पृथ्वी को सूर्य से कितना अनुदान मिलता है यह सभी जानते हैं। रोशनी और गर्मी के साथ साथ जीवन भी उसी केन्द्र से बरसता है। यह सूर्य और पृथ्वी का सम्बन्ध टूट जाय तो यहाँ सर्वत्र निर्जीविता, निस्तब्धता और अंधतमिस्रा के अतिरिक्त और कुछ शेष न रह जाएगा । न केवल सूर्य से वरन् असंख्य ग्रह नक्षत्रों के साथ पृथ्वी के भौतिकी आदान प्रदान चलते हैं। हम साँस लेते और छोड़ते हैं। साँस के साथ साथ अनावश्यक कचरा बाहर फेंकते रहते हैं। पृथ्वी भी इसी प्रकार साँस लेती और ब्रह्माण्ड से अति महत्वपूर्ण अनुदान समेटती है। इसके लिए उसका नासिका भाग ध्रुव है। उत्तरी ध्रुव से यह अनुदान उपलब्ध होते हैं। इसमें से जो आवश्यक अंश है वह ग्रहण-धारण कर लिया जाता है और कचरा दक्षिणी ध्रुव से होकर अन्तरिक्ष में फेंक दिया जाता है। ध्रुव प्रदेशों को अति महत्वपूर्ण क्षेत्र माना गया है। यदि वहाँ तनिक सा भी हेर फेर होने लगे तो उसका प्रभाव सारे भू-मण्डल पर पड़ेगा। अभी भी ध्रुव प्रदेश की यात्रा करने वाले वहाँ की परिस्थितियों को अति विचित्र बताते हैं और कहते हैं वहाँ की तुलना साधारण भू-क्षेत्र करने पर प्रतीत होता है कि धरती पर ही कोई जादुई प्रेतलोक बसा हुआ है।
मानवीयता के दो ध्रुव प्रदेश हैं। उत्तरी मस्तिष्क का मध्य ब्रह्मरन्ध्र। दक्षिणी-जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित मूलाधार। सामान्यतया हृदय, मस्तिष्क, जिगर, गुर्दे आदि महत्वपूर्ण अवयव माने जाते हैं, पर विशेष निरीक्षण से ऊर्ध्व लोक ब्रह्मरन्ध्र और अन्धःलोक- काम बीज की महिमा अधिक गरिमामयी दृष्टिगोचर होती है। इन्हीं दो केन्द्रों के माध्यम से लघु का विराट् से सम्बन्ध बनता और अति महत्वपूर्ण आदान प्रदान का सिलसिला चलता है। इस क्रम में यदि अवरोध उत्पन्न हो जाय तो घुटन जीवन को न तो सन्तुलित रहने देगी और न सम्भव। सूक्ष्म सता पर विश्वास करने वाले इस परिस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। स्व उपार्जित रक्त, माँस से निर्वाह का ढर्रा तो लुढ़कता है, पर महत्वपूर्ण क्षमताएँ तो आदान प्रदान के आधार पर ही उपलब्ध होती हैं। पृथ्वी सूर्य से आदान प्रदान न कर सके तो उस एकाकीपन से-स्वावलम्बन से-कैसी विभीषिका उत्पन्न हो जायगी, इसकी कल्पना करने मात्र से सिर चकरा जाता है।
मस्तिष्क की तीक्ष्णता के सहारे प्राप्त होने वाली उपलब्धियों से सभी परिचित हैं। बुद्धिमान सुशिक्षित व्यक्ति हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। इस तथ्य से परिचित होने के कारण लोग शिक्षा साधना से मुक्त हस्त से धन और समय लगाते हैं। मस्तिष्क के अन्तराल में उसका नाभिक-न्यूक्लियस-ब्रह्मरंध्र है। जिसके सहारे न केवल मस्तिष्क का स्तर प्रभावित होता है, वरन् सूक्ष्म जगत के साथ वैसे ही आदान प्रदान का द्वार खुलता है जैसा कि पृथ्वी का सूर्य एवं अन्यान्य गृह नक्षत्रों के साथ चलता है।
मानवी काया की धुरी ब्रह्मरंध्र स्थित जिस अति सूक्ष्म केन्द्र नाभिक में सन्निहित है उसे सहस्रार चक्र कहते हैं। यह अपने क्षेत्र को- मस्तिष्क को प्रभावित करता है, उसके स्तर का निर्धारण करता है साथ ही ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ संपर्क बनाकर आदान प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिकी ऋद्धियाँ और आत्मिकी सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती हैं। वृक्ष अपने चुम्बकत्व से वर्षा को आकर्षित करते हैं। धातु खदानें अपने चुम्बकत्व से सजातीय धातु कणों को खींचती और जमा करती रहती हैं। सहस्रार में जैसा भी चुम्बकत्व हो उसी स्तर का अदृश्य विश्व वैभव खिंचता और एकत्रित होता रहता है। यही जीवन का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियजन्य और अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है उसका केन्द्र यही संस्थान है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्म-चिन्तन से लेकर भक्तियोग तक की समस्त आध्यात्मिक साधनाएँ यहीं से फलित और विकसित होती हैं। ओजस्, तेजस् और ब्रह्मवर्चस् के रूप में पराक्रम, विवेक एवं आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्धन यहीं से उभरता है।
