साधना का प्रयोजन और परिणाम

September 1977

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साधना का अर्थ है-अपने आप को साधना। जिन देवी देवताओं की साधना की जाती है वे वस्तुतः अपनी ही विभूतियाँ एवं सत्प्रवृत्तियाँ हैं। इन विशेषताओं के प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहने के कारण हम दीन दरिद्र बने रहते हैं किन्तु जब वे जागृत, प्रखर एवं सक्रिय बन जाती हैं तो अनुभव होता है कि हम ऋद्धि सिद्धियों से भरे पूरे हैं। मनुष्य की मूल सता एक जीवन्त कल्पवृक्ष की तरह है। ईश्वर ने उसे बहुत कुछ-सब कुछ-देकर इस संसार में भेजा है। समुद्र तल में भरे मणि मुक्तकों की तरह-भूतल में दबी रत्न राशि की तरह मानवी सता में भी असंख्य सम्पदाओं के भण्डार भरे पड़े हैं। किन्तु वे सर्वसुलभ नहीं है, प्रयत्नपूर्वक उन्हें खोजना खोदना पड़ता है। जो इसके लिए पुरुषार्थ नहीं जुटा पाते वे खाली हाथ रहते हैं किन्तु जो प्रयत्न करते हैं उनके लिए किसी भी सफलता की कमी नहीं रहती। इसी प्रयत्नशीलता का नाम साधना है। स्पष्ट है कि अपने आप को सुविकसित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बना लेना ही- देवाराधना का एक मात्र उद्देश्य है। अपनी ही सत्प्रवृत्तियों को अलंकारिक भाषा में देव शक्तियाँ कहा गया है और उनकी विशेषताओं के अनुरूप उनके स्वरूप, वाहन, आयुध, अलंकार आदि का निर्धारण किया गया है।

साधना उपासना के क्रिया कृत्य में यही रहस्यमय संकेत सन्देश सन्निहित है कि हम अपने व्यक्तित्व को किस प्रकार समुन्नत करें और जो प्रसुप्त पड़ा है, उसे जागृत करने के लिए क्या कदम उठाये । सच्ची साधना वही हैं जिसमें देवता की मनुहार करने के माध्यम से आत्म निर्माण की दूरगामी योजना तैयार की जाती और सुव्यवस्था बनाई जाती है।

आरम्भिक दिनों में यह धरती ऊबड़-खाबड़-खार-खड्डों वाली थी। मनुष्य ने प्रयत्नपूर्वक उसे समतल बनाया। झाड़-झंखाड़ों को काटकर सुसंस्कृत बनाये जाने के उपरान्त ही जमीन को कृषि उद्यान, निवास, पशु पालन आदि के योग्य बनाया गया है। नदियों से नहरें निकालने और उन पर पुल बनाने का यदि प्रयास न होता तो वे अति प्राचीन काल की तरह मनुष्य के लिए अवरोध बनकर ही खड़ी रहतीं। वनस्पतियाँ उगती और नष्ट होती हैं, उन्हें औषधि रूप में लाभकारी बनाने में मनुष्यों के शोध प्रयत्नों को ही श्रेय दिया जा सकता है। जप को नियंत्रित करके उससे इंजन चलाने का लाभ उसी ज्ञान साधना का प्रतिफल है जिसे विज्ञान के रूप में विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ देखा जा सकता है। द्रुतगामी वाहन-तार रेडियो, पनडुब्बी, वायुयान एवं अन्तर्गत ही उड़ानों का श्रेय मनुष्य की विज्ञान साधना को ही दिया जा सकता है। ज्ञान साधना के आधार पर ही हम नर पशु से ऊँचे उठकर सृष्टि के मुकुट मणि बने हैं।

