अपनों से अपनी बात- - हमारे पांच पिछले और पांच अगले कदम

March 1969

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अपनों से अपनी बात का क्रम बारी रखते हुए आत्मकथा तो नहीं कहेंगे पर अपनी अनुभूतियों की चर्चा इसलिए करेंगे कि वे जहाँ हमारा मन हल्का करती हैं वहाँ सुनने वालों के लिए भी प्रेरणाप्रद है। आत्मकथा कहने के लिए कई परिजन आग्रह करते रहते हैं पर उसे पूर्णरूपेण बता सकना तब तक लोकहित की दृष्टि से उचित न होगा, जब तक हमारा शरीर जीवित है। छिपाना हमें किसी से कुछ नहीं पर यह तो ध्यान रखना ही है कि हमारी कोई विशिष्ट परिस्थितियों की उपलब्ध हुई अनुभूति दूसरों के लिए उचित मार्ग-दर्शन करेगी या अनुचित।

छिपाव वाले हमारे जीवन पक्ष की अगणित घटनायें इस स्तर की हैं, जिन्हें चमत्कारपूर्ण कहा जा सकता है। कुछ उच्च भूमिका में विकसित तपस्वी सिद्ध पुरुषों की अलौकिकताएँ हमने देखी हैं। उनका वर्णन करना तभी उचित है, जब उन घटनाओं की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके अन्यथा लोग उस वर्णन को असत्य कहेंगे और व्यर्थ का वितन्डावाद बढ़ेगा। समय आ रहा है, जब मनुष्य में छिपी अगणित शक्तियों का प्रकटीकरण सम्भव होगा, उस स्थिति के न आने तक उन वर्णनों का न करना ही ठीक है ताकि तर्क बुद्धि वालों को असत्य किम्वदन्तियाँ फैलाने का आक्षेप न लगाना पड़े और कुछ धूर्त जो बाजीगरी की तरह चमत्कार सुना, दिखाकर उल्लू सीधा करते रहते हैं- अपने समर्थन में हमारे कथन को प्रस्तुत करने का अवसर न मिले।

छिपाव का दूसरा पक्ष वह है, जिसमें हमने किन्हीं के लिए अपनी तपश्चर्या के छोटे-बड़े अंश दिये और उनसे उन्हें आश्चर्यजनक भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ हुए। इनका वर्णन हमें अपने मुँह से नहीं करना है। विज्ञापन से दान का महत्व नष्ट हो जाता है। फिर जो लोग उन महानताओं को भुला बैठे हैं, उन पर अहसान थोपना और याद दिलाना भी उचित नहीं। दूसरे अपना अहंकार बढ़ सकता है। तीसरे वे लोग हमें और भी अधिक घूरने लग सकते हैं, जो आशीर्वाद को जबानी जमा-खर्च मानते हैं और सोचते हैं कि उनकी जुबान हिलाने भर का बोझ पड़ेगा और हमारा काम बन जायेगा। वस्तुतः होता यह है कि जीभ हिलाकर कोई आशीर्वाद न तो दिया जा सकता है और न वह सफल होता है।

इस प्रकार के प्रत्येक अनुदान के पीछे बहुत अधिक शक्ति व्यय करनी पड़ती है और कई बार तो वह कितने ही वर्षों की अति कष्टपूर्वक उपलब्ध की हुई कमाई होती हैं। लोग तो लोग हैं, उन्हें न तो दूसरे के त्याग का मूल्य समझना है और न कम से कम कृतज्ञ मनोभूमि तक बनाये रखना है। मुफ्त की चीज का कोई आखिर कुछ मूल्य समझे भी क्यों? जब मुफ्त में ही - दर्शन करने, पैर छूने माला पहना देने मात्र से बहुमूल्य अनुदान मिल सकते हैं तो उन्हें पाने का लोभ कोई क्यों संवरण करे? भीड़ ऐसे ही लोगों की जमा अभी भी होती है। पीछे तो उसकी ऐसी बाढ़ आयेगी कि उससे पिण्ड छुड़ाना कठिन हो जायेगा व अपने जीवनोद्देश्य की बात कहने तक का अवसर न मिलेगा। यों सुनता तो कोई अभी भी नहीं है पर यदि हमारे द्वारा सम्भव दिव्य सहायताओं का अधिक निश्चित हो जाये तब तो हर सम्बन्धी उसी की रट लगाएगा। हमारी बात सुनने, समझने का तो उसका उतावला मन तैयार ही न होगा। इस झंझट से बचने के लिए जितना प्रकट हो चुका है, उतना ही पर्याप्त मान लिया है, उससे अधिक जो अधिक आश्चर्यजनक एवं अलौकिक है छिपाये ही रखा है। पूरी आत्मकथा न बताने में कोई ऐसे दुराचरण कारण नहीं हैं, जिनकी चर्चा करते हमें लज्जा और ग्लानि का अनुभव हो सफेद कपड़ा पहनकर आये और बिना दाग-धब्बे की चादर लेकर विदा हो रहे हैं। सज्जन ओर सहृदय व्यक्ति की जिन्दगी हमने जी ली। कर्तव्यों की अवहेलना और नैतिक मर्यादाओं के उल्लंघन का कोई ऐसा अवसर अब तक नहीं आया जिसे छिपाने की आवश्यकता पड़े।

