अपनों से अपनी बात

September 1977

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युग-निर्माण परिवार के परिचितों, सहयोगियों, समर्थकों की संख्या बहुत बड़ी है। वह आधे करोड़ से ऊपर लोग अपने साथ किसी न किसी प्रकार बंधे हुए हैं। इनमें घनिष्ठ, कर्मठ नियमित और सुव्यवस्थित कितने परिजन हैं इसकी परख इस कसौटी पर की जाती है कि जो पत्रिकाओं के नियमित ग्राहक है। हर महीने उत्सुकता और आतुरता पूर्वक नये विचारों की प्रतीक्षा करते हैं। दो चार दिन भी लेट हो जाने पर आकुल हो उठते हैं-उन्हें घनिष्ठ परिजन माना जाय । जिन्हें विचारधारा से उतना लगाव नहीं है-मात्र पूजा उपासना में या अन्य परामर्शों के कारण ही संपर्क बनाना, बढ़ाना और ढोला करना पड़ता है उन्हें न तो घनिष्ठ माना गया है और न अपनी किसी योजना में उनके सहयोग की जाना हर दृष्टि से आशा से -अधिक सफल रहा है। व्यक्ति निर्माण , परिवार निर्माण और समाज निर्माण के व्यापक अभियान का शुभारम्भ इन्हीं आत्मीय जनों से आरम्भ हुआ और चिनगारी के दावानल बनने की तरह सुविस्तृत होता चला गया है।

अब पुनर्गठन योजना के अनुरूप अपने इस देव परिवार को व्यक्तित्वों को अधिक व्यवस्थित रीति से सुविकसित बनाने के लिए अधिक तत्परता पूर्वक प्रयत्न आरम्भ कर रहे है । व्यक्ति की श्रेष्ठता ही समाज की उन्नति कहलाती है। कर्मठ नागरिक ही किसी राष्ट्र की सच्ची सम्पदा कहलाते हैं। मनुष्यों का समुदाय ही विश्व कहलाता है। युग बदलने का अभिप्रायः व्यक्तियों अपेक्षा की गई है। यों उनमें भी समय-समय पर कई प्रकार के उपयोगी सहयोग समर्थन मिलते रहते हैं। पत्रिकाओं के नियमित सदस्यों की संख्या लगभग दो लाख जा पहुँचती है। इन्हें हम परिजन कहते हैं। विचारों के प्रति इतनी उत्सुकता आस्था को देखते हुए यह आशा करते हैं कि इन्हें विचारों के अनुरूप सक्रियता अपनाने के लिए कहा और सहमत किया जा सकता है। अब तक होता भी यही रहा है। स्वतन्त्रता संग्राम में विजय प्राप्त होने के दिन ही युग निर्माण परिवार की नींव रखी गई है। इन तीस वर्षों में नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की दिशा में विज्ञापन बाजी से दूर रहते हुए इस समुदाय ने अति महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न की है। धर्म मंच को लोक शिक्षण का माध्यम बनाया का स्तर ऊँचा उठाने से है। मनुष्य की गरिमा उसकी शिक्षा, समृद्धि या वैभव से नहीं उसकी अन्तःस्थिति के अनुरूप आँकी जाती है। यह आन्तरिक गरिमा ही मनुष्य की वास्तविक सामर्थ्य का स्त्रोत है। उसी के सहारे वह प्रगति की अभीष्ट दिशा में आगे बढ़ता और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचता है। अखण्ड-ज्योति का आरम्भ से ही यह प्रयास रहा है कि परिजनों के चिंतन में मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाली विचारणा और क्रिया-कलापों में आदर्शवादी गतिविधियों का समावेश हो। पिछले चालीस वर्ष में इस उत्कृष्टता सम्बन्ध प्रयास में जो सफलता मिली है। उसने यह उत्साह उत्पन्न किया है कि परिवार के सदस्यों को केवल दिशा देते रहने से सन्तोष न किया जाय, वरन् प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन का स्पर्श एक व्यवस्थित योजना के अनुसार किया जाय। विचारों से प्रभावित होकर कोई अपनी विशेषता के कारण आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने लगे, यह संयोग एवं सौभाग्य ही कहा जा सकता है। अपना श्रेय इस बात में है कि सभी परिजनों को योजनाबद्ध रूप से व्यक्तित्वों के परिष्कार की शिक्षा और प्रेरणा दी जाय। सोचा यही गया है। कि पत्रिकाओं के दो लाख सदस्यों से सीधा संपर्क साधा जाय और उन्हें आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ चलने के लिए क्रियात्मक शिक्षण ,परामर्श, प्रोत्साहन और भव भरा अनुदान प्रदान किया जाय। इस गुरु पूर्णिमा से परिवार का पुनर्गठन इसी उद्देश्य के लिए किया गया है। आत्मोत्कर्ष की दिशा में हर परिजन को अभिनव प्रकाश देने और इस दिशा में उन्हें अधिक सक्रिय बनाने का प्रयास अब और भी अधिक क्रमबद्ध रूप से आरम्भ कर दिया गया है। ध्यान रहे कि व्यक्तिगत सर्वतोमुखी प्रगति का मूल केन्द्र अन्तः चेतना में सन्निहित है। जड़े गहरी और मजबूत होती हैं तो पेड़ का तना और परिकर भी परिपुष्ट और सुरभित दीखता है। भीतर से टूटा हुआ मनुष्य बाहर से हजार प्रयत्न करने पर भी न विकसित हो सकता है और न सुखी रह सकता है। जो भीतर से सुदृढ़ है उसे बाहर के अभाव एवं अवरोध दबोच नहीं सकते। आन्तरिक प्रखरता हर असुविधा से टकराती हुई दूने उत्साह से उछलती मचलती चलती है और अन्ततः अपना लक्ष्य पूरा करके रहती है। आन्तरिक बल ही वास्तविक बल हैं। आन्तरिक तेजस्विता ही बाह्य क्षेत्र की अगणित सफलताओं में झाँकती है! यदि इस मर्म तथ्य को समझा जा सके तो आत्मोत्कर्ष को ही सर्वोपरि प्रधानता देनी होगी। उस क्षेत्र में जो जितना आगे बढ़ सकेगा वह उतना ही सुसंस्कृत , सम्मानित , समृद्ध एवं सफल दिखाई देगा। भीतर की विभूतियाँ ही सफल बाह्य जीवन की अनेकानेक सिद्धियाँ बनकर सामने आती हैं।