पौधे तो जंगल में भी उगते हैं पर उन अस्त व्यस्तता एवं अनिश्चितता ही छाई रहती है। न तो केवल सुन्दर लगते हैं और न सुव्यवस्थित। उन की बेतुकी उत्पत्ति और विकास प्रक्रिया से बन प्रदेश, झाड़-झंखाड़ों से भरा दिखता है। किन्तु जब उन्हें माली यथा क्रम लगाता है, खाद-पानी काट-छाँट निराई-गुड़ाई की सुव्यवस्था बनाता है तो वह उद्यान कैसा नयनाभिराम दिखता है। जंगली पेड़ों की तुलना में उसके फल फूल भी अधिक मात्रा में लगते हैं और सुन्दर समुन्नत दिखते हैं। यह माली द्वारा की गई उद्यान की साधना ही कही जायगी। उसका प्रतिफल प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

किसान अपने खेत की साधना करता है। शरीर को, मिट्टी में मिलाये रहता है। फलतः फसल आने पर धान से कोठे भरता है। लकड़ी की साधना बढ़ई-लोहे की लुहार- स्वर्ण की सुनार, पत्थर की मूर्ति कार करता है। अपने श्रम, मनोयोग एवं कौशल से वे उन अनगढ़ वस्तुओं को बहुमूल्य बना देते हैं। स्वयं गौरवान्वित होते हैं और उन वस्तुओं को उपयोगी एवं दर्शनीय बनाकर रख देते हैं।

पहलवान व्यायामशाला में नियमित रूप से जाकर कठोर परिश्रम के साथ पूरा उत्साह संजोये रहता और शरीर की साधना करके अपने को बलिष्ठ बनाता है। विद्यार्थी बचपन से लेकर पूरी किशोरावस्था शिक्षा साधना में लगाता है और यौवन आने तक उसी में तत्परतापूर्वक संलग्न रहता है, इसका प्रतिफल उसे विद्वान होने के रूप में मिलता है। उस साधना का लाभ धन, पद एवं सम्मान बनकर उपलब्ध होता है।

गायक, वादक अपने विषयों में अनायास ही पारंगत नहीं हो जाते। वे लोग स्वर साधना में वर्षों लगे रहते हैं, वाद्य यन्त्र उनके हाथों में ही लगे रहते हैं। संगीतकार की सफलता उसकी जन्मजात विशेषता पर नहीं, उसके अनवरत अभ्यास पर निर्भर रहती है। जादूगर, नर्तक, अभिनेता, चित्रकार, साहित्यकार, कलाकार बन सकना अनायास ही सम्भव नहीं हो जाता वरन् उसके लिए चिरकाल तक दत्त चित्त से साधना करनी पड़ती है। फौजी सैनिक अपनी युद्ध कला का निरन्तर अभ्यास करते रहते हैं। मोर्चे पर वे जो कौशल दिखाते हैं वह कोई चमत्कार नहीं होता वरन् वर्षों तक किये गये अभ्यास का ही वह प्रतिफल होता है।

वन्य पशुओं की गतिविधियाँ मनुष्य के लिए हानि ही हानि पहुँचाती हैं। वे खेत चर जाते हैं, पेड़ पौधे उजाड़ते हैं, आक्रमण करके भय उत्पन्न करते हैं, किन्तु जब उन्हें पालतू बना लिया जाता है तो मनुष्य भी लाभान्वित होते हैं और वे पशु भी सुविधा एवं निश्चिंततापूर्वक जीवन यापन करते हैं। बैल खेती में काम आते हैं, गायें दूध देती हैं। मनुष्यों का सहयोग भी उन्हें मिलता है। यदि आदान प्रदान का पथ प्रशस्त करने वाली पशु पालन साधना न की गई होती तो दोनों ही पक्ष घाटे में रहते। घोड़े, हाथी, कुत्ते आदि का मनुष्यों के साथ सहयोग लाभदायक ही रहा; पर यदि सिखाने साधने के प्रयत्न करने पर ही सम्भव हुआ है। सरकस में हिंस्र पशु भी कैसे अद्भुत करतब दिखाते हैं कि आश्चर्य से दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। सिंह, व्याघ्र आदि अपने असली रूप में मनुष्य के लिए प्राण घातक ही होते हैं, पर सधा लेने पर वे सरकस मालिक के लिए सम्पत्ति कमाने का साधन बनते हैं। स्वयं प्रशंसा के पात्र बनते हैं और साधने वाले का गौरव बढ़ाते हैं। रीछ-बन्दर नचाने वाले उसी आधार पर अपना परिवार पालते हैं। साँप जैसा, काल पाश तक साधने पर सपेरे की आजीविका का साधन बन जाता है। इन प्रयत्नों में साधना का, सधने की प्रक्रिया का ही चमत्कारी प्रतिफल दृष्टिगोचर होता है।