कुछ ऐसे कारण एवं अनुभव भी छिपाव के कारण हैं जो अभी परिपुष्ट नहीं हुए और जिन्हें चुनौती देकर सिद्ध करने की स्थिति परिपक्व नहीं हुई। जैसे यह एक तथ्य है कि हमने अपनी चेतना के पाँच स्तरों- अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनन्दमय इन पाँच कोशों को गायत्री की उच्चस्तरीय उपासना के आधार पर एक सीमा तक विकसित किया है और उनसे पाँच स्वतन्त्र व्यक्तियों की तरह काम लिया है। फिर भी यह स्थिति उतनी पक्की नहीं कि उसका सदा सार्वजनिक परीक्षण कराके एक अभिनव सिद्धान्त की पुष्टि का आधार प्रस्तुत किया जा सके। सम्भव है कुछ समय में- शायद इसी जीवन में वह स्थिति आ जाय कि हम अपने को संसार के सामने परीक्षण के लिए प्रस्तुत करें कि एक ही शरीर के भीतर पाँच सत्तायें एक ही समय में पाँच व्यक्तियों का काम कैसे निपटा सकता है।

परिजनों में से हर कोई जानता है कि 16 से 40 तक की आयु हमने प्रतिदिन 6 घण्टे रोज गायत्री उपासना में बिताई। यह 18 वर्ष ही ऐसे रहे हैं, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर कुछ काम किया है। इस थोड़ी अवधि में हमारे पाँच प्रमुख कार्य हुए हैं- (1) भारतीय धर्म के आर्ष साहित्य का आदि से अन्त तक सरलीकरण एवं संसार भर में प्रसार, (2) गायत्री महाविद्या का अन्वेषण उसका विश्वव्यापी विस्तार, 50 लाख व्यक्तियों को नैष्ठिक उपासना की शिक्षा-दीक्षा चार हजार शाखाओं वाले गायत्री परिवार संगठन का सृजन, गायत्री तपोभूमि जैसी अनुपम संस्था का निर्माण, (3) गायत्री यज्ञ के माध्यम से धर्म भावनाओं का व्यापक उभार, देशभर में हजारों विशालकाय सम्मेलन, मथुरा का वह सहस्र कुण्ड गायत्री यज्ञ जिसमें 4 लाख व्यक्ति एकत्रित हुए थे। उस शृंखला का अभी भी अति उत्साह के साथ प्रचलन। (4) युग-निर्माण योजना का जन-मानस परिवर्तन एवं विचार-क्राँति का विश्व-व्यापी अभियान, इस सन्दर्भ में लगभग 500 पुस्तकों का लेखन, दो पत्रिकाओं का मथुरा से प्रकाशन, 7 हजार झोला पुस्तकालयों का प्रचलन, नव-निर्माण के विशाल साहित्य का संसार की प्रमुख भाषाओं में अनुवाद प्रकाशन। इस प्रयोजन में हजारों कार्यकर्ताओं का समावेश। (5) सतत तप-साधना द्वारा उपार्जित शक्ति का सत्पात्रों की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुदान की व्यवस्था।

