काम वासना का दुरुपयोग और सदुपयोग

September 1977

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कुछ भौतिकवादी मानसिक उपचारकों का विचार है कि काम प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होने से, उसके प्रकाशन और तृप्ति की प्रक्रिया में तब तक रोक नहीं लगाई जानी चाहिए, जब तक कि उससे समाज के किसी अन्य घटक को कोई क्षति या पीड़ा न पहुँच रही हो। उनकी मान्यता है कि कामोत्तेजना का दमन स्नायविक तनाव का कारण बनता है और इससे विभिन्न शारीरिक मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है।

इस संदर्भ में अनेक ऐसे लोगों का परीक्षण किया गया जो कि बुद्धि और हृदय से काम-वासना सम्बन्धी उपरोक्त मत को ही सत्य मानते थे और स्वयं डाक्टर थे तथा शरीर की भली-भांति जानकारी रखते थे। पाया यह गया कि उच्छृंखल काम-सेवन या कि काम-चिन्तन से इन लोगों को भी शारीरिक थकावट, निराशा, चिन्ता वृद्धि, शंकालुता के अकारण उदय आदि से ग्रस्त-त्रस्त होना पड़ा। अधिक समय तक इसी में लगे रहने वाले ऐसे डाक्टरों को भी औरों की तरह ‘न्यूरेस्थेनिया’ का रोग हो गया। “साइकालाजी एण्ड मारल्स” नामक पुस्तक में मनोविज्ञानवेत्ता प्रोफेसर हेडफील्ड ने लिखा है कि स्वच्छन्द यौनाचरण का परामर्श देना, व्यक्ति को विनाश के मार्ग में ले जाने की विधि है।

तब क्या यह सही नहीं है कि काम-वासना का दमन रोगों को जन्म देता है? वस्तुतः सही यह है कि जब किसी तरह के भय के कारण काम-वासना दमित की जाती है, तो वह मात्र चेतन मन में दमित होती है । अचेतन मन में उसकी आग धधकती ही रहती है और वह काम कुटेवों तथा शारीरिक-मानसिक विकृतियों के रूप में फूटती है।

एक ओर-काम-क्रीड़ा के प्रति जब व्यक्ति मन में प्रबल पाप-भावना घर कर लेती है और दूसरी ओर अचेतन मन के प्रशिक्षण की विधियाँ जाने बिना मन की स्वाभाविक कामोत्तेजनाएँ बार-बार उभरकर उद्विग्न-उद्वेलित करती रहती हैं, तो एक प्रचण्ड संघर्ष का जन्म स्वाभाविक हैं। इस संघर्ष के बावजूद अनियन्त्रित-अप्रशिक्षित मन में कामोद्वेग तो उठेगा ही, इससे आत्मग्लानि की भावना उत्पन्न होने लगती है। साथ ही दमन की अस्वाभाविक आकांक्षा दुराग्रही और हठी बनती की स्थिति होती है। परिणाम स्पष्ट है-क्षति स्वयं की ही होती है। दमित भावना अचेतन मन में चली जाती हैं, और असामान्य यौन-रोगों तथा शारीरिक-मानसिक विकृतियों का कारण बनती है।

किशोरावस्था में ऐसा हो जाता है कि अपनी किसी तरुण विरुद्ध लिंग सम्बन्धी के प्रति आकर्षण में काम वासना का समावेश हो जाये। मन की नैतिक मान्यताएँ जब इस हेतु स्वयं को धिक्कारती हैं, तब व्यक्ति इन भावनाओं का दमन करने लगता है। इससे सर्वप्रथम स्वप्नदोष आदि के रूप में ये दमित भावनाएँ फूटती हैं। फिर स्वप्नदोषों के प्रति भी यदि अस्वाभाविक भय ग्रन्थियाँ मन में घर कर गई हों, तो हीन भावना की वृद्धि होती जाती है, चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जाती है और शक्तियों का बिखराव दिनानुदिन असफलता का बोध कराता है। मन में हताशा, कुंठा और पराजय की वृत्तियाँ घनीभूत एवं प्रचंड होती जाती है।

