हकीम लुकमान तब एक उमराव के दास थे। लुकमान बहुत नेक, आज्ञाकारी और ईश्वर पारायण थे पर स्वामी कभी-कभी ईश्वर को भी भला-बुरा कह बैठता था, फिर भी वह लुकमान की कर्तव्य-परायणता के लिये वह भी उससे स्नेह रखता था।
एक दिन अमीर ने ककड़ी खानी चाही। उसने वैसे ही मुख में ककड़ी लगाई ऐसा जान पड़ा ककड़ी कड़वी है। उसने तुरन्त ककड़ी लुकमान को दे दी और कहा-ले इसे तू खा ले।” हकीम लुकमान ने ककड़ी ले ली और बिना कुछ ना-नू किये उसे चुपचाप इस तरह खा लिया जैसे वह कोई मीठी ककड़ी ही हो।
अमीर को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने पूछा-लुकमान इतनी कड़वी ककड़ी तुमने किस तरह खा ली?” लुकमान बोले-स्वामी आप प्रतिदिन मुझे स्वादिष्ट भोजन देते हो, एक दिन कड़वा दे दिया तो क्या उसे फेंक दूँ या उसके लिये आपको दोष दूँ। अपने प्यारे लोगों की चार मिठास में एक कड़ुवाहट भी हो तो क्या उसके लिये उसे दोषी ठहराना चाहिये।”
अमीर ने समझ लिया कि जो परमात्मा अनेक सुख देता है, यदि वह थोड़े से दुःख देता है तो उन्हें भी प्रसन्नतापूर्वक सहन करना चाहिये।