यह पाँचों ही कार्य इतने बड़े परिणाम में हुए हैं और उनकी शाखा, प्रशाखाएँ इतनी अधिक फूटी हैं कि उनमें से प्रत्येक की कम से कम एक शरीर द्वारा करने पर कम से कम साठ-साठ वर्ष का एक पूरा जीवन लगना चाहिये। पाँच अति परिष्कृत व्यक्ति सारे जीवन उस कार्य में पूरी तरह लगें और उनके पास विपुल साधन हों तभी यह कार्य सम्भव हो सकते हैं। एक व्यक्ति मात्र 18 वर्षों में उन्हें किसी भी प्रकार नहीं कर सकता। इतने पर भी यह कार्य जिस सफलता से हुए उनका रहस्य यही है कि दिखने में एक शरीर द्वारा यह कार्य होते रहते हैं, वस्तुतः एक ही घोंसले में बैठे रहने वाले पाँच पक्षी पाँच दिशाओं में उड़ कर पाँच प्रयोजन पूरे करते रहे थे। इस अचम्भे से भरी सचाई के अनेक प्रमाण ऐसे हे जो अगले ही दिनों इस वस्तुस्थिति को प्रकट कर देंगे पर अभी इस स्थिति में परिपक्वता नहीं आई और प्रकटीकरण की आज्ञा नहीं मिली। इसलिए उस तथ्य को सार्वजनिक रूप से उद्घोषित नहीं किया गया और न उसकी प्रामाणिकता के लिए चुनौती दी गई है।

ऐसे ही कुछ कारण हैं जिनको समग्र आत्मकथा कह सकना सम्भव न होगा पर जो लोकहित में है, उस सभी को परिजनों से कह कर जायेंगे, उससे भले ही किसी का लाभ न भी होता पर हमें अपना चित्त हल्का कर लेने और दूसरों की जानकारी में एक कड़ी जोड़ देने का अवसर तो मिल ही जायेगा। हमारे जीवन के रहस्यमय भाग बाद में प्रकट हों यह दूसरी बात है पर अभी तो इतना ही पर्याप्त होगा कि हमारे अनुभवों, निष्कर्षों और अभिव्यंजना का जान लिया जाय।

पिछले दिनों की भाँति ही अगले पाँच कार्य हमारे सामने हैं। ये पिछलों की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इनकी थोड़ी चर्चा इन पंक्त्तियों में कर देना कुछ अनुपयुक्त न होगा।

(1) हमारी एक ही प्रमुख सम्पदा है-प्यार इसी के बल पर तप, संतोष, विवेक, सेवा, स्वाध्याय, श्रम आदि अन्य सद् प्रवृत्तियों को स्थिर रूप से प्राप्त करने का अवसर मिला है। आत्म-विश्लेषण चिन्तन, मनन और अन्तःमन्थन के आधार पर यह सुनिश्चित रूप से कह सकते हैं कि हमें यदि अन्तरंग विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं और उनके आधार पर बाह्य जगत में कुछ हलचलें उत्पन्न करने का अवसर मिला है तो इसका एक मात्र कारण हमारे अन्तःकरण में आदि से अन्त तक लबालब भरा हुआ प्यार ही है। ईश्वर को माध्यम बनाकर उसकी कृषि की गई और जब वह उगा और फला तो उसका प्रकाश निकटवर्तियों से लेकर दूरवर्तियों तक व्यापक क्षेत्र में फैला। दूसरों ने उससे लाभ उठाया और हम स्वयं स्वर्गीय उल्लास की अनुभूति हर घड़ी करते रहे। उसी आवेश में लोक-सेवा और आत्मबल संवर्धन के वे कार्य बन पड़े जो वस्तुतः तुच्छ हैं पर दूसरे उन्हें बहुत बढ़ा-चढ़ा देखते हैं।

गायत्री-उपासना जीवन-साधना नव-निर्माण आदि की कई शिक्षायें परिजनों को देते चले आ रहे हैं, अब विचार है अगले दो-ढाई वर्षों में प्रेम को अन्तरंग में उगाने और उसे विकसित करने की अपनी अनुभूतियाँ भी लोगों को बतायें और इस अमृत को उपलब्ध करने की शिक्षा देते चलें। यह साहित्य का नहीं समीपता का विषय है, सो सोचते हैं कि जितने अधिक परिजनों से, जितने अधिक समय तक सान्निध्य और सामीप्य सम्भव हो प्राप्त करें और अपनी छूत दूसरों को भी लगाते चलें। लोग प्यार करना सीखें। हममें, अपने आपमें, अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में, कर्तव्य में और ईश्वर में - दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती हुई प्रतिध्वनि का भाव भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।

