परामर्श किसका मानें कितना मानें?

September 1977

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हमारे स्वजन सम्बन्धियों के द्वारा कई प्रकार के परामर्श आदि दिये जाते रहते हैं। इनमें से किन्हें स्वीकार करें-किन्हें अस्वीकार, इसका निर्णय प्रायः करते नहीं बनता और असमंजस जैसा धर्म संकट सामने आ खड़ा होता है। कई बार तो परामर्श दाताओं का अत्यधिक आग्रह और दबाव भी होता है और वे इतने घनिष्ठ भी होते हैं कि उनका मन रखने की बात भी ध्यान में रखनी पड़ती है। इन्हें अप्रसन्न, असन्तुष्ट, रुष्ट कैसे करें और संकोच उस समय होता है जब बात गले नहीं उतरती, किन्तु आग्रह को अस्वीकार करते भी नहीं बनता।

यही कठिनाई तब पड़ती है जब किसी आदर्शवादी प्रोत्साहन के लिए किसी सुदूर क्षेत्र से आवाज आती है। बात उचित है, पर कहने वाला दूरस्थ होने अथवा घनिष्ठता का नाता न रहने से प्रत्यक्ष प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं होता। उसका आग्रह पुस्तकों के पृष्ठों अथवा दूसरे तरीकों से अपने तक पहुँचता है जिसका कोई प्रत्यक्ष अथवा वैयक्तिक दबाव प्रभाव नहीं होता। ऐसी दशा में उसके परामर्श में औचित्य देखते हुए भी उसे अपनाने का साहस नहीं जुटता।

अनौचित्य को अस्वीकार करना और औचित्य को अपनाना हर दृष्टि से हर किसी के लिए लाभदायक है। तात्कालिक लाभ उसमें न हो-कुछ सामयिक हानि दिखती हो तो भी अन्ततः सत्परिणाम औचित्य के अपनाने में ही मिलते हैं। इतने पर भी व्यक्तिगत आग्रह को ध्यान में रखते हुए कई बार अनौचित्य स्वीकार करना और औचित्य को छोड़ने का धर्म संकट सामने आ खड़ा होता है। ऐसे समय में हमें क्या करना चाहिए? इसका कोई सुनिश्चित सिद्धान्त स्थिर कर लिया जाय तो कदम क्या उठना चाहिए? इसका निर्णय सुविधापूर्वक हो सकती है।

हमें औचित्य और आदर्श को ही अपना सबसे बड़ा शुभ चिन्तक, मित्र, सम्बन्धी एवं घनिष्ठ मानकर चलना चाहिए। व्यक्तियों में से हर किसी को उसी अंश में स्वजन मानना चाहिए जितने में कि वह औचित्य का पालन करता है अथवा उस दिशा में चलने का आग्रह करता है। हर मनुष्य के अन्दर देवत्व और असुरता के अंश मौजूद हैं। ज्वार भाटे की तरह दोनों ही तत्व मनुष्यों में समय समय पर उभरते पाये जाते हैं। एक ही व्यक्ति एक समय-एक सीमा तक- एक कार्य के लिए उचित सलाह या सहायता दे सकता है किन्तु यह भी सम्भव है कि वही व्यक्ति दूसरे समय, दूसरे प्रयोजन में विकृत सलाह देने लगे। यह भी हो सकता है कि जिसने एक समय मुसीबत से बचाने और ऊँचा उठाने में सहायता दी, वही दूसरे समय, दूसरे क्षेत्र में, मुसीबत में फँसाने अथवा नीचे गिराने में अपने प्रभाव का उपयोग करने लगे। यह उभय पक्षीय, परस्पर विरोधी संभावनाएं हर समय हो सकती हैं। प्रायः हर व्यक्ति दुहरे व्यक्तित्व से जकड़ा पाया जाता है। इसलिए जान बूझकर अथवा अनजाने उसके आग्रह औचित्य एवं अनौचित्य से भरे हुए हो सकते हैं। इसलिए महत्व परामर्श एवं आग्रह को नहीं उसके पीछे सन्निहित तथ्यों को देना चाहिए और यह देखना चाहिए कि जो कहा जा रहा है वह किस सीमा तक उचित है और किस सीमा तक अनुचित। हमारी स्वीकृति औचित्य वाले अंश को ही मिलनी चाहिए। व्यक्तिगत, घनिष्ठता एवं प्रभावशाली पद या सम्बन्ध रहते हुए भी अनौचित्य को विनयपूर्वक अस्वीकृत कर दिया जाना चाहिए।