काम कुटेवों का भी यही परिणाम होता है। काम कुटेव का अर्थ है-सामान्य विधि एवं पात्र को छोड़कर, किसी अस्वाभाविक विधि तथा अनुपयुक्त पात्र द्वारा यौनेच्छा की सन्तुष्टि। परपीड़क काम-क्रीड़ाएँ, काममूलक आत्मप्रपीड़न प्रदर्शन स्पर्श विचित्र वेष धारणा या विवस्त्र प्रियता, इतरेतर वस्त्र प्रियता, सयौनवृत्ति से लेकर अत्यन्त घृणित तथा वीभत्स रूपों में विभिन्न काम चेष्टाएँ करना, यौन सन्तुष्टि की भ्रान्ति से प्रेरित हो अकरणीय कर्म और अचिन्त्य तक काम कुटेवों के विचित्र विकृत रूपों की पराकाष्ठा शवयौनवृत्ति, कामैषणा-हत्याएँ (लस्ट मर्डर) तथा पशुयौनवृत्ति आदि रूपों में देखी जाती है।

मात्र भर्त्सना से काम कुटेवों से मुक्ति असम्भव है। यह भर्त्सना गुरुजनों परिजनों प्रियजनों या समाज द्वारा की जाये अथवा स्वयं अपने ही द्वारा। अपराध के बोध से भर्त्सना का भाव जगे, तो प्रायश्चित स्वरूप अपराधी वृत्ति से मुक्ति का संकल्प ही प्रबल हो उठे तथा इस संकल्प को क्रियान्वित करने की अपनी शक्ति पर आस्था हो, यही श्रेयस्कर और सही मार्ग है। यही आत्म सम्मान भी है। आत्मसम्मान से ही संयम की शक्ति आती है। समय द्वारा प्रतिगामी बन रही मनःशक्तियों को पुरोगामी, प्रगतिशील बनाया जाता है। यदि आत्मनिन्दा और आत्मधिक्कार की ही भावना घर करती जाए, तो इच्छाशक्ति क्षीण होती जाती है। इच्छाशक्ति की दुर्बलता मनुष्य में विभिन्न रोगों के उद्भव और विकास का कारण तथा आधार बन जाती है। मात्र चेतन मन के स्तर पर उपचार के प्रयास से रोग दूर नहीं हो पाते। चेतन मन में उभरी वृत्तियाँ तो हमारे संस्कारों के दर्पण में उभरे प्रतिबिम्ब मात्र हैं। परिष्कार का क्षेत्र तो वह संस्कार जगत ही है।

यह सही है कि कामवासना के दमन से विकृतियाँ ही पनपती बढ़ती हैं। लेकिन यह ‘काम’ की प्रचण्डता का नहीं, ‘मन’ की ही प्रचण्डता का परिणाम है।

हमारी स्वसंचालित गतिविधियों का सूत्र संचालन अचेतन मस्तिष्क से ही होता है। आकांक्षाओं के वेग को हठात् रोकने अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों के भावात्मक आघातों या अपमान के अनुभवों से अचेतन मन में कई तरह के अवरोध विकार उत्पन्न होते रहते हैं। “काम” सम्बन्धी आकांक्षा से उत्पन्न विकृतियाँ भी इसी का एक अंग हैं।

काम को मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों में से एक मान लेना एक हास्यास्पद भ्रान्ति ही है। युग ने फ्रायड की इस स्थापना पर कि “मानवीय इच्छाएँ-चेष्टाएँ प्रधानता काम वासना से प्रेरित निर्देशित है’, अपनी टिप्पणी यह की थी कि-फ्रायड का यह कथन, अन्तः करण और व्यवहार के बीच की एक धुँधली सी परत की चर्चा भर है। यह मन की वास्तविक स्थिति नहीं, उसकी काली कुरूप छाया मात्र है। मन में अनेक लहरें उठती रहती हैं। क्रिया प्रतिक्रिया की इन्हीं तरंगों में एक कामवासना की तरंग भी है। उसे चेतना की मूल प्रेरणा मानना भ्रान्ति ही है।”

