‘अमरत्व’ और ‘इच्छा आयु’ असम्भव नहीं

March 1969

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प्राणी को संसार में सबसे बड़ा दुःख मृत्यु का है। निकृष्ट स्थिति के जीव कुत्ते, बिल्ली कौवे, सर्प गिलहरी, गधे तक भी मरना नहीं चाहते तो साधन सम्पन्न और अनेक विभूतियों के स्वामी मनुष्य को भला अमरता की इच्छा क्यों न होगी। मृत्यु से बड़ा शत्रु और भयास्पद वस्तु संसार में और दूसरी नहीं इसलिए उससे बचने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है।

प्रकारान्तर से प्राचीनकाल से आज तक इस बात के लिए विभिन्न प्रकार के यौगिक और वैज्ञानिक अनुसंधान करके मृत्यु पर विजय पाने के प्रयत्न किये गये हैं, उसमें पूर्ण सफलता भले ही उपलब्ध न हो पाई हो, किन्तु यह निश्चित हो चुका है कि अमरत्व असम्भव नहीं, निकट भविष्य में ही उतना नहीं तो यह सम्भव हो जायेगा कि मनुष्य अपनी आयु बढ़ाकर कई हजार वर्ष कर ले। ऐसा पहले होता था, हमारे यहाँ न्यूनतम आयु की सीमा सौ वर्ष मानी गई है और अधिकतम कोई रेखा नहीं मानी गई। पहले जो यौगिक उपलब्धियाँ की जा सकीं, उसके आधार पर यह भविष्यवाणी की गई थी कि मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है। इच्छानुसार अपनी आयु घटा बढ़ा सकता है। आत्मिक चेतना को यथावत रखकर शरीर के स्थूल (जलीय,पार्थिक, अग्नि आकाश और क्षितिजीय) परमाणुओं को बदल कर काया-कल्प शरीर में ही कल्पान्तों तक बना रह सकता है।

योग चूड़ामण्युपनिषद्, त्रिशिख ब्राह्मण उपनिषद् योग कुंडल्युपनिषद् में ऐसे अभ्यासों का वर्णन मिलता है, जिनसे अकाल मृत्यु का भय मिटकर दीर्घायु प्राप्त होती है। इस साधनों के अभ्यास से भारतीय लोग सदैव से मृत्यु ओर दीर्घ जीवन प्राप्त करते रहे हैं। यह अभ्यास उस सामान्य स्वच्छ ओर पवित्र जीवन से अलग हुआ करते थे, जिनका अभ्यास करके भी मनुष्य शतायु तो हो ही सकता है। वह सामान्य नियम शुद्ध और सात्विक आहार, काम-वासना, चिन्ता और उद्विग्नता से रहित जीवन, शुद्ध वायु और मादक वस्तुओं से बचना आदि है। इनसे आयु बढ़ती तो है पर उस सीमा तक नहीं, जिसके आश्चर्यजनक वर्णन योग-ग्रन्थों और पुराणों में मिलते हैं। उन्हें अत्युक्ति माना जाता है और अविश्वास किया जाता है, यदि आज के वैज्ञानिक उन बातों की सम्भावना स्वीकार न करते तो सम्भवतः आज का ड़ड़डड़ समाज भारतीय दर्शन को कोरी गप्प मानकर ही तिलाञ्जलि दे देता।

विज्ञान यह मानता है कि वृद्धावस्था कोई सनातन नियम नहीं तो वह तो एक रोग है और मनुष्य किसी भी रोग से बच सकता है। तात्पर्य यह कि वह वृद्धावस्था को निरन्तर दूर रखकर अमरत्व का सुखोपभोग कर सकता है। कुछ दिन पूर्व स्तालिन की जन्मभूमि जार्जिया के दीर्घजीवियों का वर्णन छपा था। इस छोटे से क्षेत्र में सौ और सौ से अधिक के 2100 व्यक्ति थे। ड़ड़डड़ बामीर बोगली इयाजोब उत्तरपूर्वी काकेशस के एक किसान की मृत्यु 11 अगस्त 1959 को हुई तब उसकी आयु 150 वर्ष थी। उनके सब मिलाकर 23 पुत्र-पुत्रियाँ ओर 150 नाती-नातिनें थी। सबसे बड़ी लड़की की उम्र 120 वर्ष थी।

