व्यक्ति स्थूल और सूक्ष्म दो भागों में विभक्त है। स्थूल भाग वह है जिसमें शरीर और मन आते हैं। इन्द्रिय समूह इसी के अंतर्गत है। मन भी ग्यारहवीं इन्द्रिय है। मस्तिष्क स्पष्टतः शरीर का ही एक भाग है। इस क्षेत्र की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को भौतिक कहा जाता है। इनकी पूर्ति औचित्य की सीमा तक आवश्यक भी है। निर्वाह के लिए हर किसी को इस व्यवस्था में भागीदार रहना पड़ता है।
व्यक्ति का दूसरा भाग आन्तरिक एवं आत्मिक है। आत्मा सत् चित् आनन्द है। ईश्वर का अंश होने के कारण उसकी प्रकृति मूलतः उच्चस्तरीय है। उसमें दैवी गुणों का समावेश है। उत्कृष्ट आकांक्षाएँ एवं आस्थाएँ अन्तः करण में जिस मात्रा में विद्यमान रहती हैं, समझना चाहिए कि ईश्वरीय तेजस् यहाँ उतनी ही मात्रा में अवतरित हो रहा हैं। यह आत्मिक पवित्रता जब स्वच्छ दर्पण सदृश बन जाती है तो उसी में आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन का पुण्य प्रतिफल प्राप्त होता है।
जीव का एक मात्र लक्ष्य अपूर्णता एवं विकृतियों के भवबन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति के चरम सुख को प्राप्त करना है। पशु प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने का नाम ही मुक्ति अथवा मोक्ष है। स्वर्ग के उस परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम है जिसमें संकीर्ण स्वार्थपरता के व्यक्तिवादी नरक का कहीं दर्शन भी नहीं होता और पवित्रता एवं परमार्थ परायणता अपनाने वाले को मिलने वाला अनवरत सन्तोष तथा उल्लास मिलता रहता है।
मनुष्य में जहाँ असंख्यों विशेषताएँ हैं वहाँ यह एक दुर्बलता भी है कि वह जैसे वातावरण में रहता है उसी के अनुरूप ढलने लगता है। ऐसे मनस्वी बहुत कम होते हैं जो अपनी प्रचण्ड प्रतिभा से वातावरण को बदल देने में समर्थ होते हैं। वातावरण से स्वयं प्रभावित नहीं होते। सामान्य जन-प्रक्रिया यही है कि व्यक्तित्व दुर्बल सिद्ध होता है और वातावरण उसे अपने रंग में रंगता और ढाँचे में ढालता चला जाता है। बच्चे पहले सुनते हैं फिर उन शब्दों का अर्थ समझने एवं बोलने में सफल होते जाते हैं। भाषा जो अभिभावक बोलते हैं उसी को बच्चा सीख जाता है। धर्म और संस्कृति के बारे में भी यही बात है। जिस वातावरण में पैदा होते हैं यही परम्पराएँ अन्तःकरण में जड़े जमा लेती हैं और स्वभाव का अंग बन जाती हैं। संसार में विभिन्न प्रकार के विश्वासों का प्रचलित होना और लोगों का उन पर कट्टर बने रहना यही सिद्ध करते हैं कि मनुष्य पर वातावरण का कितना गहरा प्रभाव पड़ता है। अनुपयुक्त समझी जाने वाली बातों को अपनाये रहते हैं, और अभ्यस्त बने रहते हैं। इसका कारण औचित्य अपनाने की तुलना में वातावरण के प्रभाव की ही गरिमा सिद्ध होती है।
जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए उत्कृष्ट, चिन्तन एवं परिष्कृत कर्तृत्व अपनाकर व्यक्तित्व को ‘सुसंस्कृत बनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए पूजा, उपासना, जप, तन आदि के विधि-विधान बनाने गये हैं। आत्म-निमार्ण ही ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा बनकर सामने आ खड़ा होता है। भगवान को लुभाने-फुसलाने की सारी तिकड़म निरर्थक सिद्ध होती हैं। आत्म-शोध नहीं ईश्वर प्राप्ति की महान उपलब्धि का प्रतिफल उत्पन्न करता है।
