आयुर्वेद विज्ञान में अनेक प्राणघातक विषों को शुद्ध करके उनके द्वारा कठिन रोगों को अच्छा कर सकने वाली रसायनों के निर्माण का विधान है। सामान्य धातुओं का भी जारण मारा करके उनसे आरोग्यवर्धक भस्में बनती हैं। होम्योपैथी में “विषस्य विषमौषधम्” सिद्धान्त के अनुसार प्रायः सभी औषधियाँ विष पदार्थों से ही बनाई जाती हैं। संशोधित विष मारण का नहीं जीवन प्रदान करने का काम करते हैं। वाणी के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। असंस्कृत वाणी विष है, पर यदि उसे सुसंस्कृत बना लिया जाय तो वही अमृत का काम करती है। कटु, कर्कश, निन्दा, भर्त्सना, व्यंग, उपहास, अपमान तिरस्कार आदि का सम्मिश्रण होने से वाणी इतनी विघातक सिद्ध होती है जिसकी हानि का कोई पारापार नहीं रहता। कहते हैं कि “तलवार का घाव भर जाता है पर जीभ का घाव नहीं भरता।” द्रौपदी की जीभ से निकले थोड़े से कटु शब्दों के फलस्वरूप असंख्यों का सर्वनाश उत्पन्न करने वाला महाभारत खड़ा हो गया था। मधुर भाषा सज्जनता, शालीनता और सद्भावना से युक्त होने के कारण सुनने वालों पर चमत्कारी प्रभाव डालती है। शान्ति और दिशा प्रदान करती है। संसार के महान परिवर्तनों में मनस्वी लोगों की वाणी ने अपनी प्रमुख भूमिका सम्पन्न की है। साधु और ब्राह्मणों ने सत्य और ज्ञान के उद्घोषकर्ताओं ने अपने दिव्य वचनों से असंख्य प्राणियों का कल्याण किया है।
मन्त्र विद्या में शब्द शक्ति की महान् गरिमा प्रकट होती है। पर यह विशेषता मात्र उच्चारण भर की नहीं होती वरन् उसके पीछे अन्तःकरण की ऐसी विशेषताएँ जुड़ी रहती है, जिनके कारण उसमें असाधारण एवं चमत्कारी क्षमता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। मौन, सत्य, सत्प्रयोजन, सन्तुलन, सद्भाव जुड़े रहने से वाणी की श्रेष्ठता सामान्य व्यवहार से उभरती हुई देखी जाती है। प्याज, मूली, शराब, हींग आदि खाने से मुख से उसी प्रकार की गंध आती है। इसी प्रकार अंतःक्षेत्र में जो कुछ भरा होता है वह वाणी के साथ लिपट कर बाहर आता और प्रभाव उत्पन्न करता है।
चिन्तन, चरित्र, इतिहास, उद्देश्य एवं संस्कार के समन्वय से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यह व्यक्तित्व मुख खोलते ही वाणी के माध्यम से सहज ही निसृत होते देखा जा सकता है। बात जो भी कही गई हो उसका प्रत्यक्ष अर्थ या उद्देश्य कुछ भी होता हो, प्रभाव उतने भर से ही नहीं पड़ता, उसके साथ व्यक्तित्व की एक अनोखी छाप भी जुड़ी होती है, वस्तुतः भला या बुरा प्रभाव उसी का पड़ता है। अनेक प्रसंगों में लम्बे चौड़े अनुरोध या प्रतिपादन तर्क और प्रमाण संगत होने पर भी प्रभावहीन एवं अविश्वस्त ठहरते हैं। उन्हें आशंका की दृष्टि से देखा जाता है और दुरित संधि की गंध सूँघी जाती है। इसके विपरीत किन्हीं के सीधे सादे थोड़े से शब्द ही प्रामाणिक माने जाते और प्रभाव डालते देखे जाते हैं। इस अन्तर में बोलने वाले के व्यक्तित्व की छाप ही सन्निहित रहती है। कहे हुए शब्दों का जो अर्थ है, सुनने वाले उसका प्रभाव वैसा ही अनुभव करें यह आवश्यक नहीं है।
मन्त्र केवल शब्द गुच्छक नहीं है। उसके साथ देवत्व की प्राण धारा जुड़ती है, तब उनका प्रभाव उभरता है। यदि उसके साथ साधक अपने देवत्व को विकसित करके संयुक्त कर सकने में सफल न हो सके तो समझना चाहिए कि उस शब्द समुच्चय का वह प्रभाव उत्पन्न न हो सकेगा जो शास्त्रकारों ने उसका महात्म्य एवं प्रतिफल बताया है। धनुष का चमत्कार उस पर चढ़ाकर चलाये गये बाण से ही उत्पन्न होता है। मनुष्य धनुष है और साधक का व्यक्तित्व बाण। दोनों का स्तर ऊँचा रहे तो ही लक्ष्य बेध की सफलता मिलेगी।
