वार खट-खटाना पड़ेगा। जीवन जिसे हर दिशा में संकट उतरता दिखता है; उसे नये सिरे से समझना पड़ेगा? क्या सचमुच वह इतना ही दीन दुर्बल है कि परिस्थितियों और प्रवाहों के सम्मुख मरण की मौन स्वीकृति देने के अतिरिक्त और कोई चारा ही उसे दिखाई न पड़े? क्या उसमें अपने निजी सुरक्षा शक्ति सचमुच ही कुछ नहीं है?

हमें अपने उस ‘अस्तित्व’ को समझना और जगाना होगा जिसके सहारे प्रकृति प्रदत्त दुर्बल काया के सहारे नगण्य सा जीवधारी सृष्टि का मुकुट मणि बनने की लम्बी मंजिल पार कर सकने में सफल हो सका। इस धरती की अनगढ़ता को सुघड़ता में बदलने का श्रेय किसे दिया जाय? क्या वह मानवी अस्तित्व से भिन्न कोई और वस्तु है जिसने आदिम काल की तुलना में जीवन का स्वरूप और संसार का ढाँचा ही बदल कर रख दिया? जिस विज्ञान ने मरण की विभीषिकाएँ ला खड़ी की हैं-क्या वह मानवी मस्तिष्क की एक नगण्य सी लहर नहीं है? क्या अपने उत्पादन पर अपना नियन्त्रण हो सकना सम्भव नहीं है? जब हमीं ने चलने की दिशा निर्धारित की है तो क्या उसे उलटने, बदलने या मोड़ने की सामर्थ्य से अपने आपको रहित मानना उचित है।

जीवन इतना दुर्बल नहीं है कि उसे अपनी ही क्रिया-प्रतिक्रिया के सामने मरण की लाचारी स्वीकृत करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही दृष्टिगोचर न हो? यदि पतन और विनाश के सरंजाम खड़े करने की जीवन में क्षमता है तो निश्चय ही उत्कर्ष और परिवर्तन की क्षमता भी उसमें होनी ही चाहिए। अपना यही अस्तित्व हम भूल गये या गँवा बैठे हैं। अन्धकारमय दिखने वाले भविष्य में ज्योति उत्पन्न करने के लिए यदि बाहर से प्रकाश नहीं मिल रहा है तो भी निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने अस्तित्व को अन्तरंग को यदि खोजें तो वहाँ बहुत कुछ मिलेगा। इसी भूमि में विभीषिकाएँ उपजती हैं तो क्यों नहीं आशा की किरणें उसी क्षेत्र में उद्भूत हो सकती है?

हमें जीवन को समझना होगा और अस्तित्व की गरिमा को नये दृष्टिकोण से कुरेदना पड़ेगा। अन्यथा हम जी नहीं सकेंगे। यह शोध यों सदा से उपयोगी रही है, पर आज तो उसकी ऐसी आवश्यकता है जिसकी उपेक्षा करके हम जीवित नहीं रह सकेंगे। यदि मरण से हम असहमत हैं तो फिर साहसपूर्वक जीवन का समर्थन करना होगा। आक्रमण और उपभोग का वर्चस्व स्वीकार करना यही है भौतिकवादी दृष्टि एवं सभ्यता। इसे छाती से चिपकाये रह कर हम आग से झुलसने जैसा ही कष्ट पाते रहेंगे। यदि यह अनुपयुक्त और असह्य लगता हो तो उन स्रोतों को बन्द करना होगा जहाँ से प्रस्तुत विकृतियाँ और विपत्तियाँ उपजती और बढ़ती हैं।

परिस्थितियों में परिवर्तन लाने के लिए मनःस्थिति और दृष्टि का नये सिरे से निर्धारण करना होगा। इसका अर्थ है-जीवन के अस्तित्व के- मूल स्वरूप को समझना और तद्नुरूप अपने आपे को ढालना। इसका और भी अधिक खुलासा करना हो तो कहना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन का अभिनव आरम्भ-धर्म धारणा का पुनर्जागरण । धर्म से तात्पर्य किसी सम्प्रदाय विशेष से, मतान्तर से नहीं वरन् उस दर्शन से है जिसका अभिप्राय होता है- मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं, की स्वेच्छया स्वीकृति। यह आदर्शवादी प्रतिष्ठापना वस्तुतः उस सनातन श्रद्धा का ही पुनर्जीवन है जिसने अतीत में मनुष्य को आदिम युग की विषमताओं को निरस्त करते करते इस प्रगतिशीलता और सुविधा सम्पन्नता से भरी पूरी परिस्थितियों तक पहुँचाया है।

“ हमें जीवन खोजना होगा । अस्तित्व को भ्रान्तियों के भटकाव से उबारना होगा। जीवन बड़ा है। उसकी संभावनाएं बड़ी हैं। अपने अस्तित्व में आशा की वे सभी किरणें विद्यमान हैं ‘जिनके लिए हम आतुरता भरी प्रतीक्षा करते हैं। संकट बड़ा है, पर इतना बड़ा नहीं जिस पर जीवन के लिए विजय प्राप्त कर सकना सम्भव न हो। “ वेरिस पास्तर नाक


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