इसके लिए क्या किया जाय? इस प्रश्न के उत्तर में जीवन साधना की योजना बना कर अपने इर्द-गिर्द ऐसा दिव्य वातावरण बनाना है जिसके संपर्क में जीवात्मा को दिव्य विभूतियों का रस मिलने लगे। होता यह है कि संसार की अवांछनीय गतिविधियाँ ही अपने चारों ओर बिखरी दीखती हैं। जन समूह, वासना, विलासिता, तृष्णा, अहंता को जीवन में सर्वोपरि स्थान देता है। इन्हीं प्रयोजनों के लिए दौड़ धूप करता है। साहित्य और परामर्श भी आमतौर से इसी दिशा में प्रोत्साहन देने वाले मिलते हैं। स्वजनों जोर मित्रों का परामर्श भी यही उद्देश्य लिये होता है कि लोभ, मोह में अधिकाधिक गहराई तक ग्रसित रहा जाय। संग्रह और उपभोग जो जितना कर सकता है दुनिया वालों की दृष्टि में वह उतना ही सफल और सुखी है। प्राचीन काल में लोक मान्यता ऐसी न थी, प्रचलन भी ऊँचे थे और परम्पराओं में भी आदर्शवादिता का समावेश था’, पर अब तो उपयोग और अहंता की तृप्ति के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं। आदर्शवाद की डींगें जहाँ-तहाँ हाँकी जाती हैं पर वहाँ भी ढोल में पोल ही भरी रहती है। जिधर भी दृष्टि पसार कर देखते हैं, पतन और प्रलोभनों का ही घटा टोप छाया दीखता है।
वातावरण की इस विषाक्तता का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है और वह अनजाने ही इस प्रवाह में सम्मोहित की तरह बिना आगा पीछा सोचे बहने लगता है। यही क्रम चलता रहें तो अन्त पतन के गहरे गर्त में गिर पड़ते के रूप में ही हो सकता है। हिमालय के धवल शिखरों से नीचे उतर कर बहने वाली नदियाँ क्रमशः गंदली होती जाती है और अन्ततः समुद्र में गिर कर खारी अपेय बन जाती है। पतन का यही क्रम है। उसी में क्रमशः तीव्रता आती हैं। वही ढर्रा अभ्यास का अंग बन कर मन भावन बन जाता है। न उसमें परिवर्तन करने की इच्छा होती है और न आत्मोत्कर्ष का द्वार खुल पाता है।
पतन क्रम को उत्कर्ष में किस प्रकार परिणय किया जाय ? इस प्रश्न का सुनिश्चित उत्तर एक ही हो सकता है कि वातावरण बदला जाय । हम अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करें जो ऊँचा उठाने का आधार बन सकें और उत्कर्षों में सहायक सिद्ध हो सके। कहा जा चुका है कि ऐसा दिव्य लोक, कहीं है नहीं, उसे अपने अनुरूप स्वयं ही विनिर्मित करना होता है। यदि इस प्रयास में सफलता मिल सके तो समझना चाहिए कि लक्ष्य प्राप्ति का पथ-प्रशस्त हो गया। जब तक ऐसी स्थिति न आये तब तक समझना चाहिए कि ओस चाटने और मृग तृष्णा में भटकने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ने वाला है। किसी के अनुग्रह से यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने जैसी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकता। अपने लिए दिव्य लोक की परिष्कृत वातावरण का सृजन तो अपने हाथों स्वयं ही करना पड़ता है। ब्रह्माजी ने भी अपनी सृष्टि अपने हाथों ही विनिर्मित की थी। हमें अपने उपयुक्त सृजनात्मक वातावरण से भरा पूरा लोक स्वयं ही बनाना होगा।
कहा जा चुका है कि स्वाध्याय, सत्संग और मनन चिन्तन की चतुर्विधि साधन सामग्री से अपने मनःक्षेत्र को घेरे रहने वाला उपयोगी वातावरण बनता है। इसके अतिरिक्त आत्म बलवर्धक व्यायामों में सर्वसुलभ एवं सर्वश्रेष्ठ उपाय है-ध्यान ध्यान मग्न होकर हम अपना इष्ट आराध्य स्वयं विनिर्मित करते हैं और उसके साथ श्रद्धासिक्त घनिष्ठता स्थापित करके तादात्म्य की दिशा में बढ़ते चले जाते हैं। ध्यान लोक वस्तुतः स्वनिर्मित ऐसा स्वर्गीय नन्दन वन है, जिसका सृजन, संवर्द्धन, परिपोषण हम स्वयं ही करते हैं। इसे परिपक्व बनाते हैं। पत्र, पल्लवों से सजाते हैं और फल फूलों से लदा हुए परम मंगलमय उद्यान के रूप में विकसित कर लेते हैं। इसी में रमण करते समय आनन्द उल्लास की अनुभूति करते हैं और अन्ततः उसी में लय होकर पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ध्यान की परिभाषाएँ इस ऊबड़-खाबड़ बेढंगी-बेतुकी दुनिया को बहुत ऊँची बहुत अच्छी, बहुत सुन्दर, बहुत सुसंस्कृत परिस्थितियों से भरी पूरी एवं नई दुनिया बनाती है। इसे अपना ही प्राण भरना पड़ता है और सुरम्य चित्र की तरह हर्षोल्लास से परिपूर्ण बनाना पड़ता है। ध्यानयोग यदि दिव्य तथ्यों और आदर्शों के अनुरूप सम्पन्न किया जा सके तो समझना चाहिए कि एक ऐसा दुर्ग बना लिया जिसमें बैठकर माया के दुष्ट अनुचरों से सहज ही बचा जा सकता है और अपनी आत्मिक विशिष्टता को सुरक्षित रखा जा सकता है,