इच्छा है जिस प्रकार भी सम्भव हो, अपने परिवार को अपनी इस मूल प्रवृत्ति से परिचित करें और जहाँ जितनी मात्रा में सम्भव हो, इस अमृत उद्भव के क्रिया-कलाप को आगे बढ़ाने में पूरा-पूरा सहयोग करें। प्रेम की विभूति के यदि थोड़े-थोड़े कण भी लोग उपलब्ध कर सकें तो निश्चय है कि देवत्व उनके चरणों में दौड़ता चला आयेगा। उपाय सोचेंगे और ढूँढ़ेंगे कि किस प्रकार अपने परिवार में प्रेम की प्रवृत्ति का अधिकाधिक उद्भव और अभिवर्धन सम्भव है। जो सूझेगा उसे पूरी तत्परता से कार्यान्वित करेंगे, नये मानव का - नये विश्व का तत्त्व-दर्शन यह प्रेम धर्म ही तो होगा।

(2) अगले ढाई वर्षों में युग-निर्माण योजना की मजबूत आधारशिला रख जाने का अपना मन है। यह निश्चित है कि निकट भविष्य में ही एक अभिनव संसार का सृजन होने जा रहा है। उसकी प्रसव पीड़ा में अगले दस वर्ष अत्यधिक अनाचार उत्पीड़न, दैवकोप, विनाश और क्लेश, कलह से भरे बीतने हैं। दुष्प्रवृत्तियों का परिपाक क्या होता है, इसका दण्ड जब भरपूर मिले लेगा, तब आदमी बदलेगा यह कार्य महाकाल करने जा रहा है। हमारे हिस्से में नवयुग की आस्थाओं और प्रक्रियाओं को अपना सकने योग्य जन-मानस तैयार करना है। लोगों को यह बताना है कि अगले दिनों संसार का एक राज्य, एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति, एक कानून, एक आचरण, एक भाषा और एक दृष्टिकोण बनने जा रहा है, इसलिए जाति, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि की संकीर्णताएँ छोड़ें और विश्व-मानव की एकता की, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना स्वीकार करने के लिए अपनी मनोभूमि बनायें।

लोगों को समझाना है कि पुराने में सार भाग लेकर विकृतियों को तिलाञ्जलि दे दें। लोक-मानस में विवेक जागृत करना है और समझाना है कि पूर्व मान्यताओं का मोह छोड़कर जो उचित उपयुक्त है केवल उसे ही स्वीकार शिरोधार्य करने का साहस करें। सर्वसाधारण को यह विश्वास करना है कि धन की महत्ता का युग अब समाप्त हो चला, अगले दिनों व्यक्तिगत सम्पदायें न रहेंगी, धन पर समाज का स्वामित्व होगा। लोग अपने श्रम एवं अधिकार के अनुरूप सीमित साधन ले सकेंगे। दौलत और अमीर दोनों ही संसार से विदा हो जायेंगी। इसलिए धन के लालची बेटे-पोतों के लिए जोड़ने-जाड़ने वाले कंजूस अपनी मूर्खता को समझें और समय रहते स्वल्प संतोषी बनने एवं शक्तियों को संचय उपयोग से बचाकर लोकमंगल की दिशाओं में लगाने की आदत डालें। ऐसी-ऐसी बहुत बातें लोगों के गले उतारनी हैं, जो आज अनर्गल जैसी लगती हैं।