गत अंक में इस तथ्य पर सुविस्तृत प्रकाश डाला गया है कि आत्मिक प्रगति कोई जादू नहीं है जो अमुक मन्त्र-तन्त्र देवी-देवता या किसी सिद्ध महात्मा की कृपा से मिल सके, तो तुर्त-फुर्त चमत्कार दिखा सके। यह अन्यान्य उत्पादनों की तरह एक समय साध्य एवं श्रम साध्य क्रिया-प्रक्रिया है, जिसमें अपनी अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने के लिए भागीरथी प्रयत्न करना पड़ता है। इस मंजिल को अपने ही पैरों से चलकर पूरा करना पड़ता है । मार्गदर्शन अथवा यत्किंचित् सहयोग तो दूसरों से भी मिल सकता है, पर ‘स्वर्ग अपने मरने पर ही दीखता है’ वाली उक्ति तथ्य का सहज ज्ञान कराती रहती है। अपने मुँह चलाने से ही पेट भरता है- अपने पढ़ने से ही विद्या आती है। पहलवान बनने के लिए स्वयं ही व्यायाम करना पड़ता है, यही बात अपने कुसंस्कारों से आप लड़ने और सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने का अभ्यास करने के परम पुरुषार्थ द्वारा आत्म विकास का महान प्रयोजन सिद्ध करने के सम्बन्ध में कही जा सकती है। आत्मोत्कर्ष के लिए जो तपश्चर्या करनी पड़ती है उसके साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा चार अंग हैं। यह सभी एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भवन निर्माण में ईंट चूना लकड़ी लोहा चारों ही चाहिये। जीवन निर्वाह में भोजन, शयन, मल, विसर्जन और उपार्जन में से एक भी छोड़ने से कठिनाई उत्पन्न होगी। कृषि में बीज, भूमि, खाद और पानी की समान उपयोगिता है। कल्पना लोक के आकाश कुसुम तोड़ने हों तो किसी जादू चमत्कार के फेर में पड़े रहने से भी काम चल सकता है। यदि यथार्थ अभीष्ट हो तो आत्म निर्माण के लिए भवन निर्माण स्तर का उद्यान खड़ा करने, कारखाना चलाने जैसे सूझ बूझ भरे प्रबल पुरुषार्थों की आवश्यकता होगी। पुनर्गठन की वर्तमान रूपरेखा इसी आधार पर बहुत विचारपूर्वक टोलियों की छोटी किन्तु जीवन्त इकाइयों को आधार बनाकर तैयार की गयी है। उसे पूरा करने के लिए हर परिजन को चार चरण बढ़ाने ही होगे।