ध्यान यों सामान्य जीवन में घर गृहस्थी का-आजीविका का उद्योग का-सुविधा साधनों का एवं अन्यान्य विषयों का अन्तर ही रहता है। ध्यान के आधार पर ही हम वस्तुओं और व्यक्तियों की साज संभाल रख पाते हैं। प्रगति की योजनाएँ बनाने से लेकर जीवनयापन की गतिविधियाँ सम्भालने तक के सारे कार्य इसी आधार पर ही हम वस्तुओं और व्यक्तियों की साज संभाल रख पाते हैं। प्रगति की योजनाएँ बनाने से लेकर जीवनयापन की गतिविधियाँ सम्भालने तक के सारे कार्य इसी आधार पर चलते हैं। किन्तु आध्यात्मिक प्रगति के लिए जो ध्यान किया जाता है उसकी स्थिति भिन्न है। उसके दो चरण हैं, पहला यह कि अपने आपको-संसारी प्रभाव के पृथक् होने ऊँचे उठने की मनःस्थिति बनानी पड़ती है ताकि पशु प्रवृत्तियों से कुछ समय स्वतन्त्र रहने का अवसर मिल सके। घेरा-बन्दी से निकल कर ही आत्म चिन्तन-ब्रह्म वन्दन सम्भव हो सकता है। साधना उपचार में ‘एकान्त’ की चर्चा बहुत होती है उसे आवश्यक माना जाता है। यहाँ एकान्त से मतलब किसी गुफा, कुटी आदि में अकेले रहने से नहीं वरन् संसारी प्रभावों से मुक्त होकर विशुद्ध अध्यात्म लोक में जा पहुँचना है।
ध्यान का दूसरा चरण है दिव्यता का सामीप्य सान्निध्य, ऐसी स्थिति जब गहन हो जाती है और चेतना उसमें रमण करने का रसास्वादन करने लगती है तो फिर समझना चाहिए कि जीवन मुक्ति की- समाधि की-भूमिका बन चली । उच्चस्तरीय तत्वों का दर्शन संसार में तो कभी-कभी ही दिखाई पड़ता है। उन्हें ध्यानावस्था में स्वयं ही विनिर्मित करना पड़ता है। स्वयं ही अपने इस निमार्ण में रस लेना पड़ता है और फिर अन्ततः उसी में आत्मसात् होकर आत्मा द्वारा आत्मा को प्राप्त करने का- आत्मा से आत्मा का उद्धार करने का तत्व दर्शन व्यवहार में उतारना पड़ता है। ध्यान की यही उभय पक्षीय पृष्ठभूमि है। इस आधार पर आत्मा निमार्ण का पुण्य प्रयोजन पूरा करने में अत्यधिक सहायता मिलती है।
स्वर्ग लोक ऊपर है और नरक नीचे। इस पौराणिक मान्यता का यथार्थवादी अर्थ यह है कि उत्कृष्ट चिन्तन के समय का-तथा उसे व्यवहार में लाने की स्थिति का-जो दिव्य आनन्द है उसका महत्व और मूल्य समझा जाय । निकृष्ट चिन्तन एवं घृणित कर्तव्य अधोगामी, दुष्प्रवृत्ति का परिणाम है नरक। उसमें द्वेष, क्रोध, असन्तोष, रोष आदि मानसिक विक्षोभ भरे पड़े हैं। साथ ही मानसिक विपन्नता से शारीरिक रोगों की सृष्टि होती है और व्यवहार में असन्तुलन आ जाने से हर कार्य में असफलता ही मिलती चली जाती है। यही नरक है।
ध्यान को ऊर्ध्वलोक गमन कह सकते हैं। उसमें इष्ट आराध्य होता है उच्चस्तर का। राम, कृष्ण, गणेश, महेश , गायत्री, सरस्वती, सूर्य आदि भगवान का कोई भी रूप क्यों न हो ? उसे उपास्य ठहराकर भाव भरे दिव्य नेत्रों से पूजन अभिनन्दन किया जाता है। यह साकार ध्यान हुआ । निराकार ध्यान में प्रकाश पुँज का ध्यान किया जाता है। शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की सहायता से अन्य प्रकार की दिव्य सम्वेदनाओं का ध्यान करते हैं। कई गुरु चरणों का भी स्मरण करते हैं। यह सब इसी प्रयोजन के लिए होता है कि दिव्य विभूतियों से सुसम्पन्न ईश्वरीय सत्ता के साथ दिव्य लोक में पहुँच कर संपर्क बनाया जाय और उसकी कृपा अनुकम्पा के रूप में उन विशेषताओं को अपने में अवतरित किया जाय।