इस तथ्य को पौराणिक गाथाओं में ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक के रूप में अलंकृत चित्रित किया गया है। ब्रह्माजी प्रलय जलराशि में-कमल पुष्प पर, विष्णु क्षीर सागर में शेष शैया पर और शिव मानसरोवर में कैलाश पर्वत पर विराजते हैं। ब्रह्म के कमलासन में सहस्र पंखुड़ियाँ हैं। विष्णु सहस्र फन वाले शेषनाग पर सोये हैं। शिव के शरीर पर सहस्र सर्प और सान्निध्य में सहस्र भूतगण रहते हैं। इन अलंकारों में मस्तिष्क स्थित सहस्रार चक्र का ही चित्रण है। खोपड़ी के मध्य भरा हुआ हृइट और गेर मैटर ही क्षीर सागर, कैलाश, दिव्य सागर है। सर्प, कमल, भूतगणों का सहस्र की संख्या युक्त होना मस्तिष्कीय नाभिक सहस्रार चक्र समझा जाता है। उसी पर त्रिदेव अपने अपने ढंग से विराजते हैं। ब्रह्मसत्ता की उपस्थिति अवस्थितियों यों तो समूची काया में है, पर पूरी लाइन में दौड़ने वाली बिजली का नियन्त्रण करने वाले ‘प्लक’ की तरह इस सहस्रार चक्र को माना जा सकता है। इस केन्द्र को ब्रह्म बीज, ज्ञान बीज आदि के नाम से भी पुकारा जाता है।
दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित ‘काम बीज’ है। इसी को साधना शास्त्र में मूलाधार चक्र कहा गया है। इसकी उपयोगिता और गरिमा अपने स्तर की है। मस्तिष्क ज्ञान की और काम बीज सामर्थ्य का उद्गम है। आत्मिक बल ऊपर है और भौतिक बल नीचे। भावनाएँ, विचारणाएँ, आस्थाएँ ऊपर से उतरती है। ऊर्ध्व केन्द्र को ब्रह्म का-अधः केन्द्र को प्रकृति का-संपर्क द्वार कह सकते हैं। अपने-अपने स्तर के आदान-प्रदान इन्हीं केन्द्रों से सम्भव होते हैं।
ऊर्ध्व क्षेत्र ग्रहण करता है और अधःक्षेत्र विसर्जन। शिरो भाग में मुख है जिससे अन्न जल ग्रहण किया जाता है। नाक है, जिसमें से साँस ग्रहण की जाती है। कान सुनते, नेत्र देखते हैं। इनसे मस्तिष्क की ज्ञान सम्पदा बढ़ती है। यह शिर भाग ग्रहणकर्ता होने के कारण उत्तरी ध्रुव है। उसकी धुरी सहस्रार में है।
अधःक्षेत्र से विसर्जन होते प्रत्यक्ष देखा जाता है। मल, मूत्र, वीर्य का क्षरण इसी क्षेत्र से होता है। कामुकता यहीं से उठती है और मस्तिष्क की सरसता का प्रलोभन देकर अपने चंगुल में जकड़े रहती है। विवाह सन्तान का ताना बाना इसके चरखे कंधे पर तैयार होता है। इन्हीं दो प्रयोजनों में जीवन सम्पदा का अधिकाँश भाग खर्च हो जाता है। दक्षिणी ध्रुव से विसर्जन प्रक्रिया काम केन्द्र द्वारा किस प्रकार होती हैं यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। ओजस् का दिव्य उपार्जन शरीर में होता है उसे क्रमशः अधिक सूक्ष्म और विकसित करते रहा जाय तो मानसिक तेजस् और आत्मिक वर्चस् की अभिवृद्धि करते करते मनुष्य प्रचण्ड पराक्रमी हो सकता है, पर वे सभी दिव्य विभूतियाँ इसी काम क्षेत्र के उभारो में होकर अस्त व्यस्त हो जाती हैं। शारीरिक और मानसिक ब्रह्म-अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य साधन और इस संचय को कलात्मक एवं भावनात्मक दिव्य प्रयोजनों में लगा कर मनुष्य क्या नहीं बन सकता? किन्तु क्षरण के कारण तो वह खोखला ही बनता जाता है। सामान्य निर्वाह तक में कमी कठिनाई पड़ती है, तब महत्वपूर्ण प्रगति के लिए साधन सामग्री कैसे जुटे?