उसी प्रकार दक्षिण पश्चिमी काकेशस में अबरवजिया प्रदेश में माक्सीर नूर नाम का पर्वतारोह 158 का होकर मरा उसका मित्र खापर नूर 155 वर्ष की आयु में उसकी शव यात्रर में सम्मिलित हुआ। जार्जिया के समीप आसेटिका शहर की टेल्से एवजिये नामक महिला 150 वर्ष और दाधेस्तान पहाड़ियों का सिउबोव पुझाक की आयु 1959 में 156 वर्ष थी, यूक्रेन और लूका दोनों भाइयों की आयु क्रमशः 123 और 120 वर्ष थी, उनकी बहन जीनिया की आयु 114 वर्ष थी।

इस तरह के आश्चर्यजनक समाचार सुनकर प्रसिद्ध जरा विज्ञानी डा० ईवान वेसीलेवीज ने इस प्रान्त का भ्रमण किया और वहाँ के रहन-सहन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद यह पता लगाया कि गहरी साँस लेने से शरीर में प्राण शक्ति की मात्रा बढ़ती है, वही दीर्घ और सशक्त जीवन का कारण है। तात्पर्य यह कि दीर्घायु के अनेक साधनों में आक्सीजन का पर्याप्त मात्रा में शरीर में सहयोग देना प्रथम साधन है। उसके लिये गहरी साँस लेना चाहिए।

पर इतने से अमरत्व की सम्भावना की पुष्ट नहीं किया जा सकता था। वैज्ञानिकों ने उसके लिए निरन्तर प्रयत्न जारी रखे और एक दूसरा कारण भी उनकी समझ में आया। हिमालय क्षेत्र में कुछ ऐसे भालू पाये जाते हैं जो ड़ड़डड़ शीत ऋतु सोकर काट देते हैं, उनका शरीर बर्फ में दबा पड़ा रहता है। जब गर्मी आती है, बर्फ पिघल कर हट जाती है और उनके ऊपर धूप पड़ती है तो रक्त संचार की गति फिर से तेज हो जाती है और रीछ उठ बैठता है। इस तरह वह सोया हुआ समय एक तरह से उनकी आयु में जुड़ता रहता है।

वैज्ञानिकों ने उसकी खोज करने के पश्चात् यह पाया कि शरीर को शून्य तापमान से भी यदि अधिक शीत अवस्था में रखा जाता है तो मनुष्य चेतना शून्य हो जाता ड़ड़डड़ पर भीतरी शारीरिक गतिविधियों मन्द गति से चलती रहती हैं, ऐसी अवस्था में यदि उसके किसी हाथ-पाँव के हिस्से को काटा भी जाये तो रक्त की तेज धार निकलने की अपेक्षा 1-1 बूँद कठिनाई से निकलेगी अर्थात् शरीर ड़ड़डड़ सब तन्तु पूर्ण विश्राम कर रहे होंगे ओर उतना विश्राम मिलने से उनके शरीर का जीवन क्षमता यदि बढ़ेगी नहीं तो घटेगी भी नहीं, अर्थात् उस अवस्था का लाभ यह होगा कि मनुष्य की उतनी आयु बढ़ जायेगी। लेकिन इससे भी अमरत्व की साध पूरी नहीं हुई।

अब वैज्ञानिकों ने औषधियों की खोज प्रारम्भ की। ड़ड़डड़ जैसी अनेक दवाओं की खोज की, उनसे बीमारियों पर विजय भी मिली और आयु भी बढ़ी पर औषधिशास्त्रियों ने पाया कि औषधियों में जीवन क्षमता बढ़ाने की क्षमता तो है पर उसकी भी एक सीमा है। दवायें ड़ड़डड़ (मेच्योर्डनेस) को रोक नहीं पातीं, इसलिए शरीर में वृद्धावस्था गतिशील रहती है और भले ही 200 तक खींच लिया जाय पर मृत्यु तो एक दिन आ ही जाती है।