ध्यान के समय जो भावनाएँ आकांक्षाएँ आस्थाएँ रखी जाती है वे लौकिक नहीं-पारलौकिक आध्यात्मिक उच्चस्तरीय होती हैं। यों संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरे बाल बुद्धि व्यक्ति इस उपासना काल में भी तरह तरह की भौतिक कामनाएँ करते रहते हैं और उनकी पूर्ति के लिए देवी देवताओं के सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं। ऐसी पूजा पत्री में भी ध्यान योग की मौलिकता में सर्वथा दूर एवं भिन्न ही समझना चाहिए। अन्तःकरण को पशु प्रवृत्तियों से छुड़ाना मानव कहलाने योग्य बनाना और अन्ततः देवोपम स्थिति तक उतनी ही अंतःक्षेत्र की खदान में छिपी हुई रत्न राशि करतलगत होती जाती है। जन साधारण में यह भ्रम है कि साधना की विलक्षणता से जादुई सिद्धि मिलती है। इसमें से एक मध्यवर्ती आधार बिन्दु भुला या हटा दिया जाता है कि सच्ची साधना का प्रत्यक्ष प्रतिफल अतिमानव स्तर का उपलब्ध होता है। साधक महात्मा और देवात्मा बनता है और अन्ततः परमात्मा की भूमिका तक जा पहुँचता है यही आत्मोत्कर्ष का सुनिश्चित पथ है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं व्यक्ति गुण, कर्म स्वभाव की दृष्टि से तो हेय स्तर का बना रहे पर पूजा पाठ की किन्हीं क्रिया प्रक्रियाओं को अपनाकर अपने में दिव्य विभूतियाँ एवं चमत्कारी सिद्धियाँ उत्पन्न कर ले। बीज बोने से पौधा पौधे को विकसित होने पर फल। यह सनातन नियम है। बीज से सीधे फल निकलते कहीं नहीं देखे जाते। साधना बीज है। परिष्कृत व्यक्तित्व उसका पौधा । इसी के परिपुष्ट होने पर आत्मोत्कर्ष की वे उपलब्धियाँ मिलती हैं, जिनके आधार पर जीवन सच्चे अर्थों में धन्य बनता है।
ध्यान के सहारे जीवन के चरम लक्ष्य की प्रतिष्ठापना की जाती है, उसे मान्यता दी जाती है और उसी में भक्ति भाव के साथ तन्मय समर्पित हो जाने की तैयारी की जाती है। राम भरत का मिलन, दीपक पर पतंगे का समर्पण यज्ञ कुण्ड में घृत वसोधरा, सूर्य के सम्मुख जल अर्घ्य जैसे ध्यान करते हुए दिव्य सत्ता के साथ तादात्म्य होने की-सर्वतोमुखी आत्म समर्पण की मनः स्थिति बनाई जाती है। यह सारा सरंजाम इसलिए है कि अन्तःचेतना की भव बन्धनों की जकड़न ढीली करने और दिव्य वातावरण के साथ अपना संपर्क बनाने का अवसर मिले। जितना रस वासना और तृष्णा की पूर्ति में आता है उतना ही यदि उत्कृष्टता और आदर्शवादिता में आने लगे तो समझना चाहिए साधना का उद्देश्य पूरा होने लगा। भारी चीजों को उठा कर ऊपर पहुँचाने का कार्य ‘क्रेन’ करती है। पशु प्रवृत्तियों की जकड़न से-लोभ मोह की विषमता से- ऊँचा उठ सकना माया ग्रस्त प्राणी के लिए अति कठिन है। इस कठिनाई को, समानान्तर सन्तुलन बनाने से ही हल किया जा सकता है। ध्यान लोक का सृजन इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है कि वह दृश्य जगत में निरन्तर उठने वाली विकृतियों के दुष्प्रभाव से टक्कर ले सके। पतनोन्मुख रीति नीति अपनाये रहने से स्वभाव उसी ढाँचे से ढल जाता है, आदतें वैसी ही बन जाती हैं, आकांक्षायें वैसी ही उठती हैं और क्रिया ही अभ्यस्त ढर्रे पर लुढ़कती रहती है। इस प्रवाह को रोकने के लिए बाँध बनाने का कार्य ध्यानयोग से ही सम्भव होता है। अस्तु ध्यान की गरिमा अध्यात्म क्षेत्र में सदा से बताई, गाई जाती रही है। उसे सही ढंग से तात्त्विक पृष्ठभूमि पर आरम्भ किया जा सके तो समझना चाहिए जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाला एक अति महत्वपूर्ण आधार करतलगत हो गया।