त्रिविध तनाव और उनसे छुटकारा

September 1977

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हमारे तनाव तीन तरह के होते हैं -शारीरिक (मस्क्यूलर) मानसिक (मेन्टल) और भावनात्मक (इमोशनल) इन्हें ही आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक ताप कहते हैं।

दीर्घ काल तक लगातार एक ही प्रकार का और अत्यधिक श्रम करने से ‘प्रस्क्यूलर टेन्शन’ होता है। इसके मुख्य कारण दो हैं-अनिच्छापूर्वक काम करना (2)मैं परिश्रम कर रहा हूँ। (या कर रही हूँ), यह भावना होना। यदि मनुष्य ‘श्रम किया, की यह भावना, इस रूप में कि मैंने बहुत श्रम किया , भूल जाए, तो वह तीन घण्टे का विश्राम तथा एक या दो बार भोजन कर लगातार 20 घण्टे से अधिक काम कर सकता है ।

”मस्क्यूलर टेन्शन” -अधिक सोने , दिन चढ़े तक सोते रहने, अधिक खाने और व्यायाम नहीं करने से भी होता है। तामसिक भोजन भी तनाव ले आता है।

‘मस्क्यूलर टेन्शन’ -दूर करने का सरल तरीका योगासन है। मनुष्य काम करते-करते जब थक जाता है, तो अंगड़ाई लेता है। लिखते-लिखते हाथ दुखने लगे, तो हाथ को झटकारता है, विपरीत स्थिति लेता है। एक काम को छोड़कर दूसरा काम करता है - मन बहलाने का प्रयास करता है, पर मनोविनोद के प्रचलित साधनों से वस्तुतः न तो ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ दूर होते न ‘मेन्टल’ और न ‘इमोशनल,।

मेन्टल टेन्शन ‘ बहुत अधिक सोचने से होता है। सोचना सिर्फ वही चाहिए , जिस विषय में सोचना जरूरी हो। परन्तु प्रायः सभी मनुष्य काम की बातें बहुत ही कम तथा बेकार ऊल-जलूल या कि जिनसे वर्तमान का कोई सम्बन्ध ही नहीं ऐसी बातें बहुत अधिक सोचते रहते हैं। पिछली बातों और घटनाओं पर हम बहुत अधिक सोचते हैं। किसी से लड़ाई हो गई , किसी ने गाली दे दी, कोई दुर्घटना हो गई कि बस,सोचना चालू। यह सोचना सर्वतः व्यर्थ होता है। सोचने से मानसिक तनाव पैदा होता है। अत्यधिक मानसिक तनाव बढ़ जाने पर “मेन्टल रिटार्डेशन” (मस्तिष्कीय शक्ति का सुन्न-सा हो जाना होता है।) इन दिनों दुनिया में “मेन्टल रिटार्डेशन” के लाखों मामले प्रकाश में आ रहे हैं। शारीरिक तनाव रात्रि-विश्राम से दूर भी हो जाते हैं, पर मानसिक तनाव तो नींद में भी बने रहते हैं, टैंरक्विलाइजर लेने से वे समाप्त नहीं होते। इनके लगातार बने रहने पर ‘डिप्रेशन’ आता है। ‘डिप्रेशन’ को दूर करने के लिए लोग सुरा-सुन्दरी की शरण में जाते हैं।

मानसिक तनाव बढ़ जाने पर शिराएं फटने-सी लगती हैं। आँखें कमजोर हो जाती हैं। कब्ज रहती है । डकारें आती हैं। धूम्रपान का इच्छा होती है चाय की याद आती है। शारीरिक व मानसिक तनाव मिलकर काम व क्रोध के आवेग बार-बार पैदा करते हैं।

तीसरा है भावनाओं का तनाव। मनुष्य निरन्तर भावनाओं के थपेड़े खाते रहते हैं। भावनाएँ बहुधा यथार्थ पर आधारित रखते हैं, उन्हीं से चिपटे रहते हैं। भावनाओं पर चोट लगती है तो तीखी प्रतिक्रिया होती है, जिनसे रोग पैदा होते हैं। ‘इमोशनल टेन्शन, हार्ट-अटैक-को जन्म देते हैं। किसी का प्रिय मित्र, पुत्र, पति, या पत्ती अथवा रिश्तेदार कल आने वाला है, तो रात भर उसे नींद नहीं आयेगी। एक घण्टे बाद परीक्षाफल घोषित होने वाला है, दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में सहसा घर की याद आ गई है, नींद गायब। यही है भावनात्मक तनाव।