इन तमाम खोजों का निष्कर्ष यह निकला कि वाह्य उपकरणों और साधनों से अमरत्व की कल्पना नितान्त असम्भव है, क्योंकि शरीर के भीतर अपने आप स्वतः सम्पन्न होने वाली हलचलों पर इनके द्वारा नियन्त्रण नहीं प्राप्त किया जा सकता है तो भी इस तरह की शोधों से वैज्ञानिक शरीर विज्ञान की गहराइयों में अवश्य जा पहुँचे। भारतीय मत की पुष्टि के लिए यह महत्त्वपूर्ण अध्याय का श्रीगणेश था।

वैज्ञानिकों ने बड़ी सावधानी देखा कि जब बच्चा पैदा होता है, तब उसके शरीर में लगभग 1400 करोड़ शिराकोष्टक होते हैं। मृत्यु के समय भी शिरा कोष्ठकों की संख्या इतनी ही रहती है पर वे जीर्ण -शीर्ण हो जाते हैं, इससे इस सिद्धान्त की पुष्टि हुई कि यदि शिराकोष्ठकों को सशक्त और बलवान रखा जा सके तो मनुष्य अपनी इच्छानुसार आयु का उपयोग कर सकता है।

शिरा (नर्व्स) कोष्टक (सेल्स) सारे शरीर में फैलता है, वैज्ञानिकों का अनुमान है कि शिरा अवस्था पर नियंत्रण न रहने के कारण कोष्टक अपनी शक्ति स्थिर नहीं रख पाते, उसी के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी बीमारियाँ होती है। सामान्य आहार की अवस्था में भी जब कोई रोग नहीं होता, तब भी कोष्ठकों की शक्ति मन्द होती जाती है। आहार की विभिन्न स्थितियों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिक इस पर पहुँचे कि यदि कोष्ठकों को पूर्ण प्राकृतिक अवस्था में रखना है तो जो यौगिक और तत्त्व प्रकृति में हैं, वही आहार रूप में शरीर में पहुँचने चाहिये।

निष्कर्ष

जब मनुष्य अप्राकृतिक अर्थात् पक्का, भुना, तला, मिर्च-मसाले नमक, चीनी वाला आहार लेता है तो उन यौगिकों में घट-बढ़ होने से कोष्टक अपनी आकृति और क्षमता बदलने लगते हैं, उनमें गन्दगी का अंश बढ़ने से कई रोग हो जाते हैं। वैज्ञानिक लैण्डस्टोमर ने रक्त प्रणाली का विस्तृत अध्ययन करके यह बताया कि एक शरीर का रक्त दूसरे शरीर के रक्त से इसलिये मेल नहीं खाता कि लाल रक्ताणुओं में कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो सीरस (केमिकल आफ सेल) के कुछ तत्त्वों के प्रतिघाती (उलटी) समानता रखते हैं, उसने ऐसे रक्ताणुओं को ‘एग्ल्यु टिनोजीन्स और सीरम को’ ‘एग्ल्यु टिनिन्स’ कहा और बताया कि इन दोनों के मिलने से शरीर को नुकसान की विकृति दूर करने के प्रत्यन्न में दवाओं का अनुसंधान करते रहे।

जब तक जो अनुसन्धान हो चुके हैं, उनमें सेल्स के प्रोटीन को बदलकर पुनः उसे स्वस्थ कोष्टक में बदल देने पर विजय प्राप्त की जा चुकी है, उससे न केवल रोगों पर पूर्ण विजय की सम्भावना सुनिश्चित हो गई है, वरन् अमरता की आधी मंजिल पार कर ली गई, ऐसा विश्वास विज्ञान के मूर्धन्य क्षेत्र में किया जाने लगा है।

अभी शिरा व्यवस्था के विस्तृत अध्ययन की बात अधूरी है, उसे जान लेने पर क्या मृत्यु पर विजय सम्भव हो जायेगी? इसका सही उत्तर देने की स्थिति में पाश्चात्य विज्ञान अभी नहीं है, चाहें तो वे इस सम्बन्ध में भारतीय योग्य आचार्यों की सहायता ले सकते हैं, उसके बिना पूर्ण सफलता संदिग्ध ही रहेगी।