अस्वीकृति में सामने वाले को रुष्ट होने का अवसर तब आता है जब परामर्श को मूर्खतापूर्ण, अनैतिक, अनुपयुक्त आदि कहकर उसके अहंकार को चोट पहुँचाई जाती है। इस सीधी टक्कर से बचा जा सके तो उस अस्वीकृति में भी कटुता का अप्रिय प्रसंग न बनेगा। यदि बनेगा भी तो वह बहुत हल्का होगा। जिसे अपना अन्तःकरण और विवेक अनुचित समझता है, उसे स्वीकार करने में क्या कठिनाई पड़ेगी? यह बात यह आग्रहकर्ता को नम्र किन्तु स्पष्ट शब्दों में बता देनी चाहिए। हानियाँ कई तरह की होती हैं, शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, आर्थिक, सामाजिक आदि। इनमें से अनुचित आग्रह स्वीकार करने पर किन-किन कठिनाइयों में फँसना पड़ सकता है, इसके लिए तर्क और आधार पहले तो अपने मन में तैयार किये जाय और पीछे सामने वाले को बता दिये जाय। अनैतिक परामर्शों के बारे में धर्म, ईमान, भगवान और अन्तरात्मा की असहमति की बात भी कही जा सकती है। इस संदर्भ में अपने को कमजोर, कायर, दुर्बल भी स्वीकार किया जा सकता है और परामर्शदाता का अहंकार तुष्ट रखा जा सकता है कि आप तो साहसी होने के नाते ऐसा कर और सोच सकते हैं, पर मेरे जैसे धर्म-भीरु के लिए ऐसा कर सकना अति कठिन पड़ेगा। मन को मार कर-आन्तरिक विद्रोह के साथ यदि आपकी सलाह मान भी ली गई तो उस उलझी मनःस्थिति में वह स्वीकृति भी आपके लिए कोई प्रसन्नता की बात न होगी। इस प्रकार अस्वीकृति को नम्रता के साथ अपनी कठिनाई व्यक्त करते हुए समझा दिया जा सके तो वह दबाव आसानी से टल सकता है और सामने वाले को बिना रुष्ट किये अनौचित्य से अपने को बचाया जा सकता है।

ऐसी मूढ़ताएं, रूढ़ियाँ, अन्ध परम्पराएँ जो नैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से अहितकर हैं। प्रायः घर के बड़े बूढ़ों या सम्बन्धियों द्वारा सिर पर थोपी जाती हैं। उन्हें अपनाने के लिए दबाव दिया जाता है ऐसे प्रसंगों दर गुजर उनकी की जा सकती है जिनका सम्बन्ध किन्हीं चिन्ह पूजाओं से हो। यों लकीर पीटने में समय, श्रम और पैसा खर्च करने की कोई उपयोगिता नहीं, फिर भी घर में विग्रह उत्पन्न न होने देने के लाभ को ध्यान में रखते हुए उनमें सम्मिलित रहा जा सकता है। किन्तु जिनका प्रभाव महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करता, उन्हें न मानना ही हितकर है। प्रतिगामी लोग बाल विवाह में अक्सर बहुत रुचि रखते हैं। वे अपने बेटे, पोतों का विवाहोत्सव जल्दी देखने के लिए आतुर रहते हैं। उन्हें यह पता नहीं रहता कि इस गलती का इन बालकों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ऐसे आग्रहों को यदि बच्चे स्वयं ही अस्वीकार कर दें तो इसमें कुछ भी बुराई नहीं है। बड़ों का सम्मान करना और उनकी सेवा, सहायता करना पारिवारिक शिष्टाचार है उसका पालन किया जाना चाहिए। पर इस आधार पर इस कारण यह विवशता उत्पन्न नहीं होनी चाहिए कि वे कुछ अनर्थकारी आदेश देंगे उनका भी पालन होता रहेगा। दहेज जैसी कुरीतियाँ परिवार और समाज के आर्थिक एवं नैतिक सन्तुलन को नष्ट किये दे रही हैं किन्तु उन्हें छोड़ने का साहस, परम्परावादी अभी भी नहीं कर रहे हैं। कानूनी बन्धन और सामाजिक असम्मान बढ़ जाने से उन कुरीतियों को प्रत्यक्ष रूप से अपनाये रहना कठिन हुआ तो लोग गुप-चुप रिश्वतखोरी की तरह उस ढर्रे को चला रहे हैं। ऐसे प्रसंगों में घर के विचारशील सदस्य एवं जिनका विवाह हो रहा है वे लड़की लड़के- कड़ा रुख अपनाये और उस कुकृत्य में सहमत सम्मिलित न हों तो यह सब प्रकार उचित ही होगी। देखने में यह बड़ों की अवज्ञा जैसी अशिष्टता लग सकती है, पर न्याय ठहराया जाएगा ।