मनोविज्ञान में किसी व्यक्ति की ही स्थापना को प्रमुखता देने वाले व्यक्तियों के भी मन का विश्लेषण अनिवार्य है। आज मनोविज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है; फिर भी अपनी आन्तरिक कुरूपता दुर्बलता को गरिमा मंडित करने की निर्लज्ज चेष्टा में निरत लोग फ्रायड की उक्त स्थापना की ही दुहाई दिए चले जाते हैं, जबकि स्वयं फ्रायड ने जीवन के अन्तिम दिनों में अपनी कई मान्यताओं का परिशोधन परिमार्जन किया था। हाव्स, एडम स्मिथ, मैक्ड्रगल, जेम्स, किल पेट्रिक, ड्रेवर, थार्नडाइक, वुडवर्थ आदि ने मूल प्रवृत्तियों का भिन्न भिन्न रीति से विभाजन किया है। बेब्लोनस्की का कथन है कि “मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ अनन्त आकाश के समान गुणातीत हैं।”

‘जीन्सवर्ग’ ने कहा है कि-मूल प्रवृत्तियाँ मनुष्य के अपनी और आकर्षित तो करती हैं, किन्तु वे ऐसी प्रचण्ड कदापि नहीं होती कि रोकने मोड़ने पर कोई अनर्थमूलक विग्रह खड़ा कर दें।”

अपनी पुस्तक “साइकोलॉजी एण्ड साइकोथेरेपी” में डा0 विलियम ब्राउन ने कहा है- “रियलिटी’ समय से परे है। वह समय से बाहर नहीं, समयातीत है। ‘रियलिटी’ की यह कालातीत होने की विशेषता ही हमें वह ‘स्वतन्त्रता’ देती हैं, जिसके कारण हम अपनी मूल-प्रवृत्तियों को नियन्त्रित कर सकते हैं। भौतिक विज्ञान की शब्दावली से मूल प्रवृत्तियों के नियन्त्रण की बात समझ में ही नहीं आ सकती। जहाँ तक भौतिक विज्ञान की वर्तमान पहुँच है, वहाँ तक ‘डिटर्मिनिज्म’ बिल्कुल सही है, उसके अनुसार मूल प्रवृत्ति का प्रकाशन अनिवार्य है। इसमें अन्यथा हम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन ‘रियलिटी’ दिक्कालातीत है और स्वरूप आध्यात्मिक (या चेतनात्मक स्प्रिचुअल) है। हम इसी ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतना के अंश हैं और इसी रूप में हम स्वतंत्र हैं। मनुष्य की इच्छाशक्ति स्वतन्त्र है, पर कैसे है, यह निरी भौतिक-विज्ञानी विधियों तथा शब्दावलियों द्वारा हम न समझ सके हैं, न कभी समझ सकेंगे

काम-कुटेवों समेत समस्त स्वेच्छाचारिता की प्रेरणा अचेतन मन से होती है। अचेतन मन पर अधिकार पाने के लिए इच्छा-शक्ति की महत्ता तथा स्वरूप को समझना आवश्यक होता है। हमारी सचेत मन का विस्तार इससे बहुत अधिक है।

स्नेह-प्रेम अभाव तथा जीवन में विफलता के गहरे बोध से व्यक्ति की जीवनी-शक्ति का प्रभाव सहज नहीं रह जाता और वह विकृत रूपों में व्यक्त होता है। यह विकृति चेतन मन के समक्ष जब पहली बार आती है, तो व्यक्ति की नैतिक मान्यता उसे सहन नहीं कर पाती और उसे ग्लानि होती है। यह ग्लानि संकल्प से जुड़ने पर सृजनात्मक हो सकती है। दिशा-निर्देश के अभाव में यह आत्मविश्वास हीनता को जन्म देती और इच्छाशक्ति से विकृतियाँ रुकती नहीं बढ़ती ही जाती हैं।

कामावेश जन्य विकृतियों से बचने के लिए एक उपाय यह भी सुझाया जाता है कि नैतिक मान्यताएँ ही इसके स्वच्छन्द प्रकाशन को अनुचित ठहराती तथा ग्लानि उत्पन्न करती हैं, अतः उन्हें ही ध्वस्त कर दिया जाये। किन्तु नैतिक मान्यताएँ इतनी मामूली वस्तु नहीं। वे हमारी प्रगतिशीलता का आधार हैं। वे विवेकपूर्ण हों, तभी नैतिक मानी जाएँगी और विवेक से उत्पन्न नैतिक मान्यताओं की अस्वीकृति का अर्थ है विवेक की अस्वीकृति । विवेक के बिना व्यक्ति विचित्र गतिविधियों का पिटारा मात्र बनकर रह जाएगा। उसे किसी भी कार्य में न तो बौद्धिक आस्वाद प्राप्त होगा, न ही हार्दिक उल्लास । तब जीवन में आनन्द की भी स्पष्ट अनुभूति न हो सकेगी ।