प्रथम चरण टोली निर्धारण-

बड़े प्रयास सदा संगठित रूप से ही सम्पन्न हुए हैं और बड़े जन समुदायों का सुव्यवस्थित प्रशिक्षण, निर्माण, निर्धारण छोटे टोली विभाजनों के आधार पर ही सम्भव होता है। पिछले दिनों काम हलका था। इसलिए एक स्थान पर एक शाखा संगठन बना देने से काम चलता रहा है अब चूँकि प्रत्येक सदस्य को सक्रिय करने के साहसिक कदम के कार्य भार को अनेक गुना बड़ा कर दिया है ऐसी दशा में गठन की इकाइयों को छोटा कर देने के अतिरिक्त और कोई व्यावहारिक उपाय रह नहीं गया है। अगस्त अंक में परिजनों के व्यक्तिगत परिचय संग्रह करने का तात्पर्य यह है कि उनकी स्थिति को ध्यान में रखते हुए वैसा ही प्रयास परामर्श किया जाय जैसा कि चिकित्सक हर रोगी की पृथक् स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें भिन्न भिन्न स्तर के पथ्य, उपचार बताते हैं।

हृदय शरीर के समस्त तन्तुओं को स्वच्छ रक्त प्रदान करता है और उस क्षेत्र की विकृतियों को समेट कर वापिस बुलाता है। इस कार्य का मध्यवर्ती प्रयोजन बड़ी नाड़ियाँ करती हैं। रक्त को ले जाने और वापिस लाने में उन्हीं की बढ़ी चढ़ी भूमिका रहती है। परिजनों में से प्रत्येक का अपने साथ आदान प्रदान का ऐसा ही सम्बन्ध बनाने की आवश्यकता अनुभव की गई है और उसमें मध्यवर्ती इकाइयाँ टोली नायकों की बनाई गई हैं।

अब पुनर्गठन का रूप यह है कि पुराने शाखा संगठन कार्यवाहक यथावत् बने रहेंगे। उनकी स्थिति में कोई उलट फेर न होगा। हाँ कार्य के विस्तार को देखते हुए उन्हीं के अंतर्गत छोटे घटक दस दस के मंडल अवश्य गठित कर दिये जायेंगे । हर सशक्त संगठन छोटी छोटी प्रामाणिक इकाइयों के आधार पर ही बनाया जाता है। सेना होती तो बहुत बड़ी है, पर उसका गठन छोटी छोटी इकाइयाँ में होता है। दस दस की टुकड़ियों में वह बंटती है। वे टुकड़े मिलते हुए बड़ी सेना के रूप में विकसित होते हैं। स्काउटों की टोलियाँ भी इसी प्रकार होती हैं। दस दस के जत्थे बनते हैं उन्हीं में से एक को नेता बनाते हैं। विद्यालयों में पढ़ते तो हजारों छात्र हैं, पर वे क्लासों और सेक्शनों में बंटे रहते हैं। खेलों में भी इसी प्रकार की छोटी छोटी टोलियाँ मिलकर बड़ी टीम बनती है। बड़ी भीड़ को सुव्यवस्थित रखने का यह तरीका कारगर भी है और सुविधाजनक भी।