मित्रों में से कितने ही अपने साथ दुर्व्यसनों में सम्मिलित होने का आग्रह करते हैं। नशेबाजी, आवारागर्दी जैसी अनेकों बुराइयाँ प्रायः तथाकथित मित्र मण्डली द्वारा ही आरम्भ कराई जाती हैं। पीछे वही बुराइयाँ आदतें बनकर आजीवन पतन के गर्त में डुबोती रहती हैं। यदि आरम्भ में ही नम्रता किन्तु स्पष्ट कड़क के साथ मनाकर दिया गया होता तो एक दिन की रुखाई आजीवन विविध प्रकार की हानियाँ उठाते रहने की विपत्ति खड़ी न करती। मित्रता आरम्भ करने में प्रसंग में सबसे अधिक सतर्कता इसी बात की बरती जानी चाहिए कि दुर्गुणी, दुर्व्यसनी, अनाचारी, धूर्त प्रकृति के व्यक्ति मित्रता के जाल में फँसाकर कहीं शत्रुओं से भी बुरी दुर्गति करने तो नहीं जा रहे हैं। इन दिनों यह खतरा मित्रता के क्षेत्र में पग पग पर खड़ा हुआ रहती है। सज्जनों को व्यस्तता अपनानी पड़ती है, उनके पास यारबाजी के लिए समय ही नहीं होता। फालतू आवारा लोग ही अपने साथी, संगी ढूँढ़ने के लिए मित्रता जोड़ने का जाल कन्धे पर लादे फिरते हैं। इसी कुचक्र में फँस कर अनेक उदीयमान व्यक्तित्वों का सर्वनाश हुआ है और भविष्य अन्धकारमय बना है। अस्तु जहाँ तक आग्रह मानने में संकोच करने का सवाल है वहाँ अनुपयुक्त व्यक्तियों की ओर से यदि मित्रता जोड़ने का हाथ बढ़ाया जा रहा हो तो इस संदर्भ में भी उपेक्षा दिखाने की नीति ही अपनाई जानी चाहिए।

कुटुम्बी लोग अपने अपने स्वार्थी के लिए खींच तान करते रहते हैं। कई पत्नियाँ भी बड़ी स्वार्थी प्रकृति की होती हैं, पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने से पति को रोकती है और उसकी कमाई का पूरा लाभ स्वयं ही उठाना चाहती है मानो परिवार से उसके पति का कोई वास्ता ही न रहा हो। इसी प्रकार बेटे अपनी सुख सुविधाओं के लिए बाप की कमाई पर पूरा कब्जा करना चाहते हैं। मानों बेटे को सब कुछ दे जाने के अतिरिक्त बाप के सामने अन्य कोई कर्तव्य ही न हों। ऐसी परिस्थितियों में इन अधिक घनिष्ठ सम्बन्धी कह जाने वाले पत्नी और सन्तान के प्रति भी एक आँख प्यार की और दूसरी सुधार की रखने की नीति अपनाई जानी चाहिए। उनका आग्रह उतना ही स्वीकार किया जाय जो औचित्य की सीमा के अंतर्गत हो। भले ही इस कर्तव्य पालन में उनके असन्तुष्ट या रुष्ट हो जाने का खतरा ही क्यों न उठाना पड़ें?