एक बार भारतीय योग-विद्या के प्रसिद्ध खोजी डा. पाल ब्रंटन ने मनुष्य की अमरता के प्रश्न को लेकर योगी ‘ब्रह्म सुगन्ध’ से विस्तृत चर्चा की। योगी ब्रह्म सुगन्ध ने उन्हें शारीरिक प्रतिक्रियाओं का विस्तृत विज्ञान सम्मत परिचय कराते हुए बताया कि मनुष्य के मस्तिष्क के अन्दर एक क्षुद्र छिद्र (ब्रह्मरंध्र) होता है, इसे हम आत्मा का (शरीर की मूल चेतना) का निवास स्थान मानते हैं। इस छिद्र के चारों ओर एक खोल होता है, जिससे उसकी रक्षा होती है।

रीढ़ के नीचे चिक स्थान के अत्यन्त निकट अदृश्य जीवन प्रवाह बहता है, इस प्रवाह के सतत् क्षय होने से ही मनुष्य बूढ़ा होता है। यदि इस पर नियन्त्रण किया जा सके तो मनुष्य की आयु पर पूर्ण नियंत्रण कर सकता है। यह जीवन प्रवाह शरीर के विभिन्न अंगों में बहता हुआ व्यय होता है। यौगिक क्रियाओं द्वारा उसे रोककर रीढ़ के ऊपरी भागों में चढ़ाया और मस्तिष्क के अन्दर उस छोटे छिद्र में केन्द्रीभूत किया जा सके तो जीवन दीर्घायु और अमरत्व में बदल सकता है।

ब्रंटन श्रद्धावादी नहीं थे, वे भी आज की तरह विशुद्ध विज्ञान की दृष्टि से तथ्यों को परखना चाहते थे इसलिए उन्होंने कहा ऐसी स्थिति में भी यदि शरीर पर नियंत्रण रखा जा सकता है तो क्या आप उसे करके नहीं दिखा सकते। आप अपने रक्त पर अपने अधिकार की क्रिया दिखाये तो मैं मानूं कि आपकी बात सच है।

ब्रह्म सुगन्ध हँसे और अपनी कलाई की घड़ी उतार कर ब्रंटन को दे दी और कहा-” अब आप मेरी कलाई पर हाथ रखकर देखिये।” ब्रंटन के हाथ से उनकी नाड़ी पकड़ी तब वह ठीक चली रही थी। धीरे-धीरे वह मन्द पड़ने लगी, तीन मिनट बाद नाड़ी की गति बिल्कुल बन्द हो गई तो भी योगी पहले की तरह ही जीवित थे। 4-5 मिनट तक इस स्थिति में रहने के बाद फिर धीरे-धीरे नाड़ी में गति आ गई।

इसके बाद ब्रह्म सुगन्ध ने एक विशेष आसन किया और चुपचाप सीधे बैठ गये। थोड़ी देर में हृदय की गति धीमी होते -होते बिलकुल रुक गई। ब्रंटन महाशय आश्चर्य चकित रह गये।

इसके बाद तीसरा प्रयोग उन्होंने ने किया। ब्रंटन का हाथ अपनी नासिका के छिद्रों के पास लगवाया। धीरे-धीरे भीतर की सारी साँस निकाल दी, सारा शरीर पत्थर की तरह कड़ा हो गया। शरीर में से न साँस आ रही थी, न जा रही थी। ब्रंटन यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये। इसके बाद ब्रह्म सुगन्ध फिर अपनी सामान्य स्थिति में आ गये। उन्होंने बताया-” यदि मनुष्य अपनी मूल चेतना पर नियंत्रण कर ले तो शरीर की सारी अशक्ति पैदा करने वाली प्रणाली को शुद्ध रखा जा सकता है। उस स्थिति में समाधिस्थ होकर ध्यानावस्था में ही विश्व ब्रह्माण्ड में भ्रमण और अलौकिक दर्शन किया जा सकता है, यदि शरीर को किसी बर्फीले स्थान में सुरक्षित रखा जा सके, हिमालय जैसे शीतल एवं दिव्य तत्त्वों से परिपूर्ण वातावरण में रहा जा सके तो मनुष्य अपनी आयु कई हजार वर्ष तक बनाये रख सकता है। यह सब विज्ञान और योग दोनों के सामंजस्य से हो सकता है। इसमें अब सन्देह नहीं रहा।


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