ये भावनात्मक तनाव हमारे अनजाने व्यवहारों में प्रकट होते हैं। कुछ लोग कंधे उचकाते रहते हैं, कुछ गुनगुनाते रहते हैं, कुछ सीटी बजाते रहते हैं। कोई बारबार पलकें झपकाते हैं, तो कोई नाक से खूँ-खूँ की आवाज करते हैं। ये सब भावनात्मक तनाव के परिणाम हैं।

तनावों से नाड़ियों में रक्त, प्रवाह अधिक ही जाता है। इससे हाइपर टेन्शन’ पैदा होता है। समय पर तनावों पर नियन्त्रण नहीं किया गया था अधिक तनाव के कारण दूर नहीं किए गए, तो ब्लडप्रेशर एवं पैरालिसिस हो जाते हैं।

बीमारी कभी ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ से होती है, कभी ‘मेन्टल’ और कभी ‘इमोशनल’ से। कभी तीनों के मिश्रित कारणों से।

थकान से भी क्रोध आता है, चिन्ता से भी। दिमागी उलझन में फँसे व्यक्ति को सिर दर्द, हृदय पीड़ा, अम्लता, कब्ज आदि तंग करते रहते हैं। जब व्यक्ति अपने को उपेक्षित समझता है और उसकी भावनाएँ अतृप्त अतृष्ट रही आती है, तो उसे टी0 वी0, दमा, आर्थराइटिस, कुष्ठरोग आदि पैदा हो जाते हैं।

तनाव किसी भी क्षेत्र में संव्याप्त क्यों न हो जीवनी शक्ति का अत्यधिक क्षरण करता है। शारीरिक और मानसिक श्रम से भी थकान आती, पर वह उथली रहती है और विश्राम करने एवं बलवर्धक आहार उपचार लेने से इसकी क्षति पूर्ति थोड़े ही समय में हो जाती है। किन्तु भावनात्मक तनाव ऐसे होते हैं जिनकी आधार, भिति किसी गहरे आघात से सम्बन्धित होती है। ये घाव नासूर बन जाते हैं और समय-समय पर उभरते फूटते रहते हैं। ईर्ष्या, विद्वेष, प्रतिशोध जैसे मनस्ताप किसी भी कारण उत्पन्न हुए हों, अचेतन में जम कर बैठ जाते हैं और पुरानी घटनाओं को याद करके अंतःक्षेत्र को उद्वेलित करते रहते हैं। किन्हीं असाधारण महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यवधान उत्पन्न हो जाने पर भी ऐसा ही होता है। कल्पित सुनहरी स्वप्नों को आघात लगने तक से मनुष्य टूट जाता है फिर प्रत्यक्ष हानि का तो कहना ही क्या? प्रियजनों का बिछोह, अपमान, घाटा, अपयश आदि के घाव भी गहरे होते हैं और समय के साथ-साथ वे झीले पुराने भी होते जाते हैं-पर पूर्णतया समाप्त तब तक नहीं होते जब तक कि उन्हें प्रतिरोध के तीव्र विचारों से प्रयत्नपूर्वक काटा न जाय।

शारीरिक स्वास्थ्य को नष्ट करने वाले कारणों में आहार विहार की अनियमितता ही नहीं होती। मानसिक स्वास्थ्य नष्ट करने में प्रतिकूल परिस्थितियाँ निमित्त नहीं होती, वरन् उनका वास्तविक कारण अंतर्मन की संवेदनात्मक परतों के साथ जुड़ा होता है। बड़े बड़े संकट सामने होने पर भी कितने ही मनस्वी लोग उसे सामयिक चुनौती भर मानते हैं और उसका मुकाबला खेल के मैदान में गेंद से जूझने वाले खिलाड़ियों की तरह करते हैं। इसके विपरीत कुछ लोग विपत्ति की कल्पना भर से घबरा जाते हैं और इतने असन्तुलित होते हैं मानो आपत्तियों का पर्वत ही उनके ऊपर टूट पड़ा हो।