काम केन्द्र का यह एक अद्भुत चमत्कार है कि वहाँ से नये मनुष्य का जन्म अवतरण सम्भव होता है। प्राणियों उत्पादक परमात्मा है, पर जब जीव को अपने ही समतुल्य नया जीव बनाते देखा जाता है तो जी चाहता है कि उसे भी सृष्टा कहा जाय? अपने शरीर में से अपने जैसे नये नये शरीर बना कर खड़े करते जाना अनोखे किस्म का जादू है। जादूगर अपनी झोली, हथेली, मुख आदि से अन्य वस्तुएँ तो निकालते हैं, पर अपने जैसा मनुष्य निकाल सकना उनमें से किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सका। यह जादू मनुष्य काया में स्थित काम केन्द्र का ही है जो ऐसा अद्भुत उत्पादक सम्भव बना देता है।
काम केन्द्र मात्र रति प्रेरणा ही नहीं उभारता। उसमें कला, सौंदर्य, उत्साह, उल्लास, साहस जैसी अनेकों सृजन सम्वेदनाएँ उफनती रहती हैं। नपुंसक शब्द एक प्रकार की गाली माना जाता है। ऐसे व्यक्ति राजकीय सेवा में स्वास्थ्य की दृष्टि से ‘अनफिट’ कर दिये जाते हैं। सेना, पुलिस जैसे साहसिक कार्यों में उनको प्रवेश नहीं मिलता। श्राद्ध और यज्ञ का संचालन करने में नपुंसक आचार्यों को बहिष्कृत ठहराया गया है। गीता में कृष्ण ने अर्जन को ‘क्लीव’ कहकर प्रकारान्तर से गाली ही दी थी। अध्यात्म क्षेत्र की नपुंसकता, नीरसता, निराशा, निष्क्रियता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इन प्रवृत्तियों में उभार या उतार की स्थिति बनने के लिए काम केन्द्र की स्थिति को उत्तरदायी माना गया है। सन्तानोत्पादन से लेकर सृजनात्मक क्षमताओं तक सम्बन्ध इसी केन्द्र से जुड़ता है। ऐसे ऐसे अनेकों तथ्य मिलाकर यह सिद्ध करते हैं कि भौतिकी क्षमताओं और सफलताओं की दृष्टि से काम संस्थान का-मूलाधार चक्र का कितना महत्व है। जीव विकास विज्ञानियों ने तो प्रगति प्रेरणाओं को मनोविज्ञान के क्षेत्र में ‘सेक्स’ संज्ञा दी है। यहाँ रति कर्म को नहीं उत्साह और आनन्द के समन्वय को ही ‘सेक्स’ संज्ञक कहा गया है।
काम बीज का प्रत्येक मूलाधार और ज्ञान बीज का प्रतिनिधि सहस्रार चक्र है। इन्हें मानवी सता के दो अति महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्र कहा जा सकता है। यहाँ तक बात विशेष रूप में स्मरणीय है कि इन्हें शरीर शास्त्र के अनुसार कोई प्रत्यक्ष अवयव नहीं मानना चाहिए यह सभी सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सत्ताएँ हैं। स्थूल शरीर में-सूक्ष्म शरीर से मिलते जुलते अवयव पाये जाते हैं और उनके सहारे स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों के बीच आदान प्रदान भी होते रहते हैं। इतने पर भी दोनों के अस्तित्व एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। रक्त संचार की थैली भी हृदय है और सहृदयता एवं हृदय हीनता के रूप में विद्यमान अन्तरात्मा भी हृदय कहलाती है। हृदय गुफा में व्यान करने के लिए कहा गया है। यह हृदय रक्त शोधक थैला नहीं, वरन् सूक्ष्म शरीर में अवस्थित विशिष्ट चेतना केन्द्र है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार एवं सहस्रार को प्रत्यक्ष शरीर का कोई अवयव विशेष नहीं मानना चाहिए। हाँ, उनसे मिलते जुलते अवयवों का अस्तित्व किसी औंधे-तिरछे रूप में अवश्य पाया जा सकता है। उनका इतना ही महत्व है कि उन्हें झकझोरने से अधिष्ठात्री सूक्ष्म शक्ति को किसी कदर प्रभावित किया जा सकता है। साधना प्रयोजनों में इन अवयवों से भी कुछ न कुछ काम लिया जाता है। प्रगति पथ प्रशस्त होने में इससे सहायता भी मिलती है।
कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार और सहस्रार में अवस्थित भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों के पारस्परिक शिथिल सम्बन्ध को सघन बनाया जाता है। दोनों के बीच आदान प्रदान की गति तीव्र की जाती है। इन दोनों सरोवरों के बीच सम्बन्ध मार्ग है-मेरुदण्ड इसी को महा मार्ग कहा गया है। महा प्रयाण की, ऊर्ध्वगमन की देवयान प्रक्रिया यही है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण को-- इसी प्रयास का अलंकारिक कथा प्रसंग कहना चाहिए।
पतित लोग अधोगामी, नर्कगामी होते हैं। यह पौराणिक मान्यता इस तथ्य को प्रतिपादित करती है कि प्रगति का अर्थ ऊर्ध्वगमन है और पतन को अधोगमन कहा जाता है। मूलाधारगत शरीर चेतना साधन शक्ति जब ऊर्ध्वगमन की इच्छा करती है तो उसे सहस्रार की ओर उठाना, चलना पड़ता है। काम बीज का ज्ञान बीज में परिवर्तन, विसर्जन, समर्पण करने की प्रक्रिया ही आत्मिक प्रगति का-लक्ष्य प्राप्ति का-एकमात्र मार्ग है।
इस आत्मिक उत्कर्ष के अनेकों मार्ग हो सकते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता के भव बन्धनों को शिथिल रहने और तोड़ने का प्रत्येक प्रयास इसी स्तर का माना जाएगा । जिन विचारों, योजनाओं और गतिविधियों में आदर्शवादी सिद्धान्तों को अपनाने की बात बनती हो उन्हें आत्मोत्कर्ष की साधना का एक स्वरूप माना जा सकता है। ऐसे ही अनेक प्रसंगों में एक वैज्ञानिक परिपाटी कुण्डलिनी जागरण की भी है। इसमें शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों के महत्वपूर्ण आधार जुड़े हुए हैं। भौतिकी और ब्रह्म विद्या के दोनों तत्वों का इसमें समान रूप से समावेश है।
जीवसत्ता सामान्यतया शरीराध्यास में डूबी रहती है। इसी वस्तुस्थिति का चित्रण कुण्डलिनी ज्ञान में इस प्रकार किया गया है कि मूलाधार क्षेत्र में एक महासर्पिणी किसी लिंग प्रतीक से साढ़े तीन लपेटे मार कर सोई हुई है। उसका मुख नीचे की ओर है और उससे विष झरता है। यह लिंग कन्द-संसार का आकर्षण है। जीव-सत्ता सर्पिणी है। वह आत्मबोध के सम्बन्ध में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी है। न उसे अपने स्वरूप का ज्ञान है न लक्ष्य का । मोह मदिरा पीकर वह अज्ञान की मूर्च्छा से ग्रसित हो रही हैं। साड़े तीस फेरो में तीन तो वासना, तृष्णा और अहंता के पूरे हैं। बीच-बीच में कभी-कभी आत्म-कल्याण की बात भी हलके फुलके ढंग से उभरती हैं । अन्तरात्मा की यह पुकार पूरी तरह कोई भी कुचल नहीं सकता । वह अपनी माँग करती ही रहेगी। भले ही उसे पग-पग पर अनसुनी किया जाता रहे । यही है आधा लपेट जिसे मिलकर साड़े तीन फेरे बनते हैं। सप्त-प्रसुप्त कुण्डलिनी का मुख नीचे की ओर अधःपतन की ओर है। हमारी निकृष्ट आकांक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ आत्म-कल्याण से नीचे ही धकेलने वाली बन गई हैं। शक्तियों का क्षरण-अधोमुखी बना हुआ है। वीर्यपात से लेकर अर्र्रन्य कार्य भी उठाने वाले नहीं , गिराने वाले ही बने हुए हैं। उनके दुष्परिणाम विष तुल्य होते हैं। जीवसत्ता की दुर्गति का चित्रण प्रसुप्त सर्पिणी के रूप में किया गया है तो यह उचित ही है। हमारी सत्ता इस विश्व वसुधा में सर्पिणी के समतुल्य ही हेय बनकर रह रही है। हमारे उत्पादन विष तुल्य ही हैं। विष बीज बोने और विषाक्त प्रदूषण फैलाने वाली ही तो अपनी जीवन प्रक्रिया बन रही है। मोह-मदिरा पीकर उन्मत्त बने दुर्भाग्यग्रस्त मनुष्यों की तरह ही अपनी स्थिति बनी हुई है।