अपने गठन के मूल में पारिवारिक भावना के विकास करने का उद्देश्य सन्निहित रहा है। व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी परिवार है। उसी खदान से नर रत्न निकल सकते हैं और उन श्रेष्ठ व्यक्तियों से मिल जुलकर बना समुदाय देव समाज कहला सकता है। परिवार इन दोनों छोरों को परस्पर मिलाने वाली कड़ी है। अपने परिवार का गठन पहले गायत्री परिवार के नाम से हुआ था, पीछे उसे युग निर्माण परिवार नाम दिया गया। दोनों में ही गठन को परिवार पद्धति पर विकसित करने की भावना रही है। संयुक्त परिवारों को ‘लार्जर फैमिली’ स्वरूप में विकसित करने का हम समर्थन करते रहे हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् की- विश्व परिवार की भावना के स्वप्नों को साकार करने का ताना बाना हमारा विचार तन्त्र निरन्तर बुनता रहता है। इसी पारिवारिकता को पुनर्गठन की टोली पद्धति में देखा जा सकता है। सुविधा को दृष्टि से बड़े कुटुम्बों को छोटी छोटी इकाइयों में बाँट कर व्यवस्था सम्बन्धी सुविधा उत्पन्न की जाती है। बड़े खेत की छोटी क्यारियों की तरह परिजनों की टोलियाँ बनाई जा रही हैं। ताकि इस छोटे समुदाय के व्यक्तित्वों के विकास में-अन्तःचेतना के परिष्कार में-अधिक सक्रियता, अधिक तत्परता का समावेश हो सके। बड़े समुदाय में पारस्परिक घनिष्ठता की, विचार विनिमय की-उतनी सुविधा नहीं रहती जितनी छोटी छोटी इकाइयों में। ऐसे ही अनेक लाभों को ध्यान में रखते हुए विभाजन का यह पुनर्निर्धारण किया गया है। टोली पद्धति की प्रतिक्रिया के अनेक सुखद सत्परिणाम हमारे मस्तिष्क पर इन दिनों छाये हुए हैं। अनेक महत्वपूर्ण प्रयोगों की तरह अपने जीवन का यह अन्तिम प्रयोग है कि टोली निर्धारण की कौटुम्बिक परिपाटी-व्यक्तियों के नव निर्माण में- युग परिवर्तन में किस हद तक सफल हुई। विश्वास यह रहता है कि गठन के समस्त प्रकारों की तुलना में यह प्रयोग अत्यधिक कारगर होना चाहिए।

एक एक नगर में सैकड़ों सैकड़ों की संख्या में पत्रिकाओं के सदस्य हैं। इन्हें दस दस की टोली में किस आधार पर वर्गीकृत किया जाय इसके मूल में सदस्यों की सुविधा और समानता को प्रमुखता देनी चाहिए। एक मुहल्ले में रहने वाले- एक कारखाने, दफ्तर में काम करने वाले जितनी आसानी से आये दिन मिलते जुलते रह सकते हैं उतनी सुविधा दूर दूर रहने वालों के बीच नहीं रहती। यह स्थान सम्बन्धी सुविधा हुई। व्यवसाय, शिक्षा, स्वभाव आदि की समानता भी स्तर को समतल बनाये रहती है। अध्यापकों की अध्यापकों से और वकीलों की वकीलों से अधिक अच्छी तरह पटरी खा सकती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि यह निर्धारण व्यवसायों के आधार पर होगा। यह तो मोटा संकेत है। मूल तथ्य बौद्धिक और सामाजिक एकता की यथा सम्भव पटरी बिठाना है। यों दलील यह भी है कि बड़े और छोटे स्तर मिलेंगे तो बड़ों को नम्र बनने और छोटों की ऊँचा उभरने का अवसर मिलेगा। इन सब तथ्यों को अनेक दृष्टियों से ध्यान में रखते हुए जहाँ जैसी परिस्थिति हो वहाँ उस प्रकार सूझ-बूझ का परिचय देने के लिए कहा गया है। पत्थर पर लकीर नहीं खींची गई है। संकेत इतना भर ड़ड़ड़ड़ स्तर में बहुत अधिक असमानता रहने पर मिलने घुलने में जो असमंजस बना रहता है, वह अपने टोली के कार्य संचालन में बाधक नहीं होना चाहिए। इतना ध्यान रखने पर आगे का रास्ता साफ हो जाता है।

टोली नायक कौन हो? इसका निर्धारण, योग्यता, शिक्षा, पदवी, सम्पन्नता, बड़प्पन आदि के आधार पर नहीं, वरन् इस दृष्टि से होना चाहिए कि समय देने में- मिलन सारी में-व्यवहार कुशलता में-चरित्र प्रभाव में- कौन व्यक्ति आगे रहता है। ऐसा व्यक्ति शिक्षा, आजीविका आदि की दृष्टि से अन्यों की अपेक्षा हलका पड़ने पर भी संचालन का कार्य अधिक अच्छी तरह कर सकता है। जिनके पास समय का अभाव है- उत्साह भी उतना नहीं है- उन्हें मान देने की दृष्टि से यदि टोली नायक बना दिया गया तो समझना चाहिए कि इस शिष्टाचारी अदूरदर्शिता के कारण टोली की प्रगति अवरुद्ध होकर ही रह जायगी। दस सदस्यों की टोली होना भी एक मोटा नियम है। स्थानीय आवश्यकता को देखते हुए इसमें कमीवेशी भी की जा सकती है। आठ या बारह के घटक कहीं बनाने पड़ें तो वैसा न करने जैसा भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। फिर सदस्यों की संख्या घटने बढ़ने पर उस गठन में हेरा फेरी भी होती रह सकती है। पटरी न बैठने पर टोली सदस्यों का परिवर्तन एक से दूसरी में भी हो सकता है। ऐसी हेरा फेरी स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। कोई गठन न तो अन्तिम है और न सदा सर्वदा के लिए। स्थिति के अनुरूप उनमें होने जैसे कारणों से टोली नायकों में भी परिवर्तन होते रहेंगे।