नैतिक मान्यताओं का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है। वे मात्र नियन्त्रण नहीं, प्रेरक-निर्देशक भी हैं। उनके बिना जीवन में किसी भी क्षेत्र में सार्थक क्रियाशीलता ही सम्भव न हो सकेगी। यह बात भारतीय विचारकों ऋषियों को अनादिकाल से स्पष्ट ज्ञात है। मनु ने कहा है -

“ध्यानिक ‘सर्वमेव एतद् यद् एतद्-अभिशब्दितम् न हि अनघ्यात्मवित्कश्चित् क्रियाफलं उपाक्षुते॥

अर्थात्-यह सम्पूर्ण ‘दृश्य जगत्’ आत्मा के ध्यान से ही प्रयोजित है। इसीलिए जो अध्यात्म को नहीं जानता, वह किसी भी क्रिया का सत्परिणाम नहीं प्राप्त कर सकेगा।’

अतः आवश्यकता काम वासना के दमन की नहीं, शमन का है। शमित काम शक्ति को पुण्य प्रयोजनों में नियोजित करने पर ही प्रचंड पुरुषार्थ सम्भव हो पाता है। मनुष्य की विभिन्न मनःशक्तियों का उत्कर्ष काम शक्ति के नियन्त्रण तथा संचय से ही हो पाता है। काम का अर्थ है विनोद, उल्लास, आनन्द। मैथुन उसका एक अत्यल्प, नगण्य सा अंग या माध्यम हो सकता है, अनिवार्य नहीं। मन ने इसे ही स्पष्ट किया है-

“अकामस्य क्रिया काचित्, दृश्यते नेह कर्हिचित्। काम्यो हि वेदाधिगमः, कर्मयोगश्च वैदिकः॥”

अर्थात्-काम रहित जीव की कोई क्रिया कदाचित कहीं देखने में नहीं आती। वेदाध्ययनादि सभी कुछ काम्य या इच्छा प्रेरित ही हैं।

अग्नि और सोम का प्राण तथा रयि का ऋणात्मक तथा धनात्मक विद्युतप्रवाह समन्वित होकर सृष्टि संचरण को अग्रगामी बनाता तथा उल्लास का निरन्तर विस्तार करता है। यह आनन्दोल्लास काम में शमित, शान्त सौम्य स्वरूप और शक्ति के सदुपयोग द्वारा ही उपलब्ध होता है। आवश्यकता ‘काम’ के अस्वाभाविक हठात् दमन को नहीं विकार और व्यभिचार के स्रोतों को बन्द करने की है। ताकि उस महाशक्ति का संगीत साहित्य, कला, के रूप में विकसित किया जा सके। धर्म से अविरुद्ध काम को गीता में भगवान ने अपना स्वरूप बताया है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार फलों में एक काम भी है। अस्तु उसे घृणित नहीं कहा जा सकता। इस बात की भी आवश्यकता नहीं कि उसे निरन्तर धिक्कारने और दबाने में ही लग रहा जाय। विवेक का नियन्त्रण भर रखने से काम चलाऊ हल निकल आता है और उच्छृंखलता की सीमा तक बढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु इस ‘महाशक्ति को निरर्थक भी क्यों जाने दिया जाय? उसे परिष्कृत किया जाना चाहिए। उल्लास के रूप में परिणत करने के कितने ही सौम्य प्रयोजन हैं, जो हमें हास-विलास विनोद, क्रीड़ा कौतुक के रूप में न केवल आनन्द देते हैं वरन् उत्साह, साहस और कौशल की वृद्धि भी करते हैं। काम भावना को इसी दिशा में परिष्कृत किया जा सके तो वह न तो विनाशकारी बनेगी और न अनैतिक रहेगी। उसे जीवन का उत्कृष्ट और आनन्दित बनाने के लिए बुद्धिमत्ता पूर्ण रीति से मोड़ा जाय तो वह हर दृष्टि से लाभदायक सिद्ध होगा।


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