प्रार्थना ही नहीं पवित्रता भी

March 1969

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मनुष्य प्रार्थना करते हैं, पशु नहीं। क्योंकि मनुष्य ने पिता को पहचाना है, पशु ने नहीं। जो मनुष्य परमपिता की प्रार्थना नहीं करता वह सभी मनुष्य नहीं है। ऊपर से वह मनुष्य अवश्य है, लेकिन अन्दर से पशुओं की तरह जड़ और अज्ञान ही है, यदि कोई परमात्मा की प्रार्थना नहीं करता वह उसके दिये अनन्त अनुदानों की अवज्ञा करता है। प्रार्थना से हमारे हृदय के कलुष ही दूर नहीं होते हैं, परमात्मा के प्यार का असीम आनन्द मिलता है। वह तो उसके अतिरिक्त है, प्रार्थना उद्देश्य नहीं कर्तव्य है।

और हाँ, यदि प्रार्थना करने के लिये खड़े होते समय मन में किसी के लिये विरोध आये, किसी का अपराध स्मरण हो तो उसे प्रार्थना करने से पूर्व क्षमा कर देना चाहिये। अगर तुम ऐसा नहीं करते तो मन का विरोध और आत्मा का द्वेष, प्रार्थना के शब्द दूषित कर देंगे। संसार के जितने भी प्राणी हैं, वह तुम्हारी तरह ही परमात्मा के पुत्र हैं, तुम जिस तरह अपने दो पुत्रों को लड़ते-झगड़ते और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष करते रहते देखकर दुःख पाते हो उसी प्रकार परमात्मा भी तुम्हारी भावना और कर्तव्य रहित प्रार्थना से प्रसन्न नहीं होगा।

सब के दोष-दुर्गुण भूल कर सब की सेवा और उन्नति करना भी प्रार्थना है। यह प्रार्थना उन सब प्रार्थनाओं से अच्छी है, जिसमें भगवान् का नाम तो रहे पर अन्तःकरण की पवित्रता न रहे। प्रार्थना का बीज पवित्रता की ही भूमि पर अच्छी तरह अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होता है। उसी में अच्छे फल लगते है, उसी से मनुष्य को प्रार्थना का आनन्द मिलता है।

-सन्त तिलुवल्लुवर


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