आशा की गई है कि इसी वर्षा ऋतु में अपने दो लाख परिजनों का टोली विभाजन पूर्ण हो जाएगा । इस कार्य में विशेष उत्साही कर्मठ कार्यकर्ताओं को आगे आकर यह आवश्यकता पूर्ण करा देनी चाहिए। वे अकेले ही अथवा अन्य प्रभावशाली साथियों की टोली बनाकर सभी स्थानीय सदस्यों से संपर्क बनायें। अगस्त की पत्रिकाओं में जो फार्म लगे हैं वे जिनने अभी तक भर कर मथुरा नहीं भेजे हैं उनसे अपने सामने ही वह कार्य सम्पन्न करा लें और फार्म को स्वयं भिजवा दें। इसी प्रकार प्रस्तुत शाखा संचालन कर्ता-कार्यवाहक ही-इस कार्य को अधिक अच्छी तरह पूरा करा सकेंगे कि किन-किन सदस्यों की टोलियाँ बनें और उनका टोली नायक किसे नियुक्त किया जाय। इस प्रक्रिया को पूरी कराने का उत्तरदायित्व वर्तमान कार्यवाहकों और कर्मठ कार्य-कर्ताओं को मिलजुल कर पूरा कराना चाहिए। जब तक टोलियाँ अपना-अपना काम सुचारु रूप से न करने लगें तब तक उन्हें परामर्श, प्रोत्साहन और सहयोग देने में वर्तमान शाखा के मूर्धन्य व्यक्तियों को ‘दूने चौगुने उत्साह से काम करना होगा। इन दिनों मूर्धन्य सदस्यों और अनुभवी कार्यकर्ताओं में तनिक भी शिथिलता दृष्टिगोचर सहमति से हो और उसका नियुक्ति पत्र मथुरा से मँगा लिया जाय।

वर्तमान दो लाख सदस्यों के दस दस में विभक्त होने पर बीस हजार टोलियाँ बनाती हैं और इतने ही टोली नायक बनते हैं। इन छोटे छोटे परिवारों में नेतृत्व की क्षमता उभरेगी। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से एक टोली दूसरे से अधिक सक्रिय होने और अपनी प्रखरता सिद्ध करने का प्रयत्न करे तो इससे उत्साह बढ़ेगा ही। सदस्यों की विचार निष्ठा को देखते हुए उनमें आत्मोत्कर्ष की दिशा में अधिक सक्रियता उत्पन्न करने की दृष्टि से ही यह पुनर्गठन किया गया है। गठन पूरा होते ही सक्रियता हिलोरें लेने लगे-हर सदस्य में नया उत्साह ही, हर टोली नायक अपनी कुशलता सिद्ध करने में आतुर दिखाई दे तो ही हमारा मनोरथ पूरा होगा।

द्वितीय चरण-एक से पाँच

पुनर्गठन का प्रथम चरण सदस्यों के पंजीकरण और टोली निर्धारण का कार्य पूरा होने के साथ साथ सम्पन्न हो जाता है। दूसरा चरण यह है कि सदस्यों की पत्रिकाओं के पाँच पाँच नियमित पाठक बनें। कोई भी पत्रिका ऐसी न रहे जो कम से कम पाँच अन्यों के द्वारा पढ़ो न जाती हो। बिना पढ़े उन्हें इधर उधर पटक देना अथवा अपने तक ही उस पठन को सीमित रखना, इस सृजन के प्रति उपेक्षा एवं अनास्था बरतने के समतुल्य है। नवयुग के आलोक का विस्तार करना प्रत्येक परिजन का परम पवित्र कर्तव्य है। इसमें आलस्य नहीं होना चाहिए, अवसाद नहीं बरता जाना चाहिए। हर व्यक्ति का इतना प्रभाव तो होता ही है कि घर या बाहर के अपने संपर्क क्षेत्र में पाँच व्यक्तियों का इस अमृतोपम साहित्य का महत्व समझाने और उसे पढ़ने के लिए सहमत करने में सफलता प्राप्त कर सके। यह राई रत्ती प्रयत्न से ही सम्भव हो सकता है। न चलाने वाला गरुड़ भी बैठा रहता है और चलने वाली चींटी भी पहाड़ पर जा चढ़ती है। यदि संपर्क क्षेत्र में पाँच पाठक उत्पन्न करने का संकल्प हो तो उसकी पूर्ति में रत्ती भर भी सन्देह की गुञ्जाइश नहीं है। यह किया जाना चाहिए। टोली नायकों को सदस्यों के साथ लगकर कार्यवाहकों को सहयोग देकर ‘एक से पाँच’ का द्वितीय चरण पूरा कराना चाहिए। दस सदस्यों को, टोली के पाँच पाँच पाठकों को मिला कर पचास अनुसदस्य बनते हैं। दस सदस्य पचास अनुसदस्य इस प्रकार यह मंडली वस्तुतः साठ की होनी चाहिए। दस पचास को पटाये और पचास पकने पर ढाई सौ तक उस प्रकाश को आगे बढ़ायें। इस प्रकार चार पाँच प्रचार पीढ़ियों में ही समस्त विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र की लपेट में लेने का उद्देश्य आज असम्भव दिखने पर भी कल पूर्णतया सम्भव हो सकता है।