संसार बहुत बड़ा है, कार्य अति व्यापक है, हमारे साधन सीमित हैं। सोचते हैं एक मजबूत प्रक्रिया ऐसी चल पड़े जो अपने पहिये पर लुढ़कती हुई - उपरोक्त महान् लक्ष्य को सीमित समय में ठीक तरह पूरा कर सके। युग-निर्माण योजना का केन्द्र-बिन्दु अभी गायत्री तपोभूमि में बनाया है। इसे अगले दिनों समस्त विश्व में, अगणित योजनाओं और प्रक्रियाओं के रूप में विकसित होना है, सो विचार यह है कि अगले ढाई वर्षों में इतने व्यक्ति, इतने साधन और इतने सूत्र उपलब्ध हो जाएँ, जिससे जिससे हमारी सन् 2000 तक चलने वाली तीस वर्षीय योजन का क्रम विस्तार नियत निर्धारित गति से यथावत होता रहे। इन ढाई वर्षों में ऐसा साधन तन्त्र खड़ा कर देंगे, जो नव-निर्माण की - विचार-क्रिया की-असम्भव को सम्भव बनाने की-विश्व के कायाकल्प की भूमिका सफलतापूर्वक सम्पादित कर सके।

(3) उपरोक्त दो कार्य ऐसे हैं, जो ढाई वर्षों में संतोषजनक स्थिति पकड़ लें। तीन काम ऐसे हैं, जो यहाँ से चले जाने के बाद आरम्भ करेंगे और तब तक उसी प्रकार चलाते रहेंगे, जब तक यह शरीर जीवित रहेगा। ऐसे कार्यों में पहला उग्र तपश्चर्या, दूसरा लुप्त प्रायः अध्यात्म की शक्ति, विद्या की शोध-साधना तीसरा है, परिजनों की अभीष्ट सहायता। हम जहाँ कहीं भी रहेंगे, वहीं से उपरोक्त तीन कार्य अनवरत रूप से करते रहेंगे।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पिछले दिन, रामकृष्ण परमहंस, योगी अरविन्द और महर्षि रमण की अनुपम साधनायें भारत के भाग्य परिवर्तन के लिए हुई। उनमें सूक्ष्म वातावरण को ऐसा गरम किया कि कितने ही आश्चर्यजनक चक्रवात अनायास ही प्रकट हो गये। पिछले थोड़े ही दिनों में भारत ने उच्चकोटि के नेता दिये जिनकी तुलना अन्यत्र नहीं मिलती। इन महामानवों ने जनता को आश्चर्यजनक उत्साह दिया और असम्भव लगने वाली राजनैतिक स्वतन्त्रता सम्भव करके दिखा दी। अभी भाग्य निर्माण का अधिकार मात्र मिला है। अभी करना तो सब कुछ बाकी पड़ा है।

भारत को अपना घर ही नहीं सम्भालना है। हर क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व भी करना है। इसके लिए उपयुक्त स्थिति उत्पन्न कर सकने वाले ऐसे महामानवों की आवश्यकता है, जो स्वतन्त्रता संग्राम वालों से भी अधिक भारी हों। लड़ने से निर्माण का कार्य अधिक कुशलता और क्षमता का है, सो हमें अगले दिनों ऐसे मूर्धन्य महामानवों की आवश्यकता पड़ेगी, जो अपने उज्ज्वल प्रकाश से सारा वातावरण प्रकाशवान कर दें।

इसके लिए उपरोक्त तीन तपस्वियों की बुझी पड़ी परम्परा को फिर सजीव करना है और सूक्ष्म लोक को फिर इतना गरम करना है कि उसमें से उत्कृष्ट स्तर के महामानव पुनः अवतरित हो सकें। गंगावतरण के लिए भागीरथ का तप आवश्यकता था, नये युग की सुधा-सरिता का अवतरण भी ऐसे ही तप की अपेक्षा करता है। देवत्व को निगल जाने वाले वृत्तासुर का वध दधीचि के अस्थि-पिंजर से बने वज्र की अपेक्षा करता था। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का अनाचार पिछले रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि से भी बड़ा-चढ़ा हैं, उसका निराकरण भी पूर्वकाल जैसे अस्थि वज्र की अपेक्षा करता है, हमें इसके लिए आगे बढ़ना होगा, जो बढ़ भी रहे हैं। अगले दिन जिन महान् प्रयोजन के लिए समर्पित होने जा रहे हैं उसे देखते हुए-वर्तमान विरह वेदना के बावजूद-हमें और हमारे परिवार को गर्व ही होगा कि हमारे कदम जिधर बढ़े वे उचित और आवश्यक थे।