कुण्डलिनी जब जागती है तो प्रसुप्ति छोड़ती है। लपेटे खोल देती है। तन कर खड़ी हो जाती है। मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर चढ़ना प्रारम्भ करती है। उसके मुख से विषाक्त दुर्गन्ध के स्थान पर अमृतमयी सुगन्ध के श्वास निकलने लगते हैं। यह दृश्य आत्मोत्थान की ओर उन्मुख होने का है। कुण्डलिनी मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर चलती है और सहस्रार अवस्थित महासर्प से जा लिपटती है। इसे शिव-पार्वती विवाह की कथा-गाथा के रूप में समझाने का प्रयत्न किया गया है। सती - शिव से विमुख होकर पिता घर गई थी और खिन्न होकर अग्निकुण्ड में जल मरी थीं । यह आत्मा का परमात्मा से विमुख होकर नारकीय यातनाओं के कुण्ड में जल मरना है। स्थिति बदलती है। सती नया जन्म पार्वती के रूप में लेती हैं। तप करती हैं और शिव की अर्धांगिनी बन जाती हैं। यह जीवसत्ता का योग तप की साधना अपनाकर अपना पात्रता को विकसित करना और ऊर्ध्वगामी बनकर परमात्मा में समन्वित हो जाने का विकास क्रम है। कुण्डलिनी जागरण साधना का तत्त्वदर्शन इन कथनों के माध्यम से अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है।
समुद्र मंथन की कथा भी प्रकारान्तर से कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया का ही दिग्दर्शन है। जो समुद्र मथा गया था वह यह अपना खारी पानी वाला सागर नहीं, वरन् अग्नि समुद्र- शक्ति समुद्र था। उसका मंथन देव असुर सहयोग से हुआ था। अपना निज का जीवन अथवा यह विशाल संसार ऐसा ही दिव्य समुद्र है जिसे अन्तरंग एवं बहिरंग पुरुषार्थों के सहारे मथा जा सकता है। निष्क्रिय व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कुछ नहीं पा सकते । लड़ने-झगड़ने में मात्र बर्बादी ही है। मिल-जुलकर सृजनात्मक प्रयत्नों में संलग्न होने पर अनिष्ट मनोरथ पूरे किये जा सकते हैं। यही समुद्र मंथन या जीवन मंथन है। हमारी भौतिक और आत्मिक रुचियाँ भिन्न दिशाओं को चलती हैं। उनमें सहयोग होना तो दूर उलटा विग्रह चलता रहता है। देवासुर संग्राम लम्बे समय तक चलता रहा है और उससे दोनों ही पक्ष हानि उठाते रहे हैं। दोनों का सहयोग सम्भव हुआ तो परिस्थितियाँ ही बदल गई और सृजनात्मक प्रयोग के रूप में समुद्र मंथन का आधार खड़ा हो गया। हमारी भौतिक शक्तियाँ आध्यात्मिक आस्थाओं का सहयोग करने लगें तो गतिविधियों का स्वरूप ऐतिहासिक महामानवों जैसा बन सकता है। फलस्वरूप एक से एक बड़ी उपलब्धियाँ सामने आ सकती हैं। समुद्र मंथन से अमृत, कौस्तुभ मणि, ऐरावत, धन्वन्तरि, लक्ष्मी जैसे उपहार उपलब्ध हुए थे। मानवीसत्ता भी उच्चस्तरीय पुरुषार्थ के फलस्वरूप, स्वास्थ्य, सन्तोष, उल्लास, सन्तुलन, यश, वैभव, सहयोग, सम्मान, नेतृत्व, स्वर्ग, मोक्ष जैसे श्रेष्ठ जीवन को धन्य बना देने वाले अनुदान प्राप्त कर सकती है।