तनावजन्य दुष्परिणामों को जितना विघातक माना जाय कम है। उसके कारण उस जीवनी शक्ति का भण्डार बेतरह समाप्त होता है, जिसके ऊपर शारीरिक स्वास्थ्य-मानसिक सन्तुलन और आन्तरिक आनन्द निर्भर रहता है। तेल चुक जाने पर, दीपक को मात्र, रुई बत्ती आदि के सहारे ज्वलन्त नहीं रखा जा सकता। जीवनी शक्ति को तेल भण्डार कहा जा सकता है। तनाव का सीधा आक्रमण उसी जीवन कोश पर होता है और वह क्षति इतनी तेजी से होती है कि सही ढंग से कुछ सोचने और व्यवस्था पूर्वक कुछ करने की दोनों ही संभावनाएं अस्त व्यस्त होती चली जाती हैं। ऐसी विपन्नता में फँसा हुआ व्यक्ति खोखला बन कर रह जाता है। शरीर की बनावट में भले ही अन्तर न आये पर स्थिति अर्धविक्षिप्त जैसी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति न केवल स्वयं संतप्त रहते हैं वरन् संपर्क वालों को भी अपनी बेतुकेपन से उद्विग्न किये रहते हैं।

असावधान और दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति पर छोटे छोटे कारण भयंकर तनाव उत्पन्न कर सकते हैं। अस्तु कोई प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न न होने पाये यह चाहने की अपेक्षा सोचना यह चाहिए कि हर परिस्थिति में सन्तुलन बनाये रखने की दूर-दर्शिता अपनाई जायगी और प्रतिकूलताओं के साथ खिलाड़ी की भावना से आँख मिचौनी खेली जायगी। ऐसा साहस सँजोकर रखा जाय तो फिर कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं रह जाती जो प्रयत्नपूर्वक हल अथवा धैर्यपूर्वक सहन न की जा सकती हों। तीन, चौथाई कठिनाइयाँ तो आशंका मात्र होती हैं। भविष्य में अमुक कारण से अथवा अमुक व्यक्ति द्वारा अमुक कठिनाई उत्पन्न की जा सकती है, कोई दैवी विपत्ति आ सकती है या दुर्घटना घटित हो सकती है। ऐसा सोच सोचकर ही कितने व्यक्ति अधमरे होते रहते हैं जबकि वस्तुतः वह काल्पनिक कठिनाई कभी भी सामने नहीं आती।

मनुष्य को जागरूक रहना चाहिए और सुखद सम्भावनाओं की आशा लगाने की तरह दुःखद दुर्घटनाओं एवं प्रतिकूलताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। सजग रहने भर से ढेरों कठिनाइयों से बचा जा सकता है। सजगता का होना उत्तम है; पर उसी अकेली के बल पर मनोबल बनाये नहीं रखा जा सकता। शौर्य, साहस की निर्भयता और पराक्रम की भावनाएँ प्रखर रखी जानी चाहिए। हँसने हँसाने की आदत डाली जाय और हलका फुलका दृष्टिकोण अपनाकर जिन्दगी का खेल, नाटक के पात्रों अथवा खिलाड़ियों की तरह खेला जाना चाहिए। अच्छी से अच्छी आशाएँ रखें, पर साथ ही बुरी से बुरी सम्भावनाओं का सामना करने के लिए शूर वीर सैनिकों की तरह अपना मनोबल संजोये रखें।

श्रम सन्तुलन और आहार विहार की सुव्यवस्था बनाये रह कर शारीरिक तनाव से बचा जा सकता है। मानसिक श्रम को अदलते बदलते रहा जाय और प्रस्तुत काम में दिलचस्पी रखने तथा उसे सुव्यवस्थित बनाने पर कला कौशल प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति रखने से मानसिक तनावों से बचा जा सकता है। हँसने, मुस्कराने और बालकों जैसा निश्छल मन रखने से अनिद्रा जैसे तनावों से बचा जा सकता है। सबसे कठिन और जटिल है भावनात्मक विकृतियाँ और भीरुताजन्य तनाव। इसे आत्म बल सम्पादित करके ही दूर किया जा सकता है। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया कलाप अपनाने की जीवन साधना द्वारा ही आत्म बल बढ़ता है और यही वह दिव्य वरदान है जिसके सहारे मनुष्य तनाव मुक्त जीवन जी सकता है और जिन्दगी का सच्चा आनन्द ले सकता है।


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