(4) वर्तमान भौतिकवादी मनोवृत्तियों का विकास भौतिक विज्ञान क साथ-साथ हुआ है। विज्ञान सदा मनुष्य के भौतिक और आत्मिक जीवन को प्रभावित करता है। आधुनिक विज्ञान का आधार भौतिक है, ‘फलतः उसका भावनात्मक प्रभाव भी वैसा ही होना चाहिये। आज लोग भौतिक दृष्टि से सोचते हैं और इन्हीं आकांक्षाओं से प्रभावित होकर अपनी गतिविधियों निर्धारित करते हैं। यही है आज की विपन्न परिस्थितियों का विश्लेषण। प्राचीनकाल में अध्यात्मवाद का प्रचलन था। आत्मा की अनन्त शक्ति का प्रयोग करक लोग अपनी आन्तरिक और भौतिक प्रगति का पथ प्रशस्त करते थे, तब लोक मानस भी वैसा ही था और रीति-नीति में आध्यात्मिक आदर्शों का समावेश रहने से सर्वत्र स्वर्गीय सुख-शान्ति विराजती थी।

हमारे प्राचीन अध्यात्म की केवल ज्ञान शाखा जीवित है। विज्ञान शाखा लुप्त हो गई। धर्म, नीति, सदाचरण आदि की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ एवं प्रवक्ता तो मौजूद है पर उस विज्ञान की उपलब्धियाँ हाथ से चली गयी जो शरीर में विद्यमान् अन्नमय,मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय शक्ति-कोशों की क्षमता का उपयोग करके व्यक्ति और समाज की कठिनाइयों को हल कर सकें। पातंजलि योग दर्शन, मंत्र महार्णव, कुलार्णव तंत्र आदि शक्ति विज्ञान के ग्रन्थ तो कई है पर उनमें वर्णित सिद्धियों को जो प्रत्यक्ष कर दिखा सके, ऐसा मिश्रित साधन नहीं के बराबर शेष गये हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि उन लुप्त विद्याओं को फिर खोज निकाला जाय और उसे सार्वजनिक ज्ञान के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाय कि प्राचीनकाल की तरह उसका उपयोग सुलभ हो सके। ऐसा सम्भव हुआ तो भौतिक विज्ञान को परास्त कर पुनः अध्यात्म विज्ञान की महत्ता प्रतिष्ठापित की जा सकेगी और लोकमानस को उस सतयुगी प्रवाह की ओर मोड़ा जा सकेगा जिसकी हम अपेक्षा करते हैं।

हिमालय गंगातट, एकांत, जन-सम्पर्क पर प्रतिबन्ध जैसी कष्ट साध्य गतिविधियाँ अपनाने के पीछे एक रहस्य यह भी है कि वह प्रदेश एवं वह वातावरण ही उच्च आध्यात्मिक स्तर की शोधों के लिये उपयुक्त हो सकता है। स्थान की दृष्टि से वह स्थान अध्यात्म शक्ति तत्त्वों का ध्रुव केन्द्र या हृदय ही कहा जा सकता है, जहाँ हमें अगले दिनों जाना, रहना हैं वहाँ ऐसी विभूतियाँ अभी जीवित है, जो इस महान् कार्य में हमारा मार्ग-दर्शन कर सकें। इस प्रकार की शोध-साधना अपने व्यक्तिगत वर्चस्व के लिये नहीं, विशुद्ध रूप से लोक-मण्डल के लिये करने जा रहे हैं और जो कुछ हमें मिलेगा, उसको राई-रत्ती सार्वजनिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते रहेंगे। जब तक यही करना है। जीवन का अन्त होने से पूर्व शरीर को वैज्ञानिक विश्लेषण के लिये इसलिये वसीयत किया है कि शरीर शास्त्री यह जान सकें कि अध्यात्म साधना से देह के किन रहस्यमय शक्ति संस्थानों को कितना विकसित किया जा सकता है और इस प्रकार के विकास से मनुष्य जाति क्या लाभ उठा सकती है?