तृतीय चरण- आत्मोत्कर्ष के प्रयास

टोली का हर सदस्य यह प्रयत्न करेगा कि वह अपने निजी जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चारों चरणों को किसी न किसी प्रकार न्यूनाधिक मात्रा में समाविष्ट किये ही रहे। थोड़ा शुभारम्भ ही भविष्य में सुविस्तृत हो सकता है। बीजारोपण इन चारों का ही किया जाय। कौन, कितना, किस, प्रकार, क्या कर सकता है? यह व्यक्तिगत सुविधा, और श्रद्धा का प्रश्न है। आज तो बात शुभारम्भ की और जो चल रहा है; उसमें अभिवर्धन की है। गाड़ी चल पड़े तो देर सवेर में लक्ष्य तक पहुँचेगी ही। आज गति का लेख जोखा नहीं लिया जायेगा । जोर शुभारम्भ पर दिया जायेगा । हर व्यक्ति को उसकी स्थिति के अनुरूप इन चारों ही चरणों को उठाने के लिए कुछ न कुछ करने का निश्चय करना चाहिए, भले ही वह न्यूनतम ही क्यों न हो। टोली सदस्य इसके लिए स्वयं आगे बढ़े और साथियों को आगे बढ़ायें टोली नायक इस प्रगति के लिए प्रोत्साहन देने तक सीमित न रहें वरन् स्नेह भरे अनुरोध से सदस्यों की सक्रियता उभारने में लगे ही रहें। थोड़ी सफलता मिलने पर भी निराश न हों। अपने में सक्रियता होंगी तो उस से अन्य साथी भी बच नहीं सकेंगे। अटूट धैर्य और सुनिश्चित विश्वास के साथ प्रयत्न रत रहने वाले अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व पूरा कर सकने में सफल होकर ही रहते हैं। है में भी ऐसी ही परिस्थितियों और कठिनाइयों में से गुजरते गुजरते इस स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिला है, जिस पर आज हैं। यही अनुकरण समस्त टोली नायकों और सदस्यों और अनु सदस्यों को करने की मनोभूमि बनानी चाहिए।

आत्मोत्कर्ष के चारों आधारों की उपयोगिता और प्रगति की विधि व्यवस्था समझाने के लिए- मिशन की कार्य पद्धति, रूपरेखा और भावी योजना समझाने के लिए इन्हीं दिनों हमने दस पुस्तिकाएँ लिखी हैं। उन्हें सभी परिजनों को पढ़ना चाहिए और अनुसदस्यों को पढ़ाना चाहिए। इससे अपने वैयक्तिक और सामूहिक कार्यक्रमों का उद्देश्य एवं क्रिया कलाप समझने में सुविधा रहेगी। इन दिनों का झोला पुस्तकालय यही समझा जाना चाहिए। इन दस पुस्तकों को अगले तीन महीनों में सभी सदस्य और अनुसदस्य पढ़ ले यह योजना पुनर्गठन के तृतीय चरण के रूप में अपनायी जानी चाहिए।

युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य अनुसदस्य, सहयोगी प्रेमी को मिशन का उद्देश्य, स्वरूप और क्रिया कलाप विदित रहना चाहिए। इसके बिना उनके लिए उन प्रेरणाओं को ग्रहण कर सकना और समुचित सहयोग दे सकना सम्भव न होगा। इस संदर्भ में लिखा और बताया तो समय समय पर बहुत कुछ गया है, पर वह सब क्रमबद्ध नहीं है। इस कमी की पूर्ति इन्हीं दिनों की जा रही है। हम इन दिनों परिवार के लक्ष्य के साथ परिजनों के दृष्टिकोण तथा क्रिया कलाप का ताल मेल बिठाने वाले मार्ग दर्शन को लिपिबद्ध करने में लगे हुए हैं। इस प्रयोजन के लिए दस पुस्तकों को प्रथम सैट 1 अक्टूबर को प्रकाशित हो जाएगा । इसमें दस पुस्तकें होंगी-

(1) अपने देव परिवार का पुनर्गठन (2) गुण निर्माण का सत्संकल्प (3) उपासना की महत्ता और विधि व्यवस्था (4) जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियाँ (5) आत्मोत्कर्ष का सम्बल स्वाध्याय (6) शक्ति संचय का स्त्रोत संयम (7) सेवा साधना और उसके सिद्धान्त (8) सेवा, धर्म और उसका स्वरूप (9) धर्म तन्त्र की शक्ति और सामर्थ्य (10) युग परिवर्तन की पृष्ठ भूमि और रूपरेखा ।

दसों चौसठ, चौसठ पृष्ठ की और एक एक रुपया मूल्य की हैं। छपाई, सफाई, कवर एवं सस्तेपन की दृष्टि से प्रस्तुत साधनों के अनुरूप उन्हें आदर्श बनाने का प्रयत्न किया गया है। यह सभी गायत्री तपोभूमि, मथुरा से उपलब्ध हो सकेंगी। टोली नायक इन्हें अपने दसों सदस्यों और पचास अनुसदस्यों को पढ़ाने की क्रमबद्ध योजना बनायें। कितने सैट खरीदने की आवश्यकता एवं सुविधा है इसे ध्यान में रखते हुए उस साहित्य को मँगा लिया जाय और उसे अपने-अपने यूनिट को सभी सदस्यों को पढ़ा दिया जाय। इस प्रकार उन्हें प्रशिक्षितों की श्रेणी में गिने जा सकने की स्थिति बन जायगी। यह साहित्य प्रकाशन क्रम आगे भी जारी रखने का प्रयत्न है। अगले दिनों ऐसी ही दस पुस्तकें व्यक्ति निर्माण पर, दस परिवार निर्माण पर और दस समाज निर्माण पर लिखने का मन है। बन पड़ा तो यह कार्य सन् 77 में ही पूरा करने का प्रयत्न करेंगे।

ब्रह्म वर्चस् में यों उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के पंचकोश अनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण की साधना पद्धति की ही प्रधानता रहेगी, पर साथ-साथ बीस हजार टोली नायकों को भी नवयुग के अग्रदूत बनने के लिए आवश्यक चेतना और क्षमता देने के लिए दस दस दिवसीय शिक्षण सूत्रों को भी क्रम चलता रहेगा। पुनर्गठन के समुद्र मन्थन से जो रत्न उभर कर आवेंगे उन्हें साधना सत्रों में बनाकर युग निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो सकने योग्य बनाना भी तो एक काम है। आगामी सत्र योजना में इस तथ्य को पूरी तरह ध्यान में रखा जाना है।

