संत सज्जनों की मनः स्थिति और आकांक्षा

September 1977

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इस संसार के दो महत्वपूर्ण आकर्षण हैं, एक सुख दूसरा सन्तोष। भौतिक दृष्टि सुख का चयन करती है, वैभव समेटती है और उस आधार पर शरीरगत वासना, मनोगत तृष्णा और अंतःक्षेत्र की अहंता की पूर्ति के लिए उस सम्पदा का उपयोग करती है। इस ललक में मनुष्य को स्वार्थी बनना पड़ता है। सुख उपभोग की आकांक्षा जब तक सीमित मर्यादित रहती है, तब तक मनुष्य प्रायः स्वार्थी ही बना रहता है, किन्तु जैसे ही वह अधिक प्रबल होने लगी वैसे ही मनुष्य दुष्ट दुराचरण पर उतारू हो जाता है। इसी आकांक्षा से आतुर व्यक्ति नर पशु से भी आगे बढ़कर नर पिशाच बनते देखे गये हैं।

शान्ति के अभिलाषी व्यक्ति सन्तोष का उपार्जन करते हैं। उन्हें सुखेच्छा पर अधिकाधिक नियंत्रण करना पढ़ता है। इससे शक्तियों की, साधनों की जो बचत होती है, उसे परमार्थ प्रयोजनों में लगाकर बदले में अन्तरात्मा की की शान्ति खरीदनी पड़ती है। जो शान्ति के अभिलाषी है, उन्हें सुखेच्छा सीमित करनी पड़ेगी, जो अमीरों जैसी विलासी सम्पन्नता के लिए आतुर हैं, उनके लिए आत्मशान्ति के लिए अभीष्ट परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ महत्वपूर्ण साहस कर सकना सम्भव ही नहीं होता ।

सज्जनों की सम्पदा सत्प्रवृत्तियाँ हैं। आदर्शवादी सत्कर्म ही उनका वैभव होता है। श्रेय पथ पर चलते हुए थे निरन्तर आनन्द मग्न बने रहते हैं। ऐसे सत्पुरुषों की मनः स्थिति एवं क्रिया-पद्धति के चित्रण, शास्त्रों में प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं-

भगवान बुद्ध ने अपनी लोकहित आकांक्षा व्यक्त करते हुए कहा था-

परान्तकोटिं स्थास्यामि सत्वस्यैकस्य कारणात्।

‘एक प्राणी के लिए भी सृष्टि के अन्त तक, कोटि-कोटि वर्षों तक मैं इस जगत में रहूँगा।’ -शिक्षासमुमच्चय 1

ग्लानानामस्मि भैषज्यं भवेयं वैद्य एव च। तदुपस्थायकश्चैव यावद्रोगोअपुनर्भवः॥

क्षुत्पिपासाव्यथाँ हन्यामन्नपानप्रवर्षणैः। दुर्भिक्षान्तरकल्पेषु भवेय पानभोजनम्॥

दरिद्राणाँ च सत्वानाँ निधिः स्यामहमक्षयः-नानोपरकणाकोरेरुपतिष्ठेयम्गत-बोधिचर्यावतार 3/7-9।

जो आतुर है, रोगी है, मैं उनके लिए, औषधि और वैद्य बनूँ, जब तक रोग दूर न हो जाय, मैं तब तक उनका परिचारक बनूँ। अन्न और पान वितरण करके मैं प्राणियों की क्षुधा और पिपासा की व्यथा को दूर करूं। अकाल आने पर मैं सबके भोजन पानी का आश्रय स्थान बनूँ। दरिद्र लोगों के लिए मैं अक्षय धन भण्डार बनूँ। यों नाना प्रकार की सामग्रियों को लेकर मैं उनके सामने उपस्थित रहूँ।

नाथ योनिसहस्त्रेषु येष येषु ब्रजाम्यहम्। तेषु तेष्वच्युला भक्ति रच्युतास्तु सदात्वयि।

या प्रीतिरविवेकानाँ विषयेष्वनपायिनी। त्वामनुस्मरतः सा में ह्नदयान्मापसपंतु-विष्णु पुराण

प्रह्लाद ने कहा- हे नाथ! हजारों योनियों में से मैं जिस जिस योनि को प्राप्त होऊँ, उस उस में ही मेरी भक्ति आप में सदैव अक्षुण्ण रूप से बनी रहे। जैसे अविवेकी जन विषयों में अविचल प्रीति रखते हैं, वैसे ही आप मेरे हृदय से कभी भी पृथक् न हों।

तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशों जनाः। परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः-श्री मद्भागवत

समदर्शी साधु लोगों के दुःखों को देख कर दुःखी होते हैं। इस अखिल ब्रह्माण्ड में व्यास उस अखिलेश्वर जनता रूपी जनार्दन की सेवा करने के निमित्त दुःख भोगना ही उनकी परम आराधना है।

मनसि वचसि कामे प्रेमपीयूष पूर्णा-स्त्रिभुवनमुपकार श्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुण परमाणून् पवर्ताकृत्य नित्यं-निज ह्नदि विकसन्तः संति संतः किवन्त-भतृहरिशतक

“जिनका मन प्रेम पीयूष से परिप्लावित हो, जिनकी वाणी प्रेममयी मधुमयी हो, जिनकी शारीरिक चेष्टाओं से प्रेम प्रकट होता हो और जो अपने उपकारों की बाढ़ से त्रिभुवन को बहाते से रहते हों और दूसरों के अणु-समान गुण को पर्वत के समान बना कर अपने हृदय को विकसित करते रहते हों, ऐसे इस धराधाम पर कितने हैं?


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