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September 1977

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सेवाँ बिना जीवनमप्यपार्थ सेवाँ विनान्यत् सुकृतं किमर्थम्। सेवैयव यज्ञश्च तपश्च तीर्थ तस्मान्न सेवाँ-त्यजभोः कदाचित्॥ (मनः प्रवोध)

सेवा के बिना जीवन ही निरर्थक है, सेवा के बिना और सत्कर्म किस काम को सेवा ही यज्ञ है, सेवा ही तप है, सेवा ही तीर्थ है, अतः-हे मन तू कभी सेवा का परित्याग न करना।


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