(5) हमारी अन्त स्थिति कुछ ऐसी है कि जिनका रत्ती भर भी स्नेह हमें मिला है, उनके प्रति पर्वत जितनी ममता सहज ही उमड़ती है। गत 18 वर्षा में हमने एक विशाल भव्य परिवार बना लिया है। गायत्री परिवार और युग-निर्माण परिवार के माध्यम से तथा व्यक्तिगत स्नेह सम्पर्क से अनेक परिजन हमारे आस-पास इकट्ठे हो गये है और सहज स्वभाव इनमें इतना मोह जुड़ गया है कि उसमें तनिक सी शिथिलता आने की घड़ी में हमारी मनोभूमि चरमरा उठी है। अखण्ड-ज्योति के गत दो अंक में अपना उफान व्यक्त करके थोड़ा चित्त हल्का कर लिया गया है, अन्यथा कुछ दिनों लगता रहा, विकलता से हमारे शिर की कोई नस फुट जाएगी। पढ़ने वालों ने व्यर्थ भले ही समझा हो पर हमारे लिये यह एक तत्काल उपचार था। अब चित्त थोड़ा हल्का हुआ है। फिर भी प्रकृति तो बदल नहीं गई। जो हमें श्रद्धा,सद्भावना, आत्मीयता एवं क्षमता की दृष्टि से देखते है, देखेंगे, प्यार करते हैं, प्यार करेंगे, उनसे विमुख नहीं हो सकते। उनके साथ भी सम्पर्क किसी न किसी रूप से बनाये रहना है।

विशेषतया हमारा मोह उनके प्रति है, जो आयु की दृष्टि से बड़े हो जाने पर मनःस्थिति के अनुसार बालक मात्र हैं। जो जरा-जरा-सी कठिनाइयों को बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं, तनिक-सी आपत्ति आने पर कातर हो उठते है। प्रगति के लिये जिन्हें अपनी शक्ति अपवित्र दीखती है, जिन्हें भीति और निराशा घेरे रहती है। ऐसे बालक हमारे पास सहायता के लिये सदा दौड़ते रहे हैं, उन्हें धमकाते, समझाते तो रहे है पर साथ ही यदि कुछ पास में रहा है तो देने में भी कंजूसी नहीं की है। यह सहारा तकने वाले कमजोर और छोटे बालक हमारी अपेक्षा के नहीं, वात्सल्य के ही अधिकारी रहे है। भले ही हम उनकी भीरुता और परावलम्बी वृत्ति को जीवन अभियान में झिड़कते भी रहे हों।

हमारे जाने का सबसे अधिक आघात इन बालकों को ही लगा है। उनकी कठिनाई वास्तविक है, इसकी उपेक्षा हमसे भी नहीं बन पड़ेंगी। सो एक मार्ग निकाल लिया गया है। माताजी-हमारी धर्मपत्नी भगवतीदेवी - उन्हें वही दुलार और सहायता देती रहेंगी, जो अब तक हम देते रहे हैं। पहले माताजी का मथुरा छोड़ने का विचार था पर अब वे हिमालय और गंगातट पर एक ऐसे स्थान पर रहेंगी, जहाँ लोग उनसे संपर्क स्थापित कर सकें और हमारा सम्बन्ध भी उनसे बना रहे। हरिद्वार और ऋषिकेश बीच गंगातट पर जहाँ सात ऋषि तप करते थे और गंगा की वह सात धारायें हैं, उस एकान्त भूभाग में डेढ़ एकड़ एक छोटी-सी जमीन प्राप्त कर ली गई है और उसमें फलों के पेड़ इसी वर्ष लगा दिये गये हैं। खाने को फल, शाक, पहनने को दो क्यारी कपास जिसका सूत कात कर तन ढक ले, एक गाय जिससे अखण्ड दीपक को घी मिल जाय और छाछ आहार में प्रयुक्त होती रहें एक कर्मचारी जो पेड़ पौधे और गाय संभालता रहे, रहने को चार कुटियाँ।

इस प्रकार की व्यवस्था वहीं बनाई जा रही है जो धीरे-धीरे ढाई वर्ष में पूरी हो जायेगी। माताजी वहीं रहा करेंगी। जिस प्रकार हमारे 24 वर्षों तक पुरश्चरण चले उनके भी चलते रहेंगे और जो शक्ति उन्हें प्राप्त होगी, उसे अभाव ग्रस्त और राह पीड़ित बालकों को बाँटते हुए अपना मातृत्व सफल करती रहेंगी। इस प्रकार जो हमारे जैसे अपने को असहाय अनुभव करते है, उन्हें वैसी कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा।