मंत्र साधक को अपना व्यक्तित्व इस स्तर का विनिर्मित करना होता है जिससे जिह्वा से उच्चारण किये गये मन्त्र अक्षरों में प्रयुक्त होने वाली वाणी मात्र ध्वनि न रहकर ‘वाक्’ शक्ति के रूप में प्रकट हो सकें। उसके प्रकट से सूक्ष्म जगत में ऐसी हलचलें उत्पन्न हो सकें जो मन्त्र उद्देश्य के अनुरूप परिस्थिति एवं वातावरण उत्पन्न कर सकने में समर्थ हो सके।
मन्त्र की चमत्कारी क्षमता जिस उच्चारण पर निर्भर रहती है, उसे ‘वाक्’ कहा जाता है। इसमें शब्द का जितना प्रभाव रहता है उससे असंख्य गुना प्रभाव साधक के व्यक्तित्व का रहता है। इसी आधार पर मन्त्रों की विशेषता उभरती है।
मन्त्र साधना में ‘वाक्’ शक्ति को विकसित करने के लिए मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता उत्पन्न करनी पड़ती है कि जिह्वा को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जाय। इतना कर लेने के उपरान्त जपा हुआ मन्त्र सहज ही सिद्ध होता है और उच्चारण किया हुआ शब्द असंदिग्ध रूप से सफल होता है। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे तो उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र भी जल जायेंगे । तब बहुत संख्या में बहुत समय तक जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट सत्परिणाम उपलब्ध न हो सकेगा। परिष्कृत जिह्वा में ही वह शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी भी भाषा का-किसी भी धर्म सम्प्रदाय का-कोई भी मन्त्र प्रचण्ड और प्रभावशाली हो उठता है। परिष्कृत जिह्वा द्वारा उच्चारित मन्त्र मनुष्यों के अन्तस्तल को- असीम अन्तरिक्ष को-प्रभावित किये बिना नहीं रहता। ऐसी परिष्कृत वाणी को-वाक् को-मन्त्र साधना का प्राण कह सकते हैं। उसे साधक की कामधेनु एवं तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी को परिमार्जित जिह्वा को ‘सरस्वती’ कहते हैं। मन्त्र का आत्मा वही है। सिद्धियों की उद्गम स्थली उसी को मानना चाहिए।
‘वाक्’ शक्ति की गरिमा की ओर संकेत करने वाले अनेकों ऋचा, प्रमाण तथा शास्त्र वचन उपलब्ध होते हैं।
तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा हेति मन्तो यामस्यन्ति शख्यं न सा मृषा। अनुहाय तपसा मन्युनाचोत् दूरादेव भिन्दत्येनम्-अथर्व 5।18।9
अर्थात्-जिसकी जीभ प्रत्यंचा है। उच्चारण किया हुआ मन्त्र जिसका बाण है। संयम जिसका वाणाग्र है। तप से जिसे तीक्ष्ण किया गया है। आत्मबल जिसका धनुष है, ऐसा साधक अपने मन्त्र बल से समस्त देव द्रोही तत्वों को बेध डालता है।
जिहृ ज्या भवति कुल्मलं वाक् नाडीका दनतास्तपसाभि दग्धाः। तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देव्पीयून् ह्नद् वधैर्धनुभिर्देवजूतेः -अथर्व 5।18।9
अर्थात्- आत्म बल रूपी धनुष, तप, रूपी, तीक्ष्ण बाण लेकर तप और मन्यु के सहारे जब यह तपस्वी ब्रह्मवेत्ता मन्त्र शक्ति का प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्वों को पूरी तरह बेधकर रख देते हैं।
अस्मानं चिंढ् ये विभिदुर्वचोभिः-ऋग्वेद 4।15।6
उस मंत्र शक्ति ने पत्थरों को भी चूरा बना कर रख दिया।
स योवाचं ब्रह्मेत्वपास्ते यावद्वाचो गतं तत्रास्य यथा कामाचारी भवति -छान्दोग्य 7।2।2
जो वाणी को ब्रह्म समझ कर उसकी उपासना करता है। उसकी गति इच्छित क्षेत्र तक हो जाती है।
वागेब बिश्वा भुबनानि जज्ञे वाच उर्त्सवममृतु यच्च मर्त्यम्-शतपथ
यह ‘वाक्’ ही सृष्टि का मूल तत्व है। यही मनुष्य लोक का अमृत है। इसके द्वारा उच्चारित शब्दों में अद्भुत शक्तियाँ भरी होती हैं।
परिष्कृत चरित्र और चिन्तन के आधार पर साधना की गई वाक् शक्ति की क्षमता असीम है। मंत्राराधन उसी के बलबूते सफल होता है।