बात किस की स्वीकार करें? अपना सच्चा हितैषी कौन है? इसका निर्णय करते हुए यही तथ्य ध्यान में रखा गया चाहिए कि औचित्य, न्याय एवं विवेकी की कसौटी पर कौन से परामर्श खरे उतरते हैं। लोकमत या लोकापवाद की चिन्ता भी औचित्य के आधार पर ही करनी चाहिए। यदि आदर्श अपनाने के कारण उपहास सहना पड़ रहा है तो उस अवसर पर हाथी चलता है कुत्ते भूँकते हैं वाली नीति ही अपनानी चाहिए। किन्तु यदि अनीति अपनाने के कारण लोकनिंदा होती है तो उसे मरण तुल्य मानना चाहिए।

दूरदर्शिता क्या मानने, क्या अपनाने और क्या करने में है? दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान की कार्य पद्धति अपनाई जाय। इस संदर्भ में वे विचारशील व्यक्ति भी अपने सगे सम्बन्धियों से अधिक हित चिन्तक सिद्ध हो सकते हैं जो स्थान की दृष्टि से दूर रहते हैं और समय की दृष्टि से दिवंगत हो चुके। किन्तु वे अपने उदार दृष्टिकोण के कारण अभी भी समस्याओं को आदर्शवादिता के आधार पर अपनाने में समर्थ हैं।

व्यक्तियों के साथ सामान्य सहयोग का क्रम अनेकों के साथ चलाना पड़ता है। दुकानदार, मजूर, चिकित्सक, धोबी, दर्जी आदि अनेकों से अपना वास्ता पड़ता है उनके साथ कामचलाऊ वार्तालाप करने एवं सामान्य शिष्टाचार व्यवहार चलने का क्रम बनाये रखा जा सकता है किन्तु जहाँ तक जीवन समस्याओं को उलझाने, सुलझाने वाले परामर्श का सम्बन्ध है वहाँ वह कार्य केवल प्रामाणिक व्यक्तियों से ही लेना चाहिए। पूँजी का विनियोग करने में, कारोबार की साझेदारी में, रिश्तेदारी स्थापित करने में, बहुत सोच-विचार से काम लिया जाता है और ठोक पीटकर यह परखा जाता है कि सामने वाला व्यक्ति प्रामाणिक है या नहीं। आयु, शिक्षा, सुन्दरता, कला, चतुरता आदि विशेषताओं की अपेक्षा ऐसे अवसरों पर सदा प्रामाणिकता को ही महत्व दिया जाता है। विचार विमर्श उन सबसे अधिक प्रभावी है। परामर्श में जीवन की दिशा धारा बदल देने की शक्ति है उन आधार पर हमारा भविष्य उज्ज्वल एवं अन्धकारमय बन सकता है। अतएव इस संदर्भ में पूरी पूरी सतर्कता बरती जानी चाहिए। किसकी, किस प्रकार की, कितनी सलाह माननी चाहिए- और कितनी की उपेक्षा करनी चाहिए अथवा असहमति प्रकट करनी चाहिए यह निर्णय सूक्ष्म दृष्टि, विवेकशीलता और दूरदर्शिता के आधार पर करना चाहिए। जो भी संपर्क में आये- जो भी उलटी सीधी सलाह दे उसी से प्रभावित हो चला जाय और बिना काट छाँट किये जिसने जो बताया उसी को अपना लिया जाय तो समझना चाहिए उस उथली दुर्बल मनोभूमि के कारण पथ भ्रष्ट होने ओर कँटीली झाड़ियों में भटकने का संकट ही सहन करना पड़ेगा।


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