समुद्र मंथन की कथा में जीव की वस्तुस्थिति और कुण्डलिनी जागरण साधना से उसकी प्रगति सद्गति का अच्छा−खासा चित्रण है। कूर्म अर्थात् भगवान्-पैर समेटे गई ’गुजरी स्थिति में सबसे नीचे। मंथन के लिए लाया गया मंदराचल पर्वत उनकी पीठ पर। मथने के कार्य में प्रयुक्त होने वाली वासुकी सर्प की रज्जु। देवता और असुरों द्वारा उसका मंथन। यही है समुद्र मंथन का दृश्य चित्र। हमारे दैनिक जीवन में ईश्वर का स्थान सबसे नीचे है। वह कुछ करा सकने की स्थिति में नहीं है। कछुए की तरह सिकुड़ा-सिमटा ज्यों-त्यों करके मानवीसत्ता का भार वहन कर रहा है। मंदराचल- वैभव। मदिरा (मादक) अचल (संग्रहित)। अपना धन, वैभव, उद्धत अहंता की तृप्ति में तथा अचल (संग्रह) करने के लिए प्रयुक्त होता है। वासुकी सर्प-विषधर जीव। साड़े तीन लपेटों से मंदराचल के साथ लिपटा है और दोनों दिशाओं में देव-दानवों द्वारा घसीटें के कारण दुर्दशाग्रस्त हो रहा है। हड्डी-पसलियों का कचूमर निकला जा रहा हैं। इस चित्रण में हम अपनी दुर्दशा का चित्र तथा भावी प्रगति का उपाय आभास देखने का दुहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
जीवन-क्रम में संव्याप्त जड़ता को - पशु-प्रवृत्तियों के अभ्यस्त प्रवाह को निरस्त किया जाना चाहिए। चिंतन में समुद्र मंथन जैसी प्रखरता उत्पन्न की जानी चाहिए। प्रसुप्ति को जागृति में - मूर्छना को क्रान्तिकारी परिवर्तन में परिणत करने की आवश्यकता है। जीवन मंथन कर डाला जाय काया-कल्प के लिए कटिबद्ध हुआ जाय । पशु-प्रवृत्तियों से छुटकारा पाकर देवयान के पथ पर चलने का साहस जुटाया जाय तो अपने लिए भी समुद्र मंथन से उपलब्ध हुए बहुमूल्य रत्नों की तरह अति महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ करतलगत हो सकती हैं। व्यामोह की, प्रलोभनों की, उन्मादों की सनकें यदि अन्तः चेतना पर छाई ही रही । अन्तर्द्वन्द्वों में क्षमता का अपव्यय होता रहा तो इस जीवन व्यापार में कमाया कुछ न जा सकेगा। जो पूँजी साथ लेकर आये थे वह भी गँवा कर ऋण भर लाद कर वापिस जाना पड़ेगा। इस स्थिति से बचने के लिए जीवन मंथन आवश्यक है। क्रान्तिकारी परिवर्तन अभीष्ट है। समुद्र मंथन की कथा को मंथन प्रक्रिया-कुण्डलिनी जागरण पद्धति के साथ सहज भाव से जोड़ा जा सकता है।
कामनाएँ भावनाओं में परिणत होने के लिए संकल्प करती हैं तो उनकी स्थिति गंगा के समुद्र में विलय होने की आतुरता जैसी वन जाती है। हिमालय से निकल कर गंगा आतुरतापूर्वक समुद्र मिलन के लिए लम्बा मार्ग पार करती हुई दौड़ती है। कुण्डलिनी को गंगा-मेरुदण्ड मार्ग को प्रवाह पथ और सहस्रार को समुद्र कहा जा सकता है। अपने प्रियतम को पाकर गंगा ने अशान्ति से छुटकारा पाया और महान् से मिलकर महान् बन गई । आत्मसत्ता कामनाओं के काम बीज से निकल कर सुविस्तृत जीवन -यात्रा में असंख्यों की शान्ति तृप्ति प्रदान करती हुई परमात्मसत्ता में जा मिलती है। यही काम बीज का और ज्ञान बीज का, मूलाधार और सहस्रार का मिलन है। यह महा मिलन सम्भव होने पर नर-नारायण बनता है और आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी बन जाती है। इसी लक्ष्य प्राप्ति को सरल सम्भव बनाना कुण्डलिनी जागरण साधना का उद्देश्य है।