मित्र और शत्रु का अन्तर जानने की कसौटी

September 1977

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अपने इस धूर्तता के युग में उत्कृष्टता की आड़ में निकृष्टता छिपा कर घात करने की कला का जितना विकास हुआ है, उतनी कदाचित ही और किसी क्षेत्र में उन्नति हुई है। पुराने समय में भी मनुष्य दुष्ट तो रहे होंगे, पर उम्र दुष्टता में धूर्तता मिली हुई नहीं थी। जो शत्रु सो शत्रु- जो मित्र सो मित्र। जो भीतर सो बाहर- जो बाहर सो भीतर। इस मनःस्थिति में वास्तविकता समझने का अवसर मिलता था और मनुष्य सहयोग की अपेक्षा एवं आक्रमण की सतर्कता के सम्बन्ध में अपना मस्तिष्क साफ रखता था। आज की स्थिति इस दृष्टि से भारी उलझन भरा हो गई है। शत्रु भी अपनी शालीनता की रक्षा करेंगे ऐसी आशा नहीं रही। किसी समय सूर्य अस्त होते ही युद्ध विराम हो जाते थे और दोनों पक्ष के सैनिक परस्पर बिना किसी खतरे की आशंका किये परस्पर मिलते-जुलते और जी खोल कर बातें करते थे। सूर्योदय होने के उपरान्त रणभेरी बजती थी। तब परस्पर लड़ते-कटते थे। रात्रि में सभी निश्चिंततापूर्वक गहरी नींद सोते थे।

आज मित्रता की आड़ लेकर शत्रुता बरतने का प्रचलन बढ़ता जाता है। इसे चतुरता, कुशलता समझा जाता है और इस प्रयास में सफल व्यक्ति आत्मश्लाघा भी बहुत करते हैं। साथी को मित्रता के जाल में फँसाकर उसकी बेखबरी का भोलेपन का अनुचित लाभ उठा लेना-यही आज तथाकथित ‘चतुर’ लोगों की नीति बनती जा रही है। असंख्यों की जिन्दगी कुसंग में बर्बाद होती है।

बढ़ती हुई बीमारियों के फैलने से होने वाले दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए रोकथाम तथा उपचार के उपाय बरते जाते हैं। मित्रता की आड़ में शत्रुता बरतने का छद्म इन दिनों सर्वत्र खतरे की आशंका उत्पन्न कर रहा है। ऐसी दशा में मित्र और शत्रु की कसौटी हर घड़ी साथ रखने की आवश्यकता है। यह कसौटी रामायणकार ने बहुत पहले ही प्रस्तुत कर दी है। इस पर उन सभी को निरन्तर परखते रहना चाहिए जो मित्रता का दावा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार करते हैं। रामायण मित्र के लक्षण बताते हुए कहती है-

जे न मित्र दुःख होंहि दुःखारी। तिनहिं विलोकत पातक भारी॥

निज दुःख गिरि सम रज करि जाना। मित्र दुःख रज मेरु समाना॥

कुपथ निवार सुपन्थ चलावा। गुन मकर्ट अव गुनहिं दुरावा॥

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥

विपति काल कर सत गुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन ऐहा॥

इस उक्ति में (1) मित्र के प्रति उदार सहयोग (2) अपने लाभ उपार्जन में संकोच (3) कुमार्ग का निराकरण (4) सन्मार्ग के लिए प्रोत्साहन (5) गुणों का प्रकटीकरण (6) दुर्गुणों के सम्बन्ध में सार्वजनिक मौन किन्तु एकान्त में भर्त्सना तथा छोड़ने का परामर्श (7) उपयोगी आदान प्रदान (8) सामर्थ्य भर हित साधन (9) विपत्ति काल में संरक्षण । इन सब कसौटियों पर मित्रता की वास्तविकता परखी जाती रहनी चाहिए। पति पत्नी परस्पर सघन मित्र माने जाते हैं। उनकी मैत्री इन सिद्धान्तों के अनुरूप होना चाहिए। मित्र जब अति दीनता, आवश्यकता, कठिनाई का बनावटी बहाना बनाकर समर्थ मित्र के शोषण का जाल बुन रहा हो तब तो अत्यधिक सतर्कता की आवश्यकता है। वस्तुतः सच्चे मित्र लेने की बात सोचते तक नहीं, देने ही देने का चिन्तन और प्रयास उनके मन में चलता रहता है। अधिकार का उपयोग वे नहीं करते मात्र कर्तव्य का पालन करते रहने से ही वे अपनी मित्रता की यथार्थता प्रमाणित करते रहते हैं।


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