मानवी व्यक्तित्व में सन्निहित सम्भावनाओं का कोई पारापार नहीं, ईश्वर का जेष्ठ पुत्र होने के नाते उसे अपने पिता से सभी विभूतियाँ उत्तराधिकार में मिली है। व्यवस्था नियन्त्रण इतना ही है कि जब उस रत्नराशि की उपयोगिता आवश्यकता समझ में आ जाय तभी वे मिल सकें । पात्रता के अनुरूप अनुदान मिलने की सुव्यवस्था अनादि काल से चली आ रही है। इसी परीक्षा में खरे उतरने पर लोग एक से एक बढ़कर उपहार प्राप्त करते रहे हैं। साधना के फलस्वरूप सिद्धि मिलने का सिद्धान्त अकाट्य है। देवी-देवताओं को माध्यम बनाकर वस्तुतः हम अपने ही व्यक्तित्व की साधना करते हैं। अनगढ़ आदतों की बेतुकी इच्छाओं और अस्त-व्यस्त विचारणाओं को सभ्यता एवं संस्कृति के शिकंजे में कस कर ही मनुष्य ने प्रगतिशीलता का वरदान पाया है। इसी परम्परा को जो अपने व्यक्तिगत जीवन में जितना क्रियान्वित कर लेता है वह उतना ही श्रेयाधिकारी बनता है।

साधना का प्रयोजन अपने अविवेक और अनाचार का निराकरण करना है। अपनी कामनाओं का परिशोधन एवं दृष्टिकोण भी साधना का उद्देश्य कहा जा सकता है। कर्तृत्व में देवत्व का समावेश करना तथा चिन्तन में घुसी कुत्साओं के उन्मूलन में जुटा देना साधनात्मक व्यायाम प्रक्रिया है जिसके आधार पर आत्मबल बढ़ाया जाता है और देव वर्ग की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन किया जाता है। इस आत्म परिष्कार के फलस्वरूप उन विभूतियों की चाबी हाथ लग जाती है जो फलस्वरूप उन विभूतियों की चाबी हाथ लग जाती है जो परमेश्वर ने पहले से ही हमारे भीतर रत्न भण्डार के रूप में सुरक्षित कर दी है। साधना अन्तःकरण में वह प्रकाश उत्पन्न करती है, जिससे अपने लक्ष्य और कर्तव्य को समझा जा सके। साधना वह शक्ति प्रदान करती है, जिससे आत्मबल विकसित हो सके और सन्मार्ग पर चलने के लिए पैरों में अभीष्ट क्षमता रह सके। साधना और आकर्षणों को दुत्कारते हुए कर्तव्य की चट्टान पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर रहा जा सके और हर विघ्न बाधा का-कष्ट कठिनाई का-धैर्य और सन्तुलन के साथ सामना किया जा सके। साधना का वरदान ‘महानता’ है। साधना जितनी ही सच्ची और प्रखर होती है उतने ही हम महान बनते चले जाते हैं। तब हमें किसी से कुछ माँगना नहीं पड़ता-ईश्वर भी नहीं। तब अपने पास देने को बहुत होता है-इतना अधिक कि उसके आधार पर अपने को-संसार को-और परमेश्वर को सन्तुष्ट किया जा सके।


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