इस प्रयोजन के लिये माताजी की शक्ति कम पड़ेगी तो हम उसकी पूर्ति करेंगे। शोध-साधन से जो ज्ञान मिलेगा, उसे भी सर्वसाधारण के लिये माताजी के माध्यम से ही प्रस्तुत करते रहेंगे। इस प्रकार प्रकारान्तर से हमारा सम्पर्क भी अपने विशाल परिवार से बना रहेगा और माताजी दोनों को जोड़ने वाली एक कड़ी के रूप में अपना कार्य पूरा करती रहेगी। सारे जीवन भरे हम देते ही रहें है अच्छा नहीं लगता कि इस प्रवाह को अब बन्द कर दें। देने की अच्छी परम्परा को जारी रखें, उसके लिये यह माध्यम ढूँढ़ लिया गया है। हमारे मार्ग दर्शक ने माताजी को यह परामर्श दिया तो उन्होंने उस हर्ष के आँसू भर कर शिरोधार्य ही किया। यद्यपि उन्हें अपने निज के बच्चे छोड़ते हुए हमारी तरह व्यथा होती है पर वे उसे हमारी तरह दूसरों के आगे प्रकट करने की आवश्यकता नहीं समझती। शरीर की ही तरह वे मन से भी निस्सन्देह हमसे अधिक भारी है।

अगले दिनों के लिये हमारे पाँच कार्यक्रम है, जिनका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में कर दिया गया। अब तक जिन पाँच कार्यों में हमें 18 वर्ष लगाने पड़ें वे अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे पर आगे जो करने है, वे भी कम मूल्यवान नहीं है। उनकी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। इस जीवन का ऐसा सदुपयोग होते देखकर हमें जो सन्तोष है, उससे स्वजनों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध छोड़ने की जो तीव्र तड़पन, बिरह-वेदना उठती है उसका एक हद तक समाधान किसी प्रकार हो ही जाता है। यद्यपि वह कसक बार-बार हमें बुरी तरह व्यथित और विचलित कर देती है।

पिछले दिनों जिन पाँच कार्यों को करते रहे हैं, उसके लिए एक यही शरीर काफी नहीं था, जो सबको दिखता है। इन प्रयोजनों के लिए हमें अपने पाँच कोशों में से पाँच ऐसे व्यक्तित्व उगाने पड़े हैं, जो दिखते तो इसी घोंसले में रहते हुए हैं पर काम अलग-अलग मोर्चों पर लड़ने वाले पाँच योद्धाओं जैसा करते हैं। आगे के काम चूँकि अधिक बड़े, अधिक भारी और अधिक श्रम साध्य हैं। अस्तु उनके लिये समर्थता भी अधिक चाहिये। प्रयत्न यही करेंगे कि अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश इन पाँचों के अन्तराल में छिपी सामर्थ्य की और अधिक विकसित किया जाय, ताकि अधिक तीव्र शक्ति का उद्भव हो सके और उसके आधार पर सामने पड़े उत्तरदायित्वों का पर्वत उठाया जा सकना सम्भव बन सके।

उस सौभाग्य को कितना सराहें जिसने हमें पेट और प्रजनन के, तृष्णा और वासनाओं के उस आकर्षण से बचा लिया, जो नर-पशुओं को भव-बन्धनों में बाँधे रहने के लिये लौह जंजीरों का काम करते हैं, जिनमें जकड़ा हुआ प्राणी असह्य प्रताड़नायें सहता हुआ, मानव-जीवन जैसे अलभ्य अवसर को व्यर्थ विडम्बनाओं में गवाँ देता हैं। धन्य हैं, हमारे सौभाग्य जिसने हमें जीवनोद्देश्य के लिये कदम बढ़ाने का शौर्य और तथाकथित सम्बन्धी शुभ-चिन्तकों के मोह और अज्ञान भरे परामर्श, अनुरोध को ठुकरा देने का साहस प्रदान किया। यदि भीतर से यह पात्रता न उगी होती तो गुरुदेव का अनुग्रह और भगवान् का आशीर्वाद कहाँ मिल सका होता।

यह सौभाग्य जो हमारे ऊपर बरसा, हमारे भीतर से उगा, भगवान् करे हमारे सारे परिवार के ऊपर बरसे और हम सभी के भीतर से उगे, उपजे।


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