चतुर्थ चरण- जन्म दिन मनाना

पुनर्गठन का चौथा चरण है सदस्यों के जन्म दिन मनाया जाना। यह छोटे घरेलू धर्मोत्सव हर परिवार में मिशन के प्रवेश करने और जड़े जमाने का वातावरण बना सकेंगे। जिसका जन्म दिन मनाया जा रहा है वह उस दिन अपने को हीरो अनुभव करने का सुयोग प्राप्त करेगा। उस दिन उसे जीवन सम्पदा को गरिमा समझने और शेष समय का श्रेष्ठतम योजनाबद्ध सदुपयोग करने के लिए उत्साहित किया जा सकता है। अभ्यस्त कुसंस्कारों में से कुछ को छोड़ने और सत्प्रवृत्तियों में से कुछ को बढ़ाने के लिए नया प्रयत्न करने के संकल्प कराये जा सकते हैं। ऐसे भाव भरे वातावरण में किये गये संकल्प अधिक स्थिर भी रहते हैं और क्रियान्वित बन सकते हैं। जन्मोत्सव अन्ततः सस्ते और अत्यधिक प्रभावशाली होने की दृष्टि से सर्वत्र लोक प्रिय हो चुके हैं। उनके माध्यम से उस परिवार में नवयुग के अनुरूप आस्थाओं की जड़े जमती है और पास पड़ोस के संपर्क परिचय के जो लोग एकत्रित होते हैं उन तक मिशन का आलोक पहुँचने का नया मार्ग खुलता है। टोली के सदस्य ऐसे उत्सवों पर एक दूसरे के यहाँ आते जाते रहते हैं तो उनमें सहज ही आत्मीयता और घनिष्ठता बढ़ती है। इस भावनात्मक सघनता की प्रतिक्रिया आदर्शवादी प्रयासों में एक दूसरे को अधिक सहयोग करने के रूप में देखी जा सकती है। ऐसे ऐसे अनेकों लाभ जन्मदिवसोत्सव मनाये जाने की प्रक्रिया के हैं। आरम्भ में तो यह क्रम दस टोली सदस्यों तक ही सीमित रखा जाय, पर जब व्यवस्था बन पड़े तो पचास अनु सदस्यों में से जिन्हें उपयुक्त समझा जाय उनके जन्मोत्सव मनाने के लिए कदम बढ़ाये जा सकते हैं। होली सामूहिक रूप में भी जलाई जाती है और उसकी आग को लाकर घर के आँगन में भी छोटी होती जलाने का रिवाज है। शाखा के वार्षिकोत्सव गुरुपूर्णिमा पर्व बसन्तोत्सव जैसे आयोजन बड़े रूप में मनाये जाये, पर घर-घर में धर्मोत्सवों का प्रचलन जितनी अच्छी तरह जन्मोत्सवों के माध्यम से हो सकता है, उतना और किसी उपाय से सम्भव नहीं है। घर-घर में-जन-जन तक-नवयुग का-जन जागरण का सन्देश पहुँचाने की प्रतिज्ञा का निर्वाह हम जन्मोत्सवों की प्रेरणा प्रदा प्रक्रिया को एक स्वस्थ परम्परा के रूप में प्रचलित करने के सहारे ही पूरी कर सकते हैं। राष्ट्र की नस नाड़ियों में नव जीवन का संचार करने के लिए उसके हर घटक में प्राण भर देने के लिए इस योजना के सहारे हम आशा से भी अधिक सफल हो सकते हैं। अस्तु इसे विनोद मनोरंजन के रूप में नहीं लेना चाहिए, वरन् गम्भीरतापूर्वक दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए एकबार पूरी शक्ति से धक्का लगाने जैसा प्रयत्न करना चाहिए ताकि उसे स्वस्थ सामाजिक परम्परा का रूप मिल जाय। पीछे तो अन्य प्रथाओं की तरह वह भी स्वसंचालित हो जायगी और अपनी धुरी पर ग्रह उपग्रहों की तरह स्वयं ही परिभ्रमण करने लगेगी।

इन्हें पूरा करने कराने का आग्रह

पुनर्गठन का यह चार सूत्री कार्यक्रम बिना आवश्यक विलम्ब किये हमें इन्हीं दिनों पूरा कर लेना चाहिए। परिवार को सुगठित और सुविकसित बनाने के लिए इन छोटे आधारों को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानकर चलना चाहिए। नवयुग के अवतरण का स्वप्न साकार करने के लिए जिस प्रचंड प्राण शक्ति की आवश्यकता है वह इस दिशा में संकल्पपूर्वक बढ़ते चलने पर निश्चित रूप से प्राप्त किया जा सकेगा। इन दिनों युग निर्माण परिवार के प्रत्येक निष्ठावान् परिजन को पुनर्गठन की इस चार सूत्री योजना को पूरा करने के लिए भागीरथी प्रयत्न करने चाहिए और प्राण प्रण से जुटना चाहिए। दस सदस्यों और पचास अनुसदस्यों के साठ साठ कल्पवृक्षों के उद्यान आरोपित और विकसित करने को ठीक यह शुभ मुहूर्त है। इस आरोपण को यदि कुशल माली ठीक तरह सींचते रहे तो अपनी इसी धरती पर नन्दन वन जैसा सुशोभित और मलयज सुगन्ध से भरा पूरा वातावरण बनाने में सफलता मिल कर ही रहेगी। उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावनाओं को साकार करने के लिए हमें आज की घड़ी में प्रबल पुरुषार्थ करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। पुनर्गठन की पीछे जो सुखद संभावनाएं छिपी पड़ी हैं उन्हें जीवन्त करने के लिए ही कर्मठ परिजनों से अधिक प्रयत्न रत होने का इतना आग्रह करना पड़ रहा है।


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